Parmarthi Vachan | परमार्थी वचन 25.

प्रभु की भक्ति में विचलित हो जाने तथा उनके दूर करने के यत्न- 23.
*आवरण एवं निवारण* 

*1*   संत कहते हैं कि परमार्थी जीवों को और उचित आवश्यक है कि अपनी प्रीति और प्रतीति कुल प्रभु सतगुरु स्वामी दयाल और संत सतगुरु के चरणों में बढ़ातें रहें शरण को दृढ़ करते रहें और अपना अभ्यास विरह या प्रेम अंग लेकर नित्य करते रहें।

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*2*  इस क्रिया में प्रायः विघ्न पड़ जाते हैं  अर्थात कभी कभी प्रीति तथा प्रतीति रूखी फीकी,  भक्ति विचलित तथा शरण शिथिल पड़ जाते है।

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*3*  इन विघ्नों के कारण ये हैं-
क- परमार्थी जीवों का मन दशा और अवस्था को देखकर अर्थात अपने विकार और कमी को देखकर शिथिल और निराश हो जाता हैं। 
ख- कभी संसार की दुश्चिंताओं अथवा भोगों की तरंगों में अभ्यास के समय बह जाता है।
ग- कभी प्रकृति के आश्चर्यमय क्रियाओं अथवा घटनाओं को देखकर उनका विचार देखकर भयभीत हो जाता है। उसका भेद और मुख्य कारण विदित न होने से नाना प्रकार के भ्रम तथा सन्देह उत्पन्न करके अपनी प्रीति और प्रतीति में विघ्न उपस्थित करता है। जैसे अकालमरी, वर्षा, तूफान, वायु, भूचाल, युद्ध इत्यादि से हानि के भय।

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*4*   प्रथम कारण के सम्बन्ध में यह कहा जाता है कि परमार्थी जीवों को अवश्य चाहिए कि अपने मन और इन्द्रियो की चाल पर ध्यान देते चलें। जहां तक सम्भव हो, व्यर्थ अनुचित कार्य करने से मन को रोकते रहें। 

जब कभी मन या इन्द्रिय उनका कहना ना माने और बस में न हो सके तब संत सतगुरु और कुल प्रभु सतगुरु स्वामी दयाल  से विनय और प्रार्थना करें और उनकी दया का विश्वास और आशा रखकर ऐसा विश्वास करें कि सन्त सतगुरु और सतगुरु स्वामी दयाल एक दिन अवश्य अपना दया बल देकर मन और इन्द्रियों पर नियंत्रण दिलावेंगे। 

जीव को चाहिए कि अपनी दशा पर कुछ लज्जित होकर अधिक दीनता के साध अभ्यास में सहायता मांगे,  शरण को अधिक दृढ़ करे और किसी प्रकार की निराशता चित्त में न लावें।  

अर्थात् ऐसी समझ न धारण करे कि जब तक मन और इन्द्रिय पर नियन्त्रण नहीं होगा उद्धार नहीं होगा और वे अपनी कृपा से सुरत को सब विघ्नों से बचाकर सुख स्थान में पहुंचा सकते हैं। 
मन और इन्द्रियों को सम्हालने के लिये अपना प्रयत्न करते रहना चाहिए, किन्तु आशा दया के बल का ही रखना चाहिए।

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*6*  दूसरे कारण के सम्बन्ध में यह वर्णन किया जाता है कि परमार्थी जीवों को उचित है कि संसार और उसके भोगों की इच्छा आयश्यकता के अनुसार  उठावे , व्यर्थ के तरंगों को रोकता रहे अर्थात् अपने उद्यम व्यापार, घर बार के कार्य सम्बन्धियों के व्यवहार इत्यादि कार्य जो आवश्यक प्रतीत हो उनके निमित्त जहां तक सम्भव हो सोच विचार अथवा यत्न करने में कोई हानि नहीं है,

 किन्तु संसार में मान बढ़ाई की व्यर्थ अभिलाषा और भोगों की इच्छा उत्पन्न करना या किसी से वाद विवाद करना अथवा साधारण बातों में अधिक समय और ध्यान व्यय करना अथवा दूसरों के झगड़ों और विषयों में हाथ डालने से सदा बचना चाहिए जिससे कि अपना मन परमार्थ की क्रिया के समय अनुचित और व्यर्थ की तरंगे न उठावे। 

जो कोई अपने अभ्यास की दशा को भी देखता रहता है उसको पता होगा कि संसार के विचार और तरंगे किस प्रकार बाधा उत्पन्न करते हैं और सच्चे परमार्थ की क्रिया से रोकते रहते हैं। 

तब यह स्वयं चैतन्यता के साथ कार्य करेगा और जहां तक सम्भव होगा संसार के व्यर्थ और अलाभप्रद विचारों से बचता रहेगा। 

जैसे जैसे चित्त में सन्त सतगुरु और परम प्रभु सतगुरु स्वामी दयाल के चरणों में प्रेम और अनुराग जागृत होता जावेगा, वैसे वैसे संसार  और उसके कारोबार से चित्त उदास होता जावेगा। 
अन्तरी वैराग्य मन में उत्पन्न होता जावेगा और तभी थोड़ा बहुत अभ्यास ठीक-ठीक बन सकेगा।


जयगुरुदेव
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Jaigurudevji Maharaj



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