24 - स्वामी जी की यादें (post 13)

24 - स्वामी जी की यादें 
श्री विपिन विहारी श्रीवास्तव (आजमगढ़)

मैंने स्वामी जी महाराज का दर्शन तो जौनपुर मे किया किंतु मैनेजर भैया द्वारा उनकी चर्चा मैं सुनता रहा। मैं भैया (श्री नारायण श्रीवास्तव) के पास ही रहकर बनारस में पढ़ता था। लेकिन स्वामी जी का दर्शन मुझे सर्वप्रथम बनारस में न होकर जौनपुर में हुआ। 

मेरे चाचा के लड़के की शादी थी उसमें भैया ने स्वामी जी को भी बारात में चलने को तैयार कर लिया था। कायस्थों की बारात की  खान-पान की गड़बड़ी होने की बात तो रहती ही है। स्वामी जी ने इस शर्त पर बारात में चलने की स्वीकृति दी कि बारात का स्वागत शुद्ध शाकाहारी ढंग से होगा। 

भैया ने इस बात को स्वीकार कर लिया। भैया की बात पूरे परिवार के लोग मानते थे अतः उनकी इस बात पर किसी ने आपत्ति नहीं की और स्वामी जी महाराज भैया के साथ जौनपुर पधारे। उस समय स्वामी जी की सादगी और गंभीरता देखकर मैं मुग्ध हो गया। मेरा मन श्रद्धा से भर गया और तभी से स्वामी के प्रति मेरी श्रद्धा दृढ़ होने लगी। 

स्वामी जी का साथ मुझे बहुत ही अच्छा लगता और मैं उनका सामीप्य पाने के लिए लालायित रहता। मेरी माताजी और पिताजी यद्यपि इस बात को उस समय पंसद नहीं करते थे किंतु मुझे जब भी मौका मिलता मैं स्वामी जी के पास जाता। स्वामी  जी की निकटता पाने के लिए ही मैंने बनारस में ही अपनी पढ़ाई की। 

नाटी इमली भैया के पास ही रहता था, क्योंकि वहां स्वामी जी बराबर आया करते थे। सन् 50 में मेरे दूसरे भाई (चाचा के लड़के) की शादी बनारस में होने वाली थी। हम सभी वहां आये थे। मुझे खबर मिली कि स्वामी जी आये हुए हैं मैं नाटी इमली चला गया।  गर्मी के दिन थे मैं स्वामी जी के साथ अकेला छत पर बैठा था। 

स्वामी जी ने मुझसे पूछा ‘ तुम कुछ करोगे’ मैंने कहा जी। स्वामी जी ने मुझे उपदेश दिया नाम का और ध्यान में बिठाया और मैं बैठ गया, स्वामी जी अकेले छत पर टहलने लगे। नीेचे मेरी खोज की जाने लगी। भैया का नौकर छत पर आया उसने मुझे बैठे देखा तो भैया से जाकर उसने बताया। मुझे याद है भैया इस पर मुझसे और स्वामी जी से नाराज भी हुए थे। यह बात फैल गई मेरे पिताजी मुझपर बहुत ही क्रुद्ध हो उठे थे। 

खैर दिन बीतते रहे। सन 52 में स्वामी जी महाराज जफराबाद आये थे। संभवतः जून का महीना था। मैं स्वामी जी के दर्शन करने बनारस से जफराबाद गया। जफराबाद में स्वामी जी ने मुझसे कहा कि ‘चलो शम्भु जौनपुर में तुम्हारे घर चलें’। 

मैंने स्वामी जी की बात मान ली। मैं स्वामी जी के साथ इक्के से जौनपुर आया। मेरे मन में डर भी था कि कहीं मेरे बाबूजी स्वामी जी से अप्रसन्न न हो उठें और कुछ कह न दें किन्तु बाबूजी ने प्रसन्नता पूर्वक स्वामी जी का  स्वागत किया। उस समय मेरी अम्मा, बहनें आदि सभी लोग गांव पर गई हुई थीं। बाबूजी अकेले जौनपुर में थे। मैंने खाना बनाया। स्वामीजी ने भोजन किया। 

स्वामी जी ने मुझसे पूछा कि ‘तुम्हारे गांव चलें’ मैंने कहा स्वामीजी चलिए’ हम और स्वामी जी गांव पहुंचे। मेरे घर में पर्दा बहुत अधिक था। अतः घर की स्त्रियां स्वामी जी के सामने कैसे आवें यह भी एक समस्या थी।

स्वामी जी घर के बाहर बारामदे में बैठे थे।  मेरी अम्मा बहनों ने दरवाजे से झांककर स्वामी जी के दर्शन किए। वहां एक विचित्र घटना घटी। मेरी छोटी बहन विमला ने मुझसे कहा भैया’ जब से मैंने स्वामी जी को देखा है तब से जब मैं आंखें बन्द करती हूं तो सामने बहुत प्रकाश नजर आता है, यह क्या है ? मैं क्या बताता! मैंने स्वामी जी से विमला की बात कही तो उन्होंने कहा कि अगर वह सामने आये तो मैं उसे समझा सकता हूं। 

मैं विमला और शांति को (मेरे चाचा की लड़की) को लेकर स्वाजी जी के पास एकांत में मिला वही पर स्वामी जी ने विमला और शांति को एक साथ नामदान दिया। लेकिन इसके बाद मुझे जो कुछ घर की स्थितियों का सामना करना पड़ा वह अब जब कभी मैं सोचता हूं तो हंसी आती है। अम्मा ने हम तीनों से बेहद नाराज होकर बोलना छोड़ दिया। बाबूजी ने जब सुना तो वे मुझे मारने भी उठे थे।

उसके बाद स्वामी जी के साथ मैं वाराणसी आया। जुलाई का महीना था। स्वाजी जी नाटी इमली पर ही रहते थे। मेरी मंझली बहन (श्रीमति कमलादेवी) जो बनारस में ब्याही हैं वे अर्दली बाजार में रहती थीं मैं उनके पास बराबर जाता रहता था। 

मैं उस समय गया और मैंने स्वामी जी की चर्चा उन लोगों से की। बहिन के ससुर ने अपनी इच्छा प्रकट की कि स्वाजी आवें और यहां उनका प्रवचन हो। मैंने स्वाजी से जाकर कहा। पहले तो स्वाजी ने इंकार कर दिया। फिर बुलाकर कहा कि जाओ कह दो उन लोगों से कि मैं आऊंगा। मैंने जाकर बहिन से बताया। सब लोग बहुत प्रसन्न थे। वह थी जुलाई की 9 तारीख। 

स्वामी जी ने निश्चय किया कि दूसरे दिन शाम को वो चलेंगे। सुबह फिर स्वाजी ने मुझसे कहा कि मैं नहीं जाऊंगा। मैं अर्दली बाजार सूचना देने गया। वहां से नाटी इमली से वापस लौटा तो स्वाजी ने कहा कि अच्छा जाओ कह दो ‘मैं शाम को आऊंगा।  

मुझे अच्छी तरह याद है कि उस दिन मैं दिनभर साइकिल से नाटी इमली और अर्दली बाजार एक किए था। कभी हां कभी नहीं कि सूचना देने के लिए। अंत में  स्वामी जी चलने को तैयार हो गए और 10 जुलाई सन् 52 को स्वाजी जी महाराज ने पहला आम सत्संग महावीर मार्ग अर्दली बाजार स्थित ‘श्याम भजन’ के प्रांगड़ में 17 आदमियों के बीच में किया।

सत्संग होने के बाद चार या पांच दिन के बाद स्वामी जी ने पांच आदमियों को नामदान दिया जिसमें मेरी बहिन, जीजाजी, अम्मा, बाबूजी (बहिन के सास और ससुर) तथा बहिन की नन्द (मुन्नी बहिन) थीं।  उस दिन की रात्रि भी बड़ी ही विचित्र थी। 

नामदान देने में रात्रि काफी व्यतीत हो गई। हम स्वामी जी के साथ रात्रि के लगभग 12 बजे नाटी इमली पहुंचे। वहां भैया और भाभी का क्रोध अपनी सीमा पर था। स्वामी जी का बिस्तर बाहर  बारामदे में लगा दिया गया था। भैया ने स्वामीजी को कुछ क्रोध भरे शब्द कहे। भैया का एक वाक्य मुझे अब भी याद है उन्होंने कहा था कि आपने बिना मुझसे पूछे मेरे रिश्तेदारों को नामदान क्यों दिया ?

स्वामी जी एक दम चुप थे। मुझे मन ही मन बहुत बुरा लगा किंतु मैं भी चुप था। भैया आदि जाकर सो गए। मैं और यशोदा बहिन रात भर स्वामी जी के पास बैठे रहे। स्वामी जी ने हम लोगों से कहा ‘जाकर तुम लोग आराम करो’ लेकिन हमारी इच्छा स्वामी जी को छोड़कर घर के अंदर जाने को नहीं थी न हम लोग गए। 

प्रातः नित्य क्रिया से निपटने के  लिए स्वामी जी जब अन्दर गए तब भैया ने उनसे बड़े ही विनम्र शब्दों में माफी मांगी।  मुझे अब भी याद है स्वामी जी ने कहा था कि गलती आपने तो की नही है, गलती तो मुझसे हुई है जो कि मैंने आपके रिश्तेदारों को बिना आपसे पूछे नामदान दे दिया है। भैया चुप थे कि फिर स्वामी जी ने कहा कि मैंने जो कुछ किया है वह गुरु महाराज के आदेश से। इस प्रकार स्वामीजी महाराज ने आम सत्संग की शुरुआत की।

स्वामी जी के साथ रहकर मुझे बहुत कुछ अनुभव हुआ है, बहुत सीख मिली है। बहुत सी स्मृतियां इस समय जाग उठी हैं सब कहां तक कह सकता हूं। फिर भी कुछ ऐसी बातें हैं जिन्हें मैं कहना चाहता हूं।  1500 मील लम्बी यात्रा में मैंने स्वामी जी को साइकिल चलाते देखा तो मुझे याद हो आया शुरु में  भी स्वामी जी महाराज साइकिल से चला करते थे। मैं डबल सवारी नहीं चला पाता था।

अतः स्वामी जी मुझको पीछे बैठाकर साइकिल से नाटी इमली से अर्दली बाजार सत्संग करने आया करते थे। कई बार तो मैं स्वामी जी के साथ साइकिल पर सारनाथ भी गया था। मुझे याद है कि एक बार मैं  स्वामीजी के साथ ट्रैन  में यात्रा कर रहा था। मेरे पास इतना पैसा नहीं था कि स्वामी जी के लिए फर्स्ट क्लास का टिकट खरीद सकूं।  अतः मैंने दो टिकट तीसरे दर्जे का लिया। 

स्वामी जी का बिस्तर मैंने बर्थ पर खोल दिया। स्वामी जी उस पर बैठै मैं खड़ा था। इतने में एक सज्जन आये और ऊपर की बर्थ पर जहां सामाान रखा जाता है उस पर चढ़कर बैठै और पैर नीचे स्वामी जी की ओर लटका दिया। मुझे यह बात बहुत ही बुरी लगी। मेरी उन सज्जन से कुछ बहस भी हो गई थी। उसी समय मेरे मन में उठा कि स्वामी जी की यात्रा के लिए एक कार होना चाहिए। 

मैंने स्वामी जी से जब कहा तो उन्होंने हंस कर कहा कि इतना पैसा कहां है। मैंने कहा ‘स्वामी जी! हम लोग अपनी एक माह की तनख्वाह देंगे तब तो गाड़ी आ ही जायेगी। स्वामी जी ने कहा देख लो।’ मेरी यह बात स्वामी जी ने चोका घाट में विश्वनाथ  प्रसाद एक्साइज इंस्पेक्टर (जो अब नहीं रहे) को सुनाई।

उन्होंने सहर्ष स्वीकार किया और हम थोड़े से सत्संगियों ने अपनी एक माह की तनख्वाह देने का निश्चय किया। किंतु तब भी पैसा पूरा न पड़ा। किसी की आर्थिक स्थिति ऐसी न थी कि जो अधिक योगदान कर सकता सभी खाते कमाते थे। फिर तीन माह का वेतन देने का निश्चय किया गया, स्वामी जी महाराज ने कहा कि यदि 8000 रु. का प्रबन्ध हो जाये तो गाड़ी आ सकती है। 

खैर रुपये एकत्रित किए गए और स्वामी जी की फिएट गाड़ी जो अब भी है, सन् 57 में लखनऊ में खरीदी गई। 
संभवतः वह महीना मार्च या अप्रेल का रहा होगा जो मुझे ठीक से याद नहीं है। गाड़ी लखनऊ से सीधे लेकर स्वामी जी आजमगढ़ आये थे। वहीं पर गाड़ी की पूजा की गई थी। गाड़ी  का नम्बर यूपीएल- 2745 था और क्या लिखूं स्मृतियां बहुत सी हैं। छोटी छोटी यादें ही बहुत बड़ी बातें बन जाती हैं।

शेष क्रमशः...
-श्री विपिन विहारी श्रीवास्तव (आजमगढ़)
साभार, अतीत के आईने से

शेष क्रमशः पोस्ट न. 14 में पढ़ें  👇🏽
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