छोटी कहानी की बड़ी सीख
Kahani 19.| सत्संग के बिखरे मोती
कहानी संख्या 19.
एक बार एक महात्मा जंगल में अपनी साधना में तल्लीन थे। कुछ समय बाद उनकी आंख खुली तो क्या देखते हैं, चार सुन्दर युवतियां सामने खड़ी हैं।
महात्मा जी ने उन युवतियों से कहा कि तुम लोग कौन हो और इस बीयावान जंगल में क्यों खड़ी हो और कहां रहती हो ?
बाबा जी की बातें सुनकर युवतियां बोलीं-
हम यही पर आपके साथ रहती हैं।
बाबा जी बोले- "मैंने तो आज ही तुमको देखा है और अनेकों वर्ष से मैं यहां साधनारत हूं।"
इस दरम्यान कोई भी मनुष्य स्त्री या पुरुष मुझे नजर नही आये। मुझे खोल कर साफ साफ बताओ तुम कौन हो और मेरे पास कहां रहती हो।
उनमें से एक बोली बाबा मैं बुद्धि हूं और मेरा निवास मस्तिष्क में है मैं वही रहती हूं।
दूसरी बोली- हे महात्मन! मेरा नाम लज्जा है और मेरा निवास स्थान आंखे हैं। मैं आपकी आंखों में निवास करती हूं।
अब तीसरी भी बोल पड़ी, हे साधु मेरा नाम दया है मैं हृदय में निवास करती हूं अर्थात् मैं आपके हृदय में वास करती हूं।
अब चौथी का नम्बर था वह भी बोली हे महात्मन मेरा नाम शक्ति है और मैं सर्वांग शरीर में निवास करती हूं। अर्थात मैं आपके सारे शरीर में समायी हुयी हूं।
उन चारों युवतियों की बातें सुनकर वह संत महात्मा बोले- हां देवियों आपका निवास मेरे इस शरीर में है लेकिन मैं यह शरीर नही हूं। और ऐसा कहकर फिर वे साधना में लीन हो गये।
कुछ समय बाद जब उनकी आंखे खुलीं तो क्या देखते हैं कि चार सुन्दर नवयुवक सामने खड़े हैं। महात्मा जी ने उनसे कहा कि हे भद्र पुरुषों आप कौन हो ? और इस जंगल में क्या कर रहे हो। तुम कहां रहते हो।
चारों नवयुवक बोले हम सब आपके पास रहते हैं। महात्मा जी ने प्रश्न वाचक दृष्टि से जब उनकी तरफ देखा तो उनमें से एक बोला-
हे महात्मन ! मेरा नाम क्रोध है मैं मस्तिष्क में निवास करता हूं। इस पर महात्मन ने कहा मस्तिष्क में तो बुद्धि रहती है। इस पर क्रोध ने कहा हे महात्मा। जब मैं आ जाता हूं तो बुद्धि चली जाती है। अर्थात क्रोध के समय बुद्धि नष्ट हो जाती है।
अब दूसरा युवक बोला हे महात्मा! मेरा नाम काम है। मेरा निवास स्थान आंखों में है। इस पर महात्मन बोले आंखों में तो लज्जा रहती है। हां आपने ठीक कहा, जब मैं आ जाता हूं तो लज्जा शर्म चली जाती है और मनुष्य मां, बहन, पत्नि की पहचान खो देता है।
तीसरे भद्र पुरुष ने कहा महात्मा, मेरा नाम लोभ है मैं हृदय में निवास करता हूं। परन्तु हृदय में तो दया निवास करती है। फिर तुम कैसे ? महात्मा बोले...।
इस पर लोभ ने कहा- जब मैं आ जाता हूं तो दया दूर चली जाती है।
अब चौथे की बारी थी उसने कहा मेरा नाम मोह है। मैं सम्पूर्ण शरीर में निवास करता हूं। परन्तु शक्ति के सामने तुम कैसे ठहरते हो ?
नही महात्मन मेरे आने पर शरीर शक्तिहीन हो जाता है। महात्मा जी ने कहा तुम सबने ठीक कहा तुम सब मेरे शरीर में ही वास करते हो परन्तु मैं यह शरीर नही हूं। मैं इन सबसे परे अलग हूं। ऐसा कहकर पुनः अपनी साधना में तल्लीन हो गये।
स्वामी जी महाराज ने सत्संग में आगे कहा कि जब साधक अपने गुरु के मार्ग दर्शन में साधना करता है तो कुछ समय के बाद उपरोक्त सभी कामनायें उससे अलग होकर बाहर खड़ी हो जाती हैं और वह निश्चल हो जाता है।
उसे ज्ञान प्राप्त हो जाता है कि वह उस प्रभु की एक बूंद का अंश है और बाकी सब जड़ वस्तु है। वह शाश्वत है।
उसके आंख कान खुल जाते हैं और अन्दर में अपने गुरु एवं उस प्रभु के दर्शन करता है।
तभी तो कहा है- गुरु गोविन्द दोऊ खड़े, काके लागूं पाय।
बलिहारी गुरु आपकी, गोविन्द दियो बताय।।
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