Most Important | समय बेकार नहीं जाने दो ।

➤  अमृत वाणी  ➤
【 *नर तन से पहले सुरत, बे-पैरोल कैदी*】


कबीर साहब ने कहा है कि-
सतगुरु मोरि पकड़ी बांह नही तो मैं बहि जाती।

बाबा जयगुरुदेव जी की कृपा हम पर नहीं हुई होती तो हम सब भी बहे ही लोग थे ।
रामायण गीता धर्म तो दूर रहा न तो हम मानववाद समझते न लोकतंत्र के अधिकार समझ पाते । 

हम तो जगकर प्रातः चारपाई से उठते कुछ कार्य पहले करते। घर से बाहर निकलते तो खेत, दुकान, दफ्तर की मंजिल तक का सफर करते। मनुष्य जन्म का लम्बा सफर इसी प्रकार पूरा तय होकर जन्म का लम्बा सफर इसी प्रकार पूरा तय हो जाता।

परन्तु हम हमेशा बेखबर रहते कि इस मनुष्य जन्म का लम्बा सफर किसलिए तय किया है इसका उद्देश्य क्या है इससे मिलेगा क्या ? 

पर दया दुई बाबा जयगुरुदेव जी की । उन्होने सत्संग में लगाया, सत्संग का अर्थ समझाया सत्संग से ही एक वैचारिक हिलौर पैदा कर दी बुराइयों से अच्छाइयों की तरफ मुड़ने की, सत्संग से अध्यात्मवाद ईश्वरवाद, गीता, रामायण, बाइबिल कुरान, पुरान सबकी वास्तविकता का ज्ञान हुआ। 

सतसंग वास्तव में है क्या ? यह अब थोड़े थोड़े समझ  में आया। यह बाबा जयगुरुदेव की ही कृपा है कि इस अंधी भेड़चाल में एक रास्ता सुख और शांति का धर्म के प्रकाश का निकला। 
यह सत्संग की ही महिमा है कि साधु सन्यासियों का क्या दायित्व है अब समझ में आया। 

साधु की निगाह में तो सब में परमात्मा की आत्मा खुदा की रूह, गोड की सोल है। मन्दिर, मस्जिद, गिरजाघर महापुरुषों की यादों के चिन्ह हैं। जहां लोग आत्मिक शांति के लिए जाते हैं।

हमारा शौभाग्य है कि बाबा जयगुरुदेव जी ने हमें बचाया तथा हमारी तरह अनेक लोगों को डूबने से बचा लिया । 
इस भौतिकवादी युग में सब के हाथ में माला पकड़ाना यह बाबाजी की समरथता ही है।

सन्त सतगुरु अपने अपने समय में सदा से ही बताते आये हैं कि सुरत सतपुरुष से अलग हुआ उसका छोटा सा अंश है जो इस भवसागर में आकर फस गई है और इसका मिलाप अपने किये नहीं होता। इसके लिए प्रभु की दया की आवश्यकता है। 

प्रभु जब दया करता है तो सुरत को किसी सन्त सतगुरु से जोड़ देता है  जहां सही मार्गदर्शन प्राप्त होता है। फिर गुरु की बताई हुई विधि के अनुसार आत्मा, नाम या शब्द के अभ्यास द्वारा अपनी प्रीति सब ओर से तोड़कर, सच्चे प्रियतम से जोड़ देती है और स्वयं प्रेम स्वरूप प्रभु में लीन हो जाती है।

सुरत जिसे मनुष्य जन्म का एक अवसर मिला है, सार्थक हो जाता है। सुरत मनुष्य भेष धारण करने से पहले बहुत बेबस थी। वृक्ष होने पर कहीं चल नहीं सकती थी। बोल नहीं सकती थी। क्रीड़ा, पक्षी, फिर पशु बनने की प्रक्रिया के दौरान उसकी स्थिति सुधरती चली गई, पर कर्मो का  चुनाव फिर भी उसके भाग्य में नहीं आया। 

भेड़िए को क्या पता जिस पुरुषार्थ से भूख मिटाता है वह हिन्सा है। वनमानुष क्या जानता है कि कोई शक्ति उसे आवागमन के चक्र से आजाद भी करा सकती है।

सुरत का जीवन नर तन मिलने से पहले जन्म से मृत्यु तक एक बेपैरोल कैदी की तरह था। जिसके कारागार में न कोई दरवाजा, न कोई खिड़की न रोशनदान। एक के बाद लाखों यौनियां आई, कोई कुछ दिनों की, कोई महीनों की, कोई दशकों सैकड़ों हजारों में गिने जाने वाले
वर्षों की। 

यौनियों में दिखने में अन्तर था  पर हथकड़ी बेड़ी बराबर लगी हुई थी। केवल मनुष्य यौनियों मे कर्म करने की आजादी है परन्तु जितनी आजादी मिली है। उतने ही सांप सिडडी के खेल की तरह अनेक भयंकर अजगर मुंह फाड़े निगलने को तैयार खड़े हैं। और एक ही झटके में फिर चौरासी के फेर में डाल देते हैं।  

केवल सन्त सतगुरु ही उनसे बचा सकते है। और यह दया, बाबा जयगुरुदेव की हम पर है।




【 *समय बेकार नहीं जाने दो।* 】



बहुत से लोग यह सोचते हैं कि नामदान तो मिल ही गया है अब क्या जरूरत है जाने की तो ऐसे लोग सतसंग से वंचित रह जाते हैं और सालों उनको होश नही आता। 
जब कभी ऐसी परेशानी आई, कोई मुसीबत खड़ी हो गई तो आते है। कि मैं इतने साल का नामदानी हूं।  

किस बात के नामदानी ?
नामदान लिया तो कुछ करना चाहिए था। सत्संग की इच्छा रखनी चाहिए थी वो कुछ नहीं । जब मुसीबत सामने खड़ी हो गई तो याद आया कि मैं नामदानी हूं तो अब क्या करोगे ? समय गंवा दिया, बुढ़ापा आने लगा तो क्या कर सकते हो? 

जब ध्यान पर बैठो तब अन्दर की आंख से तिल पर दृष्टि रोको। एक टक होकर तुम्हारी अन्दर की आंख तिल को 
देखती रहे। जब वो तिल पर दृष्टि जायेगी तो तिल में छेद होता जाएगा और दृष्टि खुलेगी प्रकाश आएगा। अन्तर में अंधेरा दिखता है उसमें वो तिल अलग दिखाई देता है। उसका कालापन दूसरी तरह का है। 

गुरु ने रास्ता बताया पार जाने का।  काल कर्म से पार चले जाओगे तो इनका जोर नहीं चलेगा। सत्संग सुनो, उसको अपने अन्तर में उतारों तो काम बन जाएगा। वचनों को अन्तर में नहीं उतारेगे भूलोगे तो साधन भी न बन सकेगा। 
इसीलिए होश में भजन करो। 
शब्द के साथ चलना है। शरीर थोड़े ही जाता है। शरीर तो यहीं रह जाता है।

जयगुरुदेव।


prathna-chetavni


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