जयगुरुदेव
दीन भाव और सेवा का फल
गाँव में एक पहुँचे हुए महात्मा जी का सतसंग चल रहा था। एक बहुत बड़ा जमींदार आया, चुपचाप पीछे बैठ गया, बोला कुछ नहीं। चुपचाप सुनता रहा, उठकर चला गया। दूसरे दिन आया अकेला, चुपचाप पीछे बैठ गया। सतसंग सुनता रहा। उठकर चला गया। महात्मा जी ने अपना पूरा सतसंग सुनाया। एक-एक बात महात्मा की पकड़ता रहा। बीस दिन तक लगातार उसने सतसंग सुना।
उसको समझ में आया कि सेवा करनी चाहिये। उसने देखा कि लोग जूते जहाँ उतारते हैं। वहाँ बैठा और सबके जूते रखने लगा और झाड़ने लगा। सतसंग पूरा हो गया, तो चुपचाप चला गया। बोला किसी से कुछ नहीं। वह नित्य प्रति यह सेवा करता रहा। फिर उसको समझ में आया कि संगत की कौन सी सेवा है तो चुपचाप झाडू लगाने लगा। यह काम उसने बीस दिन तक किया।
उसके बाद देखा नजदीक कैसे पहुंचेंगे, तो बर्तन मलने लगा और चौका लगाने लगा। तब तक उसको कोई नहीं जान पाया। एक दिन उसका एक नौकर आया। वह देखता रहा कि यह तो जमीदार है! यह यहाँ क्या कर रहा है। बर्तन मलते मलते बीस दिन हो गये।
जमीदार को उस नौकर ने पहचान लिया जमींदार नौकर से बोला कि देख किसी को बताना नहीं। एक महीना बर्तन मलते हो गया, हाथ में निशान पड़ गये। महात्मा जी ने लोगों को बुलाया था कि जो जिज्ञासु है, उनको रास्ता बतायेंगे जमींदार भी चुपचाप बैठ गया और उसको भी भजन करने का रास्ता मिल गया भेद ले लिया तो बोला ऐसी बड़ी नियामत मिली है। यह अमोलक चीज मिली। यह ऐसे नहीं मिलती। यह सेवा से मिली है। यह चीज धन दौलत से मिलने वाली नहीं थी।
फिर जमदार लगा भजन करने और रोज यहाँ सेवा का काम करे। उसको जान-पहचान का जो आदमी आया था, वह चुप हो गया। जब महात्मा जी ने देखा कि इसकी पूरी कमाई हो गयी तो उसको जीवों को रस्ता बताने का सर्वेसर्वा बना दिया।
धन-दौलत परमार्थ में काम नहीं आती चालाकी, होशियारी, बनावट काम नहीं आती। सेवा काम आती है। सेवा से गमगीन हो जायेगा, चुप हो जायेगा और छोटा हो जायेगा। वह खुद भी पार हुआ और औरों को भी पहुंचाया बनावट से काम नहीं बनता।
इसलिए दीन बनकर चुपचाप सेवा और भजन में लगे रहना चाहिए। गुरु सब देखते रहते हैं, उनसे कुछ भी छिपा नहीं है। गुरु अंतर्यामी के भी अंतर्यामी होते हैं।
गुरु भक्ति क्या है ?
कबीरदास जी के समय की बात है उनके पास एक प्रेमी आया और उसने पूछा कि गुरु भक्ति क्या होती है? कबीर साहब ने उसको देखा और चुप रहे। थोड़ी देर बाद उन्होंने अपनी पत्नी लोई को आवाज दी और कहा कि मेरी माला नहीं मिल रही है तू खोज दे। दोपहर का समय था। धूप सिर पर थी। लोई माला खोजने लगी।
जब माला नहीं मिली तो कबीर साहब से कहा कि माला नहीं मिल रही है। उन्होंने कहा कि दीया जलाकर ढूंढ़, लोई ने दीया जलाया और दीया लेकर माला ढूंढने लगीं। यह प्रेमी देखता रहा। उसकी समझ में कुछ नहीं आया, तो उसने कबीर दास जी से कहा कि इतनी रोशनी हो रही है फिर भी आप ने कहा- दीया जलाकर खोजने को और वो दीया जलाकर खोजने भी लगीं। इतनी रोशनी में ?
आपने कहा- दीपक जलाकर खोजो और वे बेचारी दोपहरी की सूरज की रोशनी में दीपक जलाकर खोज रही है। यह आप करा क्या रहे हैं। कबीर साहब ने कहा कि आदेश का पालन ही भक्ति है। उस प्रेमी को उसका जवाब मिल गया। स्वामी जी महाराज (बाबा जयगुरुदेव जी महाराज) ने ये घटना सुनाते हुए प्रेमियों से कहा कि मैं जो कहूं वो तुम करते चलो। इसी में सबकी भलाई है। "गुरु जो कहे करो तुम सोई।
बने तो सतगुरु से बने नहिं बिगड़े भरपूर
स्वामी जी महाराज ने हर तरह से समझाया, कोई भी बात छोड़ी नहीं है। अब ये बात अलग है कि हम उनके वचनों को भूल जायें, थोड़े में ही घबडा जाये और ये सोच लें कि यहां कुछ नहीं हो रहा है तो कहीं और जाकर देखें। यह मन की सबसे बड़ी कमजोरी है।
गुरु महाराज ने परिचय दे दिया कि रास्ता सच्चा है. नाम भेद सच्चा, बताने वाला सच्चा है, फिर भी मन डांवाडोल हो जाय, तो इसे काल और कर्मों का चक्कर ही कहेंगे जो जीवात्मा को परमार्थ से दूर ले जाना चाहता है। परमार्थ में ये कच्चापन ठीक नहीं। यह तो बहुत बर्दाश्त और धीरज का विषय है। कबीर साहब ने कहा कि-
'अब तो जरे मरे बनि आये लीन्हेउ हाथ सिंधौरा
अर्थात् अब तो निभाना ही पड़ेगा। पल्टू साहब ने कहा- 'अपनी ओर निभाइए. हार पड़े की जीत । "हम शिष्य बने है तो हमें शिष्य धर्म निभाना होगा और शिष्य धर्म ये है कि
बने तो सतगुरु से बने, नहिं बिगड़े भरपूर तुलसी बने जो और से, ता बनिवे पर धूर ।।
बनाएगा तो सतगुरु बनायेगा यह दरबार छोड़कर कहीं और दामन फैला दिया तो अपना धर्म खो दिया। बिगड़ा वैसे भी, तो क्यों न गुरु के दरवार में ही रहकर बनने बिगड़ने का चक्कर झेला जाय। कहा है-
पड़ा रहे दरबार में, धक्का धनी का खाय कभी तो गरीब नवाजहि, जो दर छोड़ न जाय।
साभार, (पुस्तक) होली 2023
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Brhammand ka bhed kholne wale baba umakantji maharaj |
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1 टिप्पणियाँ
बहुत सुंदर,,
जवाब देंहटाएंजय गुरु देव
Jaigurudev