Parmarthi Vachan | परमार्थी वचन 25.
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जब कभी मन या इन्द्रिय उनका कहना ना माने और बस में न हो सके तब संत सतगुरु और कुल प्रभु सतगुरु स्वामी दयाल से विनय और प्रार्थना करें और उनकी दया का विश्वास और आशा रखकर ऐसा विश्वास करें कि सन्त सतगुरु और सतगुरु स्वामी दयाल एक दिन अवश्य अपना दया बल देकर मन और इन्द्रियों पर नियंत्रण दिलावेंगे।
जीव को चाहिए कि अपनी दशा पर कुछ लज्जित होकर अधिक दीनता के साध अभ्यास में सहायता मांगे, शरण को अधिक दृढ़ करे और किसी प्रकार की निराशता चित्त में न लावें।
अर्थात् ऐसी समझ न धारण करे कि जब तक मन और इन्द्रिय पर नियन्त्रण नहीं होगा उद्धार नहीं होगा और वे अपनी कृपा से सुरत को सब विघ्नों से बचाकर सुख स्थान में पहुंचा सकते हैं।
मन और इन्द्रियों को सम्हालने के लिये अपना प्रयत्न करते रहना चाहिए, किन्तु आशा दया के बल का ही रखना चाहिए।
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किन्तु संसार में मान बढ़ाई की व्यर्थ अभिलाषा और भोगों की इच्छा उत्पन्न करना या किसी से वाद विवाद करना अथवा साधारण बातों में अधिक समय और ध्यान व्यय करना अथवा दूसरों के झगड़ों और विषयों में हाथ डालने से सदा बचना चाहिए जिससे कि अपना मन परमार्थ की क्रिया के समय अनुचित और व्यर्थ की तरंगे न उठावे।
जो कोई अपने अभ्यास की दशा को भी देखता रहता है उसको पता होगा कि संसार के विचार और तरंगे किस प्रकार बाधा उत्पन्न करते हैं और सच्चे परमार्थ की क्रिया से रोकते रहते हैं।
तब यह स्वयं चैतन्यता के साथ कार्य करेगा और जहां तक सम्भव होगा संसार के व्यर्थ और अलाभप्रद विचारों से बचता रहेगा।
जैसे जैसे चित्त में सन्त सतगुरु और परम प्रभु सतगुरु स्वामी दयाल के चरणों में प्रेम और अनुराग जागृत होता जावेगा, वैसे वैसे संसार और उसके कारोबार से चित्त उदास होता जावेगा।
अन्तरी वैराग्य मन में उत्पन्न होता जावेगा और तभी थोड़ा बहुत अभ्यास ठीक-ठीक बन सकेगा।
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Jaigurudev