महात्माओं के वचन 26.
*1* शैतान "हजरत मूसा" की सेवा में उपस्थित हुआ और कहने लगा कि, मैं आपको तीन बातें सिखाता हूं जिससे कि प्रभु से आप मेरे पक्ष में आशीर्वाद मांगे। उन्होने पूछा कि वे तीन बातें क्या हैं ? शैतान ने कहा वे ये हैं,
*✓* पहला क्रोध और शीघ्र रुष्ट होने के स्वभाव का और हल्का होता है अर्थात् शीघ्र भड़क उठता है, उससे मैं ऐसा खेलता हूं जैसे बालक गेंद से जिधर चाहा फेंक दिया।
*✓* दूसरे स्त्रियों से बचे रहिये क्योंकि संसार में मैंने जितने जाल फन्दे बिछाये उन सबसे अधिक भारी और दृढ़ बन्धन स्त्रियों का है और मुझे इस बन्धन का पूर्ण विश्वास है।
*✓* तीसरे कृपणता से बचिये क्योंकि जो कृपण होता है उसका भी संसार और परमार्थ दोनों मटियामेट कर देता हूं।
*2* प्रभु के प्रेमियों का हृदय प्रभु के भेद और प्रेम का एक सन्दूकचा है। वह अपना अनमोल जवाहरात ऐसे सन्दूकचे में नहीं रखता जिसमें संसारी वस्तुयें रखी हुई हैं। सच्चे प्रभु की प्रीति उसी हृदय मेें उत्पन्न होगी और वही उसके भेद को जानेगा जो संसारी इच्छाओं से रिक्त है।
*3* जो नेत्र कि अपने प्रभु के प्रकाश को देखने में व्यस्त न हों उनका अन्धा होना अच्छा है। जो जिव्हा कि उसके गुणानुवाद गाने में मगन न हो गूंगी अच्छी है। जो कर्ण कि सतगुरु के वचन और प्रभु का आंतरिक शब्द श्रवण न करता हो, वधिर अच्छा है। जो तन कि उसकी सेवा में लगा न हो वह व्यर्थ है।
*4* किसी ने एक साधु से पूछा कि मुझे ऐसी बात बतलाइये कि जिससे प्रभु मुझे मित्र रखे और प्यार करे। उन्होने कहा कि संसार और मन के संसारी अंगों को शत्रु जान अर्थात परमार्थ में विघ्नकारक जान, प्रभु तुम्हे मित्र रखेगा और तुझ पर दया करेगा।
*5* सतगुरु अपने सेवक की कष्ट हानि और विपत्ति के समय इस प्रकार परीक्षा लेते हैं जैसे सुनार सोने की आग से, कोई शुद्ध सोना निकालता है कोई दूषित यानि मिला हुआ।
*6* परमार्थी को तीन बातों का विचार रखना चाहिए। *✓* एक यह कि यदि किसी को लाभ न पहंचा सके तो हानि भी न पहुचावे।*✓* दूसरे यह कि यदि किसी को प्रसन्न न कर सके तो अप्रसन्न अथवा दुःखी न करे। *✓* तीसरे यदि किसी की प्रशंसा न करना चाहे तो उनकी कोई बुराई भी न करे।
*7* इन पांच बातों को अवश्य याद रखना चाहिए। 1 किसी की पीठ पीछे बुराई न करना। 2 किसी के भेद या गुप्त बात को प्रगट न करना। 3 झूठ वचन न कहना। 4 सतगुरु की आज्ञा में चलना। 5 अन्दर या बाहर में चोरी न करना।
*8* जो अति करके भोजन करता है उसमें ये पांच अवगुण होते हैं। 1 भजन में उसको रस नहीं मिलता। 2 उसके स्वास्थ्य में कमी हो जाती है। 3 वह दयावान कम होता है। 4 स्वामी की सेवा और भजन उसको भारी पड़ते हैं। और 5 उसका मन बलवान हो जाता है।
*9* महान अभाग्य क्या है ? मन का मुर्दा होना । मन का मुर्दा होना क्या है- स्वामी को भूलना और संसार को चाहना।
*10* लोग कहते हैं कि हम प्रभु की पूजा करते हैं। यथार्थ में वे अपने मन के पुजारी हैं, किन्तु कहते हैं कि प्रभु हमारा सहायक है। वे इससे उससे सहायता चाहते हैं, किसी के कृतज्ञ होते हैं और किसी को दोष लगाते हैं।
*11* संसार में चैतन्य रहो और बचते रहो क्योंकि इसने विद्वानों, बुद्धिमानों और धनवानों को अपना चाकर बना रखा है।
*12* जो कार्य कि प्रभु के निमित्त किया जाता है उसमें बन्धन नहीं होता। जो कर्म प्रभु के निमित्त नहीं होगा उसमें बन्धन अवश्य होगा।
अतएव फल की आशा छोड़कर सब कार्य प्रभु के चरणों में अर्पण करके अर्थात उनकी इच्छा पर छोड़कर करना चाहिए जिससे कि मन फंसने न पावे क्योंकि मन के बन्धन से दुःख सुख पैदा होते हैं।
*13* जो अत्याधिक भोजन करता है या अति न्यून भोजन करता है, जो बहुत अधिक अथवा कम सोता है, वह परमार्थ की कमाई ठीक ढंग से अर्जित नहीं कर सकता।
*14* जो व्यक्ति स्वयं को उत्तम जानता है वह नीच है, जो व्यक्ति अपने को नीच जानेगा, उसकी सब प्रशंसा करेंगे।
*15* यदि हृदय में प्रभु से मिलने की लालसा उत्पन्न करो तो उस प्रभु का भय भी रखो। सबसे बढ़कर काम तो मन के विरुद्ध करने में हैं।
जयगुरुदेव आध्यात्मिक सन्देश
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जयगुरुदेव नाम प्रभु का |
*2 * जितने मत संसार में प्रचलित हैं, उन सबमें कोई न कोई साधन, मुक्ति के प्राप्ति हेतु वर्णन किये गये हैं। किन्तु सच्ची मुक्ति के भेद और उसके प्राप्त होने की युक्ति से सब अनभिज्ञ हैं।
किसी -किसी मत में कोई कोई साधन तो प्रायः अत्यन्त ही कठिन और दुस्तर हैं और उनमें लाभ बहुत कम होता है और मुक्ति पद का मार्ग बिल्कुल नहीं मिलता।
*3* पहले तो बहुत कम जीव उन कठिन साधनों को आरम्भ कर पाते हैं और उनमें से बहुत कम जीवों से वे साधन थोड़े बहुत बन पाते हैं।
केवल तन मन की थोड़ी निर्मलता के अतिरिक्त और कोई लाभ उनसे प्रतीत नहीं होता।
*4* दूसरे जिन जीवों से वे साधन थोड़े बहुत बन पड़ते हैं वे अत्यन्त अहंकारी और अभिमानी हो जाते हैं। आगे चलकर उन्हें सतगुरु की खोज और अपने अभ्यास की उन्नति की रुचि नहीं रह जाती।
*5* तीसरे यह है कि किसी किसी मत में जहां विद्या और बुद्धि का प्रचार अधिक है वहां गुरु की कोई विशेष आवश्यकता अथवा प्रतिष्ठा नहीं समझी जाती । कोई कोई साधारण से व्यवहार प्रचलित रखते हैं। किन्तु जो महिमा और प्रशंसा गुरु की सन्तों ने वर्णन की है वह किसी के चित्त में नहीं ठहरती ।
इस कारण उन लोगों का पूरे गुरु में भाव नहीं आता और सच्चे प्रभु और उद्धार के नियम से वे अनभिज्ञ रह जाते हैं।
*6* यह अभ्यास मन और सुरत को समेटने और चढ़ाने का है। अन्त समय में अर्थात मृत्यु के समय यह अभ्यास दुःख सुख के भुलाने और मृत्यु का प्रभाव न व्यापने देने में अधिक सहायक होगा। अर्थात जिस सिमटाव और खिंचाव का जीव अभ्यास के समय पर प्रसन्नता से सर्व अंग करके होगा और अत्याधिक आनन्द की प्राप्ति होगी।
*7* यह सब दशा और विवरण देखकर भी जीवों के मन में इस विषय में खोज करने का विचार उत्पन्न नहीं होता। विपरीत इसके भूल और भ्रम यहां तक बढ़े हुए हैं कि कोई व्यक्ति इसके सम्बन्ध में बातचीत भी नहीं करता और न उसका कुछ वर्णन ही सुनना चाहता है।
*8* इसका कारण यह है कि जीवों के मन में यह विचार कि परम प्रभु का पता और भेद न सम्भव है और न कोई उसके धाम पहुंचकर मिल सकता है।
ऐसे विचार वाले कुछ व्यक्तियों ने परमार्थी भेष धारण करके जीवों को अनेक प्रकार का धोखा दिया उसके साथ अनेक प्रकार के विश्वास घात किये जिसके कारण प्रायः परमार्थी व्यवसायी और वार्तालाप करने वालों से उसका उन पर से विश्वास जाता रहा। इस विषयों में अभ्यास की क्रिया आदि की खोज व्यर्थ समझाी गयी।
*9* इस कारण से सभी जीवों का ध्यान संसार और उनके भोग विलास के पदार्थों और उनके सम्मान के प्राप्ति में ही आकृष्ट होने लगा और परमार्थी क्रिया व्यवहारिक और टेकियों के समान ही रह गयी।
जो लोग कि विचारवान है और सच्चे मन से सच्चा परमार्थ चाहते हैं कि किसी टेक या लीक के बंधे नही हैं, उनके लिये यह वचन कहा जाता है कि
पहले सतगुरु की खोज करो, उनके सत्संग में प्रीति रखो, दीनता और रुचि के साथ चलो और मिलो, तब स्वार्थ और परमार्थ का यथार्थ बोध हो सकेगा।
इन दिनों में सच्चे गुरु और महाप्रभु का भेद, उनके निज धाम का मार्ग और उस पर चलने की युक्ति का विस्तृत विवरण सतगुरु की संगत से विदित हो सकता है।
जो सच्चा खोजी और पीड़ित है उसे चाहिए कि उस संगत में सम्मिलित होकर सुरत शब्द मार्ग का उपदेश लेकर अभ्यास करे संसार के जाल में न फंसे, भोग विलास, धन माल, मान-सम्मान आदि की इच्छा आवश्यकतानुसार करे, जिससे अपना और कुटुम्ब का भरण पोषण हो जावे। व्यर्थ और अधिक व्यय की इच्छा न करे।
इस संसार और उसके बखेड़े आदि से बचे, सतसंग में बैठकर सन्तों के वचन और वाणी को सुनकर विचार के साथ उनके अनुसार कार्य करे। तब सहज में संसार से निवेड़ा हो जावेगा और उसी अनुसार मन और सुरत सन्त सतगुरु की दया से अभ्यास में लगेंगे।
जिनके मन में सच्चे गुरु और सच्चे प्रभु का भय है वही भगवान हैं और वही मन और इच्छा की विपत्तियों से प्रत्येक दशा में बचेगा।
यह कोई आवश्यक बात नहीं कि पहले भय उत्पन्न हो। प्रेम अंग वालों के मन में प्रीतम और उसके धाम की महिमा सुनकर गहरी अभिलाषा और प्रेम एकदम उत्पन्न हो जाते हैं। फिर अभ्यास के साथ रस तथा आनन्द प्राप्त होने से प्रेम दिन प्रतिदिन बढ़ता जाता है।
फिर यह भय उत्पन्न होता है कि किसी कार्य से प्रीतम रुष्ट न हो जायं यह भय बहुत निर्मल करता है और प्रीतम से सम्बन्ध कराता है। सच्चे प्रेमी के मन में यह भय आप ही उत्पन्न होता है। और जब तक कि काम पूरा न हो जाय अर्थात प्रीतम का साक्षात दर्शन नहीं प्राप्त हो जाता तब तक वह दूर नहीं होता।
यह भय बड़ा प्रभावकारी होता है, विरले भाग्यवान परमार्थी के मन में प्रगट होता है। यह भय यथार्थ में प्रेम स्वरूप है और सतगुरु की विशेष कृपा का चिन्ह है। जिस घट में यह प्रगट हुआ मानो प्रेम और आनन्द का भण्डार खुलना आरम्भ हो गया।
जिस किसी को भाग्य से ऐसा धन अर्थात गुरुमुखता प्राप्त हो वही जीव महाभाग्यवान और सबसे ऊंचा और परम प्रभु का महान प्रिय है। उसके द्वारा बहुत से जीव तर सकते हैं।
संसार में देखने में आता है कि लोग राजा महाराजा और धनिकों के साथ अकारण और निष्प्रयोजन लगे और सेवा करने के लिये तत्पर रहते हैं, और जब अवसर प्राप्त होता है तो अपने प्यार को प्रगट करते हैं, और सेवा करके बहुत प्रसन्न होते हैं।
अब विचार करो कि परम स्वामी महाप्रभु दयाल और सन्त सतगुरु के चरणों में उनका जो उनके निज प्रिय पुत्र और सेवक हैं कहां तक प्रेम और सेवा करना उचित और आवश्यक है।
इस प्रेम के द्वारा जीव का सच्चा कल्याण अर्थात पूरा उद्धार होना सम्भव है, और जब से कि चरणों में लगे तब से घट में रस और आनन्द प्राप्त होना आरम्भ हो जाता है।
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