12. गुरु महाराज कभी कभी बिल्कुल सामान्य जन की तरह व्यवहार करते हैं परन्तु उनके उन व्यवहारिक कार्यो में जीवों के आत्म कल्याण का हित छुपा होता है। हंसी ख़ुशी के खेल खेल में अजब का नजारा दिखाते रहे हैं।
एक बार की बात है जब दिल्ली में सन 1970 में साइकिल यात्रा गोरखपुर से दिल्ली स्वामी जी ले गये थे तो एक दिन भोर में लगभग 4 बजे से दिल्ली शहर में फेरी लगाने का कार्यक्रम बनाये और एक जगह से लगभग 50 हजार साइकिल यात्री पर्चो हैण्डबिल को लेकर दिल्ली के सड़को पर निकल पड़े।
जिसमें स्वामी जी की गाड़ी के पीछे पीछे सभी लोग रहे। और पाइलाटिंग का जिम्मा मुझे मिला था सो मैं अपनी कार से स्वामी जी की गाड़ी के आगे आगे चल रहा था तो देखा कि हमारे पीछे तो अब स्वामी जी की गाड़ी ही नहीं हैं स्वामी जी ने अपनी गाड़ी बीच रास्ते में ही एक मोड़ से मोडकर रामलीला मैदान में पहुंच गये। और जब ऐसा हुआ तो मेरा पाइलाटिंग करने का कार्य धरा का धरा रह गया। और सभी साइकिल वाले सतसंगी दिल्ली में कहीं किसी ओर तो कहीं किसी ओर मुड़ते चले गये।
परिणाम यह हुआ कि सभी साइकिल वाले यह समझ रहे थे कि स्वामी जी इसी तरफ गये हैं परन्तु स्वामी जी कहीं नजर नहीं आये। मैंने बहुत ग्लानि महसूस किया कि मेरी सारी पढ़ाई लिखाई बेकार है कि सही रास्ते पर मैं नहीं चल सका।
लगभग 2 घण्टे तक सभी यात्री सतसंगी यात्री पर्चों को गिराते और नारा लगाते जयगुरुदेव नाम परमात्मा का को बोलते रामलीला मैदान में पहुंचे। पहुंचते ही जब स्वामी जी को देखा गया तो सभी आनन्दित हो गये और सबने यह महसूस किया कि सभी साइकिल यात्रियों के शरीर में थकान की जगह गजब की स्फूर्ति शरीर में आ गई।
इसी तरह खेल खेल में स्वामी जी बोलते रहे कि खड़े हो जाओ तो प्रेमी खड़े हो जाते रहे फिर बोलते कि बैठ जाओ तो सभी प्रेमी बैठ जाते रहे। इसी तरह खड़े हो जाओ और बैठ जाओ चार पांच बार स्वामी जी कराते रहे और स्वयं भी मंच पर खड़े होते और बैठते फिर बोलते कि अरे भाई मैं हार गया आपके सामने और आप जीत गये। मैं आप जैसे उठ बैठ नहीं सका।
इस दिन में ऐसा होता रहा कि सभी प्रेमियों के मन में और शरीर में शक्ति का संचार हो जाता रहा और आश्चर्य यह होता रहा है कि सभी के कानों में जयगुरुदेव नाम स्वतः गूंजता रहा। इस तरह सामान्य व्यवहार में स्वामी जी खेल खिलाते और सत्संगियों के क्लेशों को दूर करके नाम के प्रकाश से आलोकित करते रहे।
मैं जब पाइलाटिंग करने वाला गुरु महाराज के सामने पहुंचा तो मेरा सिर नीचे से ऊपर नहीं उठ सका, इतनी ग्लानि हुई कि मैं पाइलाटिंग करते गलत रास्ते पर चला गया जो देहधारी परमात्मा गुरु महाराज सबको रास्ता दिखाने वाले हैं और मैं अज्ञानवश उनको ही रास्ता दिखाने का काम लेकर चल पड़ा था।
खैर गुरु महाराज दयालु हैं तो उन्होंने मुझे कुछ नहीं कहा और मुस्कुराते रहे। हम जब तक स्वामी जी महाराज को सामान्य मनुष्य ही समझते रहे हमने उनकी कद्र नहीं किया और उनके गुप्त हो जाने के बाद आज उनके दर्शन परसन और उनके व्यवहारों को याद करके संतोष कर रहे हैं।
13. गुरु महाराज स्वामी जी सामान्य मनुष्य की तरह से इस तरह व्यवहार करते रहे कि यह पता ही नहीं चला कि वे ही देहधारी कुलमालिक परमात्मा अनामी पुरुष हैं। हम बार बार गलतियां करते रहे और हर बार वे हमारी गलतियों को माफ करते रहे। पटना में होर्डिग पार्क में सत्संग होना था।
स्वामी जी को पहलेजा घाट पर थोड़ी देर ठहर कर गंगा नदी पार करके महेनदूघाट जाना था। पहलेजा घाट पर रुकने का प्रबन्ध वहां के सम्मानीय निवासी राजा परीक्षित के जिम्मे सौंपा गया था। विश्वनाथ प्रसाद और भुवनेश्वर बाबू गार्ड साहब श्रीवास्तव जी को देख रेख में व्यवस्था की जानी थी।
जब हम लोग स्वामी जी के साथ मोटर गाड़ी से पहलेजा घाट पर पहुंचे तो जहां ठहरना था वहां पण्डाल में पहुंचे। स्वामी जी वहां पण्डाल में कुर्सी रखी थी उस पर बैठे। राजा परीक्षित ने स्वामी से अर्ज किया कि स्वामी जी कुछ वचन किया जाये। वहां लगभग 20 25 सत्संगी रहे।
गलती यह हुई कि स्वामी जी धूप में गाड़ी से पहुंचे और हम लोग भी साथ ही रहे परन्तु राजा परीक्षित ने पहले पानी पीने का इन्तजाम नहीं रखा, सीधे वचन करने के लिये निवेदन किया। स्वामी जी इस पर एक नजर मेरी ओर देखे। मुझे बड़ा कष्ट हुआ तो तुरन्त वहां से मैं बाहर निकला और गार्ड साहब और विश्वनाथ बाबू को साथ लेकर नाश्ता पानी का प्रबन्ध किया और मन ही मन क्षमा मांगते हुए स्वामी जी के सामने पानी पीने का आग्रह किया। मुस्कुराते हुए स्वामी जी ने आग्रह स्वीकार करते हुए पानी पिया। इसके थोड़ी देर बाद कुछ सत्संग वचन बोले ।
इतने में जब नाव पर चढ़ने का समय हुआ तो सभी लोग स्वामी जी के साथ नाव से महेन्दूघाट पहुंचे।
वहां के गेस्ट हाउस में ठहरने की व्यवस्था की गयी थी। सन्त प्रसाद जी के द्वारा। स्वामी जी वहां ठहरे स्नान वगैरह करके थोडी देर विश्राम किये और मैं होर्डिंग पार्क जाकर सत्संग मंच और सब व्यवस्था में लग गया।
वहां फिर एक गलती यह हो गई थी कि मंच पर चढ़ने के लिये जो सीढ़ी बनाई गई थी उसके ऊपर जो दरी डाली गई थी। वह दरी पुरानी और गन्दी थी। साफ सुथरी नही थी।
स्वामी जी उस पर से मंच पर चढ़े तो मंच पर पहचंते ही मेरी ओर देखे क्योकि मैं सीढ़ी पर ही नीचे खड़ा था मैं अपनी गल्ती समझ गया और मन ही मन माफी मांगा कि परमात्मा के लिये मैंने कैसी गन्दी दरी डाल या डलवा दिया है। फिर तीसरी बार यह गलती मुझसे हुई कि जब मैं माइक पर प्रेमियों के सामने वह प्रार्थना बोलने लगा तो मुझे वहां वह चेतावनी के शब्द नहीं बोलने चाहिये थे। तब स्वामी जी ने संकेत में मुझसे कहा कि दूसरा प्रार्थना बोलो। तब मैंने प्रार्थना का दूसरा शब्द गाया। फिर सतसंग स्वामी जी ने किया इस पर भी गुरु महाराज ने माफ किया।
इसके बाद जब बरेली में पहली बार स्वामी जी का सतसंग कराया गया तो स्वामी जी के ठहरने की व्यवस्था गुलफाम सिंह स्टेशन मास्टर बजरंग औतार अग्रवाल वगैरह की देख रेख में की गयी। तो गुलफाम सिंह ने अपने घर में स्वामी जी को रुकने की व्यवस्था किया। किन्तु स्वामी जी को जहां ठहराया गया वह कमरा तीसरे तल पर रहा।
स्वामी जी चढ़कर कमरे से अन्दर तो गये परन्तु उन्हें जगह ठीक नहीं लगा तो उन्होंने मुझसे बोला चूँकि उन दिनों में स्वामी जी के साथ बतौर अर्दली के रहता था तो मेरी उनकी बात होती रहती थी। मुझे इस बात से बहुत कष्ट हुआ तो मैंने अन्य लोगों से राय करके दूसरे दिन ही रेलवे कालोनी में 6 नं रोड पर जिसमें मेरे बाबू जी रहते थे वह बाबूजी के फोरमैन का बंगला था उसमें रहने की व्यवस्था की गई।
स्वामी जी ख़ुशी ख़ुशी वहां आ गये और रुके। वहां रहने पर मुझे और मेरे परिवार को सेवा करने का मौका मिला। मेरी माता जी की नाश्ता भोजन बनाने की इच्छा पूरी हुई। इतना ही नहीं फिर जब पहली बार पीलीभीत का सतसंग हुआ तो भी स्वामी जी रेलवे कालोनी में ही रूप नारायण शर्मा के रेलवे क़्वार्टर में रुके और उनको नाश्ता भोजन बनाने के लिये मेरी माता जी को ही वहां सुपुर्द किया गया स्वामी जी की बड़ी कृपा हुई। तो इस बार भी स्वामी जी के तकलीफ होने के स्थान जो चयन किया और उन्हें जो व्यवस्था से तकलीफ हुई उसके लिये मैं मन ही मन माफी मांगा। स्वामी जी ने इस बार भी माफ किया और कुछ नहीं कहा। गलती होने पर स्वामी जी मुझे कभी कभी डांट देते रहे। पर उन्होंने डांटा नहीं।
जयगुरुदेव....
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