*जीवों के सन्त मत में सम्मिलित होने निमित्त अनुचित और असत्य भ्रम तथा भय* 27.

जय गुरु देव 

साधारणतः सन्तमत के वसूल लाभ और भेद को सुनकर सबको थोड़ी बहुत शान्ति प्राप्त होती है अर्थात् जो बातें पूछने योग्य होती हैं उनका उत्तर ठीक ठीक और थोड़ा बहुत सान्तवना देने वाला होता है।

किन्तु जीवों की समझ बूझ ओछी है।  इस कारण से वे सन्तमत की महिमा, बड़प्पन,  गुण तथा उनके अभ्यास की सरलता और तत्काल प्रभाव दिखलाने वाली शक्ति को जैसा चाहिये नहीं जान सकते।

इसका कारण यह है कि
पहले उन्हें परमार्थ विषयक ज्ञान बहुत कम होता है।  
दूसरे कभी उन्होंने परम प्रभु और उसकी प्रकृति तथा अपने आप के विषय में खोज और विचार नहीं किया।   
तीसरे सत्संग में नियम से पांच सात दिन तक बराबर खोज की दृष्टि से नहीं आये कि भिन्न भिन्न वर्णन सुनते समझते, अपने भ्रम तथा संशय को दूर कराते, जिन बातों का ज्ञान ना था उनको जानने की चेष्टा करते । 

यदि कभी सतसंग में आये भी तो एक दिन के लिये आये और चुप होकर बैठे रहते हैं।
यह ढूढ़ने का ढंग नहीं है। इससे तो लापरवाही और रुचि की न्यूनता प्रगट होती है।

इस लापरवाही और भूल के तीन कारण हैं।
प्रथम तो संसार के भोग विलास में अत्यंत लिप्त होना और फंसे रहना तथा कुटुम्ब परिवार से अधिक मोह करना और धन का अधिक लोभ करना। 
दूसरे सन्तमत में सम्मिलित होने से इस बात का अनुचित भय कि उनके भोग विलास, लोभ मोह, संसारी इच्छायें और प्रेम के बन्धन में विघ्न उत्पन्न होता है। 
तीसरे जगत और सम्बन्धियों से लज्जा और भय कुल की मर्यादा तथा प्राचीन पारिवारिक रस्में और टेकें हैं। जिनको छोड़ने में वे अत्यन्त भय खाते हैं।

यह तीनों कारण परमार्थ की घोर कमी के हैं।

सांसारिक कष्टों से निर्भयता तथा मृत्यु की कठोरता (जो प्रत्येक के सिर पर खड़ी है) और संसार और उनके भोगोें में अत्यन्त लिप्त रहने के कारण होते हैं।

यह कमियां केवल सतसंग में सन्तों के वचनों और वाणियों के सुनने से दूर हो सकती हैं। दूसरी कोई युक्ति तथा यत्न उसके हटाने या घटाने की नहीं है।

लोग अपने नेत्रों से देखते हैं कि सन्तमत में किसी का कुटुम्ब परिवार, घर बार, व्यवसाय और व्यवहार इत्यादि नहीं छुड़ाया जाता है। केवल सच्चे महा प्रभु की महिमा सुनाई जाती है उससे मिलने की युक्ति समझाई जाती है। संसार की नाशमानता और संसारियों की स्वार्थी कार्यवाही पर ध्यान आकृष्ट कराया जाता है।

जो कोई थोड़ी रुचि और इच्छा के साथ वचन सुनता और समझता है उपदेश लेकर उस युक्ति का अभ्यास करता है उसको महाप्रभु सन्त सतगुरु दयाल का प्रकाश अपने घट के भीतर दिखाई देता है।
उनकी दया और कृपा की पहचान होती है तब वह अधिक रुचि और प्रेम के साथ सतसंग और अन्तर के अभ्यास में लगता है।
तब वह अपना समय संसारियों की संगत में व्यर्थ नष्ट नहीं करता किन्तु जहां तक सम्भव होता है सतगुरु दयाल की दया का बल लेकर कुछ अधिक समय परमार्थ कार्य में व्यय करता है।
वह अपना धन भी जहां तक बिना कष्ट के सम्भव होता है परमार्थ में लगाता है,

किन्तु ऐसे व्यक्ति से कुटुम्बी, सम्बन्धियों और बिरादरी वालों को उसकी यह दशा और चाल असहनीय होती है क्योंकि उन्हेांने सच्चे परामार्थ में ना कभी  पैर रक्खा है और ना कभी सच्चे परमार्थ में धन व्यय किया न उनके मन में सच्चे प्रभु के प्रति प्रीति उत्पन्न हुई।

इस कारण वे जिस किसी की सच्ची अवस्था परमार्थ में देखते हैं तत्काल चौकते हैं और भयभीत होते हैं कि कदाचित वह धीरे धीरे घर बार कुटुम्ब परिवार और व्यवसाय आदि छोड़ देगा।

इस निज विचार के कारण वे उसे रोकते हैं, धमकी देते हैं, नाना प्रकार के भय दिलाते हैं और उसकी भक्ति में विघ्न डालते हैं।
जिस किसी ने सन्तमत को भलि भांति समझ लिया है और अभ्यास करके अन्तर में कुछ रस पाया है वह सत्संग का बल लेकर नित्य प्रति अपनी कमाई करता कुल कुटुम्बी, संसारियों की धमकी और चालाकी का विचार मन में नहीं लाता अपितु उनको भी समझाकर उन्हें सच्चे परमार्थ में लगाना चाहता है।
यदि वे नहीं लगते तो उनसे वाद विवाद व्यर्थ की कहा सुनी नहीं करता। उनके हाल और चाल पर उन्हें प्रभु की इच्छा पर छोड़ देता है।

अब इन मूर्ख संसारियों की दशा पर विचार करो।
यदि कोई उसके कुटुम्ब अथवा नातेदार में से बुरे बुरे कर्म करता है जैसे-
1 बाजारु स्त्रियों के घरों पर ठहरना और खाना पीना। 
2 जुआ खेलना और खिलवाना। 
3 अन्य जातियों के साथ शराब पीना व कबाब खाना। 
4 असत्य बोलकर धोखा देकर धन कमाना और 
5 दूसरों अथवा नीच जाति की स्त्रियों को घर में रखना और उनके साथ रहना इत्यादि,  उसे कोई नहीं कुछ कह सकता है न धमकाता है न उन्हें जाति से निकालने की इच्छा करता है। 

किन्तु यदि कोई सच्चे परमार्थ में सम्मिलित होकर सच्चे प्रभु की सच्ची भक्ति करता है और दिन प्रतिदिन उसके पुराने चाल स्वभाव और रहन सहन को बदलते हुए नेत्रों से देखते हैं फिर भी वे अपनी छोटी समझ और स्वभाव और पापों से भरी हुई बुद्धि के साथ अनेक प्रकार की बाधाऐं उस व्यक्ति की भक्ति में लगाते हैं और नाना प्रकार के विघ्न अड़चने (परम प्रभु से निडरता करके) उत्पन्न करने को तैयार रहते हैं।

अब समझों कि इन लोगों को शुभ कर्म, अच्छे कार्य और सच्चे प्रभु की सच्ची भक्ति प्यारी है अथवा पाप कर्म बुरे चाल और झूठ पसन्द हैं।

समझदार परमार्थी व्यक्ति को इन लोगों की बातें धमकियों और निन्दा आदि का कोई विचार नहीं करना चाहिए।
मूर्खों और पापियों के समझाने और धमकी इत्यादि का, अपने सच्चे प्रभु की दया की आशा रखकर, कुछ भी विचार और भय नहीं करना चाहिए।
परम महाप्रभु की भक्ति कदापि नहीं छोड़नी चाहिए बल्कि उसे दिन प्रतिदिन दृढ़ करना और बढ़ाना चाहिए।

महात्माओं का कथन है कि- 
*गुरु राजी तो करता राजी। काल करम की चले ना बाजी।।*


जयगुरुदेव
शेष क्रमशः अगली पोस्ट 28. में..

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