जयगुरुदेव आरती संग्रह (Post no.1.)

*[आरती १.]*
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Arti jaigurudev anami 

आरती जयगुरुदेव अनामी,  कीन्ही कृपा दरश दियो स्वामी।।

चित वत पंथ रहूं दिन राति, तुमहि देख शीतल भई छाती।
हे प्रभु समरथ अन्तर यामी--आरती जयगुरुदेव अनामी।।

मैं मूरख क्रोधी खल कामी, लोभी निपट मोह पथ गामी।
तेरी सेवा भक्ति न जानी--आरती जयगुरुदेव अनामी।।

दया धर्म चित्त नही समाये, शील क्षमा सन्तोष न आये।
अस में हीन अधीन निकामी--आरती जयगुरुदेव अनामी।।

दासों की विनती सुन लीजै, शरण आश्रय हमको दीजै।
तब पद कंज नमामि नमामि। 
आरती जयगुरुदेव अनामी, 
कीन्ही कृपा दरश दियो स्वामी।।


आरती २.
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Aarti karu gurudev ki

आरती करूँ गुरुदेव की जिन भेद बतायो,
चरण कमल की छाय मे जिन सुरत बिठायो ।।१।।

जनम जन्म के पाप को जिन दूर हटायो,
मो सम पतित पुनीत कर निज ह्रदय लगायो ।।२।।

दीन दयालु दया करी दियो शब्द जहाजा,
सुरत चढ़ी आकाश मे धरी अनहद नादा ।।३।।

सुरत चली निजलोक को मन परम् हुलासा,
सतगुरु मिल गये राह मे ले परम् प्रकाशा ।।४।।

अभिनन्दन निज लोक मे करें किन्नर देवा,
भाग्य सराहें सुरत करि लावें बहू सेवा ।।५।।

काल करम के फाँस से लियो जीव बचाई,
गुरु दयालु दया करी निज घर पहुचाई ।।६।।


आरती ३.
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Aarti karahu sant satguru ki

आरती करहुँ सन्त सतगुरु की,
सतगुरु सतनाम दिनकर की।

काम क्रोध मद लोभ नशावन,
मोह ग्रसित कह सुर सरी पावन।
कटहिं पाप कलि मल की,
आरती करहुँ सन्त सतगुरु की।।

तुम पारस संगति पारस तव,
कलिमल ग्रसित लौह प्राणी भव ।
कंचन करहिं सुधर की,
आरती  करहुं सन्त सतगुरु की।।

भूलेहुं जे उन संगति आवे,
कर्म धर्म तेहि बांधि न पावे,
भय न रहे यम डर की,
आरती  करहुं सन्त सतगुरु की।।

योग अग्नि प्रगटहि तिन के घट,
गगन चढें सुर्त खुले बज्रपट।
दर्शन हो हरि हर की,
आरती  करहुं सन्त सतगुरु की।।

सहंस कंवल चढ़ि त्रिकटी आवे,
सुन्नशिखर चढ़ि  बीन बजावे।
खुले द्वार सतघर की,
आरती  करहुं सन्त सतगुरु की।।

अलख अगम का दर्शन पावे,
पुरुष अनामी जाय समावे।
जयगुरुदेव अमर की,
आरती  करहुं सन्त सतगुरु की।।
जयगुरुदेव गुरुवर की,
आरती  करहुं सन्त सतगुरु की।।


आरती ४.
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Hamare pyare pahuna

हमारे प्यारे पाहुना जयगुरुदेव आये।
द्वार द्वार पर चौक पुराये, मंगल कलश धराये।।

लखी लखी शोभा भवन नगर, इन्द्रादिक देव लजाये।
भरी भरी थार पुष्प माला से, आरति दीप सजाये।।

चन्दन पलंग जड़ित मन मानिक, रेशम डोर लगाये।
श्रेत कमल का सुखद बिछावन जयगुरुदेव बिठाये।।

होने लगी आरती गुरू संग मन बुध्दि चित थिर पाये।
यह शोभा मोहिं मिलि भाग से देखत मन हर्षाये।।

छप्पन भोग सकल मन संगी, भरि भरि थार सजाये ।
जयगुरुदेव सबै खा डाले नहिं परसाद बचाये।।

शील क्षमा सन्तोष विरह सखियां मिलि गारी गाये।
जयगुरुदेव आज सखि अपनी राधा व्याहन आये।।

सेवा भाव भक्ति जल लेकर चरणामृत बटवाये।
पियत पियत सतसंगियन के जन मन के पाप नसाये ।।

परमानन्द बरसने लागा सुधि बुधि सभी भुलाये।
सतगुरु सूर खिले घर घर में सो सुख केहि मुख गाये।।


आरती ५.
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He satguru swami

हे सतगुरु स्वामी, मेरे तुम सतगुरु स्वामी।
शरण तुम्हारी हूँ मैं, मूरख खल कामी।।

तुम हो बड़े दयालु, तुम हो उपकारी।
तुम हो अन्तर्यामी, शक्ति अवतारी।।

अंधकार में अब तक, मैं था अज्ञानी।
तुमने मुझे उबारा, महिमा अति जानी।।

शब्द ज्ञान बतलाया, जिससे सुरत जगे।
घट में देख उजाला, आगे चलन लगे।।

रक्षा कर भक्तों की, संकट दूर करे।
साधन भजन बढ़ाकर, सारे पाप हरे।।

काम, क्रोध, मद, मत्सर, शत्रु हैं सारे।
शरण तुम्हारी पाकर, अब वह बल हारे।।

निर्बल के बल तुम हो, तुम ही सहारा हो।
ऊपर उसे उठाते, जो कोई हारा हो।।

सुनकर टेर दयामय, अन्त समय आना।
यमदूतों से छुड़वा, पार लगा जाना।।


आरती ६.
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Mere mat pita gurudev

जयगुरुदेव जयगुरुदेव जयगुरुदेव  जय जयगुरुदेव।
मेरे मात पिता गुरुदेव, जयगुरुदेव जय जयगुरुदेव।

सब देवन के देव गुरुदेव जयगुरुदेव जय जयगुरुदेव।
तिनके चरण कमल मन सेव, जयगुरुदेव जय जयगुरुदेव।

जीव काज जग आये गुरुदेव, जयगुरुदेव जय जयगुरुदेव।
अपना भेद बताये गुरुदेव, जयगुरुदेव जय जयगुरुदेव।

सत्य स्वरूपी रूप गुरुदेव, जयगुरुदेव जय जयगुरुदेव।
अलख अरूपी रूप गुरुदेव, जयगुरुदेव जय जयगुरुदेव।

अगम स्वरूपी रूप गुरुदेव, जयगुरुदेव जय जयगुरुदेव।
पुरुष अनामी आप गुरुदेव, जयगुरुदेव जय जयगुरुदेव।

सबके स्वामी आप गुरुदेव, जयगुरुदेव जय जयगुरुदेव।
उनके शरण मेरे मनसेव, जयगुरुदेव जय जयगुरुदेव।
जय गुरुदेव मेरे स्वामी गुरुदेव, जयगुरुदेव जय जयगुरुदेव।।


आरती ७.
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Jaigurudev arti layi

जयगुरुदेव आरती लाई।
सतगुरु के सत्संग गंग में प्रथमई जाय नहाई।
चीर पुरान त्यागि कर्मन की श्वेत चुनर पहिराई।
मैली चुनर त्याग कर्मन की लखि निज मनहिं लजाई।
जयगुरुदेव चुनर जिन धोयो उनको देत बधाई।
ज्योति निरंजन सहस कमल दल, शोभा पड़ी दिखाई।
आगे दर्शन करति ब्रह्मपद, गुरु पद पदुम जगाई।
पार ब्रह्म और महासुन्न तजि भंवर पार गति पाई।
सतनाम की करति आरती सुरत सतगति पाई।
अलख अगम की आरती करती सतगुरु कंज समाई।


आरती ८.
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Karu vinti dou kar jori

करूँ वीनती दोऊ कर जोरी,
अर्ज सुनो राधा स्वामी मोरी ।।१।।

सतपुरुष तुम सतगुरु दाता,
सब जीवन के पितु और माता ।।२।।

दया धार अपना कर लीजै,
काल जाल से न्यारा कीजै ।।३।।

सतयुग, त्रेता, द्वापुर बीता,
काहू ना जानी शब्द की रीता ।।४।।

कलयुग मे स्वामी दया बिचारी,
परगट करके शब्द पुकारी ।।५।।

जीव काज स्वामी जग मे आये,
भव सागर सेपार लगाये ।।६।।

करूँ वीनती दोऊ कर जोरी,
अर्ज सुनो राधा स्वामी मोरी ।।


आरती ९.
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Tum na aye guruji subah ho gai

तुम न आये गुरुजी, सुबह हो गई।
मेरी पूजा की थाली सजी रह गई।।

भोग रक्खा रहा, फूल मुरझा गए।
आरती थी जली की जली रह गई।।
क्या बुलाने में कोई कमी रह गई।
तुम न आये गुरुजी सुबह हो गई।।

हमसे रूठे हो क्यों, आप आते नहीं।
कोई अपराध मेरा, बताते नहीं।।
टेरते-टेरते सांस रुकने लगी,
तुम न आये गुरुजी सुबह हो गई।।

हाल बेहाल है अब तो आओ गुरु।
मन में मनको की माला पहनाओ गुरू।।
वरना ये दाना दाना विखर जाएगा।
टूटकर मोतियों की लड़ी रह गई।
तुम न आये गुरुजी सुबह हो गई।।

ज्ञान भी हो गया ध्यान भी हो गया।
फिर भी दर्शन की इच्छा बनी रह गई।।
इतना होते हुए मैं समझ न सकी।
कौनसी भावना में कमी रह गई।।
तुम न आये गुरुजी सुबह हो गई।।

मैने रो-रो के तुमको पुकारा गुरु।
तुम हो दाता मेरे मैं भिखारन तेरी।।
तेरी मूरत को मन मे बसाये हूँ।
तेरे दर पे खड़ी की खड़ी रह गई।।
तुम न आये गुरुजी सुबह हो गई।।

अपनी दासी को दर्शन दिखा दो गुरु।
सामने आ कर फिर से मुस्कुरा दो गुरु।।
राह कब से निहारूँ तुम्हारी गुरु।
अब लगी आँसुओं की झड़ी रह गई।।
तुम न आये गुरुजी सुबह हो गई।।


आरती १०.
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Vinay karu me dou kar jore 

विनय करुं मैं दोऊ कर जोरे, सतगुरु द्वार तुम्हारे।
बिन घृत दीप आरती साजूं, दोऊ अंखियन मझधारे।।
भाव सहित नित बैठी झरोखे, जोहत प्रियतम प्यारे।
पग ध्वनि सुनुं श्रवण हिय अपने, मन के काज बिसारे।।
जागी सुरत पियत चरनामृत, पियत पियत हुई न्यारे।
घंटा,  शंख,  मृदंग,  सारंगी,  बंशी  बीन  सुना  रे।।
जयगुरुदेव आरती करती, गावत जय जय कारे।
विनय करुं मैं दोऊ कर जोरे, सतगुरु द्वार तुम्हारे।।


जयगुरुदेव 
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जयगुरुदेव....

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