- वी.एन. श्रीवास्तव (छक्कनबाबू) लखनऊ
मैं अपने परिवार सहित आगरे में सन् 1947 से 55 तक रहा। हम लोग धर्मावलम्बी नही थे। सन् 1949 में परम पूज्य स्वामी जी महाराज ने दिसम्बर माह में हम लोगों को प्रथम दर्शन दिया। स्वामी जी को हमारे घर में लाने का श्रेय हमारे बड़े भाई नारायण जी को है। भैया बनारस में रहते हैं और स्वामी जी के गुरुभाई हैं। भैया, श्री संकटा प्रसाद जी व धर्मपत्नी भाभी जी एवं स्वामी जी के साथ अकस्मात हमारे घर पधारे। हम लोग इस छोटे जनसमूह को देखकर अचम्भित रह गए। हमने अपनी यथाशक्ति अतिथियों की सेवा की।
हमारा परिवार उस समय मांसाहारी था फिर भी उस समय में भी स्वामी जी एक दिव्य पुरुष दिखाई दिए थे। जिस भेषभूषा में हमने अपने स्वामी जी को प्रथम बार अपने निवास स्थान पर देखा था उससे हम लोगों को यह कभी विश्वास नहीं होता था कि आगे चलकर यह सीधा सादा व्यक्ति युग पुरुष बनकर निखरेगा।
भैया ने हम लोगों का परिचय स्वामी जी से कराया। स्वामी जी हम लोगों को शाकाहारी होने पर जोर दे रहे थे। मेरी पत्नि विमलादेवी से भी स्वामी जी ने बात किया यद्यपि वह हिचकती थीं किंतु उन्होंने स्वामी जी से यह स्पष्ट कर दिया कि यदि मेरे पति जी शाकाहारी और निरामिष हो जायें तो मैं भी हो जाऊंगी। उस समय स्वामी जी कमीज कोट और वेस्ट कोट पहनते थे। उनका वेस्ट आज भी मेरे पास सुरक्षित है।
स्वामी जी महाराज कुछ दिन रहकर चले गऐ। सन् 50 में भण्डारे से लौटकर पुनः स्वामी जी हमारे घर आये और हम दोनों उनसे पूरी तरह प्रभावित थे। उनके आने पर हम दोनों प्राणियों ने नामदान ले लिया।
फिर तो स्वामी जी महाराज हर महीना अपना दर्शन देते और अपनी अमृतवाणी से हम लोगों को विभोर कर देते। स्वामी जी ने इतनी आत्मीयता दी इतना अपनापन दिया कि मैं क्या कहूं ? हम लोगों का बहुत साथ रहता। स्वामी जी परिवार के एक सदस्य की ही भांति रहते और कभी तो सुबह हम लोगों के उठने में देरी हो जाती तो वे स्वयं उठकर अंगीठी जलाकर चाय का पानी चढ़ा देते और जब हम लोग उठते तब तक चाय बनकर तैयार रहती।
अब कभी उन दिनों को याद करता हूं तो आंखें भर उठती हैं। स्वामी जी महाराज को चाय के साथ मटर की घुंघरी बहुत पसंद थी, जिसे वे स्वयं भी घुघरी कहते थे।
स्वामी जी ने हमारे यहां से पढ़ना प्रारम्भ किया था। सन् 50 से 55 तक स्वामी को हमने अंग्रेजी इतनी सिखा दी थी कि वह अंग्रेजी में दस्तखत करने लगे थे और किताबें भी पढ़ लेते थे। स्वामी जी का स्नेह हम लोगों के ऊपर बहुत ही था। दया से हम लोगों के घर का खर्च चलता है जबकि परिवार बढ़ गया है और बच्चे बड़े हो गये हैं।
एक दिन की बात है, बाबाजी महाराज आगरे में हम लोगों के साथ थे तो रामलीला मैदान में नुमाइश देखने का प्रोग्राम बनाया गया। बाबाजी और हम सपरिवार तैयार हुए। उस समय बच्चे छोटे थे। जाड़े के दिन थे मैं अपनी सूट पहनकर बच्चो को गोद में लेना मेरे स्वभाव और शान के विरुद्ध था।
मेरा दूसरा बच्चा अजय बार बार गोदी लेने को कहता किंतु कपड़े खराब होने की डर से बराबर उसको डांटता रहा। इस पर बाबा जी ने अजय को अपनी पीठ पर बैठा लिया। उन्होंने उससे कहा आओ पुच्चू (अजय को प्यार से वह पुच्चू कहते थे) मैं तुम्हे अपनी पीठ पर बैठा लूं तुम्हारे बाबू जी तुम्हे गोदी नहीं लेंगे उनका कपड़ा खराब हो जायेगा।
‘क्या शुरु में उनकी दया थी, क्या प्यार था’। आज मुझे याद आती हैं बाबा जी की वे बातें जो वह अक्सर कहा करते थे कि ‘अभी जो कुछ सेवा करनी है करलो आगे ऐसा समय आयेगा कि दर्शन भी दुर्लभ हो जायेगा’। आज वही दिन है, हम सब भी वही हैं बाबा जी भी वही हैं लेकिन यह प्यासी आंखें बाबा जी के दर्शनों के लिए महीनों तड़पती रहती हैें। बाबा जी के शरण में आने पर मैंने सब पारिवारिक क्रियायें भी जैसे मुण्डन विद्यारंभ आदि बाबा जी के द्वारा ही सम्पन्न कराया।
लखनऊ में आलमबाग स्थित मेरा निवास है जब यह जमीन मैंने ली थी मैंने बाबाजी को दिखाया उनकी स्वीकृति के बाद ही मैंने जमीन ली और नींव भी बाबाजी महाराज के हाथों ही पड़ी। मुझे याद है कि जब मकान में नींव डालने की बात मैं सोच रहा था कि तब बाबाजी महाराज आये हुए थे और उन्होंने साथ के लोगों से कहा था कि ‘मैं छक्कनबाबू के मकान की नींव डालने जा रहा हूं’ इस प्रकार आर्थिक आभावों के बीच भी मकान किसी न किसी प्रकार बन ही गया।
बहुत सी छोटी छोटी घटनायें मेरे लिए बहुत महत्वपूर्ण हैं और अविस्मरणीय हैं। एक बार मेरी छोटी लड़की रीता (बेबी) बहुत बीमार थी मैं आलमबाग में अपने मकान के पास ही किराये के मकान में रहता था। एक दिन उसकी हालत बहुत ही खराब हो गई। मैंने कहा अब दवाई नहीं करुंगा स्वयं बाबाजी इसका इलाज करेंगे।
मैं मन ही मन बाबाजी के आने की प्रार्थना कर रहा था। हठी मैं भी था। मैंने सोचा कि जब मैंने अपना सबकुछ गुरु को मान लिया है तो क्या वह अपने बेबी को अच्छा नहीं करेंगे। मुझे आश्चर्य हुआ कि जब सुबह बाबाजी महाराज कार से घर पर पधारे मुझे शांति मिली।
मैंने बाबाजी को बेबी की हालत से अवगत कराया और बताया कि दवा मैंने नहीं की। आपके दर्शनों की ही लालसा थी उसी के सहारे बेबी ठीक हो जायेगी। बाबाजी के लिए नाश्ते में हरे मटर की घुघरी बनाई गई। बाबाजी ने बेबी को पास बैठाया। जो बच्ची असाध्य थी बैठ नहीं पाती थी उसे बाबाजी ने अपने पास बिठाया और घुघरी खुद भी खाते और अपने चम्मच से बेबी को देते जाते थे और कहते थे खाओ।
बाबाजी ने कहा, छक्कनबाबू कहते थे कि उनके बिटिया की तबीयत खराब है कहां खराब है ? वह तो घुघरी खा रही है हम सभी लोग आश्चर्य चकित रह गए। वाह रे समरथ गुरु! कहां तक तुम्हारी महिमा का गुणानुवाद करुं। बेबी ठीक हो गई।
एक दिन की बात है कि विजय हमारा बड़ा लड़का टाइफाइड से बड़ा बीमार हो गया था और इतना कमजोर हो गया था कि उठ बैठ नही पाता था। दवा करके मैं परेशान हो गया था। परम पूज्य बाबाजी महाराज अकस्मात लखनऊ पधारे और यदुनाथ राय दरोगा के क्वार्टर पर रुके जो पान दरीबे के पास था। जब बाबाजी आये तो मैंने कहा कि अब दवा नहीं करूंगा अब स्वयं मालिक ठीक कर देंगे। दरोगा जी के यहां सत्संग हो रहा था।
सत्संग समापन होने पर मैंने बाबाजी से कहा कि बाबाजी विजय बहुत बीमार है अपना प्रसाद दे दीजिए। बाबाजी अंगूर खा रहे थे। उन्होंने कहा कि ये अंगूर ले जाकर विजय को खिला देना। मैंने अंगूर विजय को खिलाया। अंगूर खाने के पश्चात विजय का बुखार कम होने लगा। मालिक को चैन कहां सुबह बाबाजी छाता लिए हुए मेरे निवास स्थान पर आये। उन्हें देखकर मैं इतना रोया कि क्या कोई भक्त रो सकता है। बाबाजी के आने से पहले मैं, जहां विजय लेटा था, वहीं यह प्रार्थना कर रहा था...
तेरे सिवा वो कौन है जानू मैं अपना जिसे गुरु’
मैंने विजय से कहा बेटा बाबजी आ गए। वह लड़का जो टाइफाइड में हफ्तों पड़ा था अपने से उठ बैठ नहीं सकता था, चारपाई से उठकर बाबाजी को मत्था टेकने आ खड़ा हुआ। कहां तक अपने गुरु क गुणानुवाद करूं, ऐसी घटनायें तो काफी घटित हुईं, लेकिन वह दोनों महत्वपूर्ण थीं। अतः इनती चर्चा मैंने की है, गुरु दया हम सब प्राणियों पर कितनी अपार है। यह वही विजय लड़का है जिसको स्वामी जी महाराज अपने पेट पर आगरे में बैठाकर खिलाते थे और इसे सिखाते थे कि कहो_
कलयुग केवल नाम अधारा गाय गाय नर उतरहिं पारा।
जितने भी पुत्र पुत्रियां हमें मिली हैं वह सब बाबा जी की देन है और उन्हीं के हैं मेरे कोई नहीं यह सब अपने परम पिता का कार्य करेंगे जिसके लिए उन्हें मनुष्य शरीर दिया गया है।
क्रमशः---
-- वी.एन. श्रीवास्तव (छक्कनबाबू) लखनऊ
साभार, अतीत के आईने से
शेष क्रमशः पोस्ट न. 2 में पढ़ें 👇🏽
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