गुरु की दया के अनुभव (post 20)

*जयगुरुदेव अनुभव*

14. वार्षिक भण्डारा अगहन सुदी दशमी के अवसर पर पूजा घर की साज सज्जा और देख रेख की जिम्मेदारी जामगढ़ के रहने वाले स्व. विश्वनाथ प्रसाद अग्रवाल और भगवान दास अग्रवाल के जिम्मे स्वामी जी ने दिया था। उनके देख रेख में सहायक के रूप में बच्चा बाबू विश्वनाथ प्रसाद अग्रवाल ने मुझको लालबाबू सिंह को, सत्यनारायण शर्मा और ग्वालियर वाले विक्रम प्रसाद मिश्रा जी का सत्यदेव विश्वकर्मा  उर्फ चाचा के गिरजा बाबू को रखा था। 

सन 1962 के भण्डारे से प्रतिवर्ष  बिना नागा हर वर्ष पूजाघर के काम करने का अवसर मिलता  रहा। जब तक नाम योग मंदिर में पूजा शुरु नहीं हुआ था तो चिरौली सन्त आश्रम में एक एक कमरे में फिर नये आश्रम पर पूजा घर बनाई गई झोपड़ी में पूजन आरती की व्यवस्था की जाती रही । 

इसमें अन्दर झोपड़ी में ही फाईन धोतियों से ही पूरा दीवाल बनाया जाता रहा और पूजाघर गेंदा के फूलों से ही सजाया जाता रहा। सजाने में  तीन दिन लग जाता था। फूलों के लिये स्वामी जी चिरौली सन्त आश्रम में गेंदा का फूल पहले से ही भारी मात्रा में लगवाये रहते रहे और उन फूलों को भण्डारे के पूजाघर के लिये सुरक्षित रखा जाता रहा। 

मैं तब उन फूलों को अपने साथ कई सत्संगियों को लेकर फूलों को तोड़कर पूजा घर में लाया करता था।  वहां बच्चा बाबू की देखरेख में हम लोग  एक साइज और एक रंग के फूलों को अलग अलग किया करते  रहे फिर उनको लम्बा लम्बा माला बनाया जाता रहा। बच्चा बाबू इतने सुन्दरता के पारखी थे कि एक फूल भी बेरंग और बेसाइज मिलता तो उसको निकलवा देते रहे। पूजाघर में काम करने के लिये बड़े पवित्रता से रहना पड़ता था और  जब हम पूजाघर में काम करने के लिये जाते थे तो रात दिन उसी में रहते रहे केवल प्रसाद भोजन और नित्य क्रिया करने के लिये ही बाहर आते रहे। 

हम लोगों के लिये प्रवेश पास की व्यवस्था होती थी । उस पर स्वामी जी महाराज का हस्ताक्षर होता था। पूजाघर में जब सब तैयारी हो चुकी होती थी तब स्वामी जी रात  में आते थे। सब व्यवस्था स्वयं देखते रहे। बच्चा बाबू उन्हें सब दिखाते रहे। उस समय हम पूजा घर में दो तीन आदमी ही रहते थे । और हम लोग एक किनारे स्वामी जी के डर से दुबके ही रहते थे कि कहीं कोई गड़बड़ी नजर आयेगी तो डांट तो पड़ेगी ही और हम पूजाघर की सेवा से बाहर कर दिये जा सकते हैं। 

लेकिन गुरु महाराज की ऐसी कृपा हुई कि हर बार माफी ही मिलती रही और प्रति वर्ष  मैं पूजा घर की सेवा में लगा रहा। जब नामयोग साधना मंदिर बन गया और  पक्के मन्दिर में पूजा करने का आदेश स्वामी जी ने जारी किया तो एक वर्ष  तो बच्चा बाबू के साथ ही हम सभी सजावट की सेवा में लगे रहे। लेकिन दूसरे वर्ष वहां की व्यवस्था में राजस्थान प्रान्त के सत्संगी आ गये। 

बच्चा बाबू और उनके साथ हम सभी अब पूजा घर की सेवा से मुक्त कर दिये गये। लेकिन मैंने जब देखा कि पूजा घर की सजावट में कृत्रिम कागज और प्लास्टिक के फूलों का प्रयोग किया जाने लगा तो मुझे वास्तव में बड़ा कष्ट का अनुभव हुआ। क्योंकि स्वामी जी केवल गेंदा के फूलों से ही सजवाते रहे और गेंदा  के  फूल भारी मात्रा में बोते रहे। उनका भण्डारा तक संरक्षण करते रहे। 

अब जब कृत्रिम फूल पत्ती से सजावट किया जाने लगा तो इसे  मैंने मालिक स्वामी जी की मौज ही समझा। धीरे धीरे कृत्रिम फूलों का भी प्रयोग कम हो गया और अबजली के बल्वों से साज सज्जा किया जाने लगा। इसके अलावा एक बार रात को मैं जब पुराने आश्रम पर स्वामी जी के पास पहुंच गया तो उन्होने  बिना किसी लाग लगाय के मुझको पुराने आश्रम से  नये आश्रम पर वापस जाने के लिये कहा। उनके आदेश से ही मैं वहां तनिक भी रूका नहीं और उल्टे पांव नये आश्रम पर वापस आ गया तो मैंने अनुभव किया कि स्वामी जी महाराज की कृपा डांट में भी हमेशा बनी रहती रही।


15. वार्षिक भण्डारा के अवसर पर अगहन सुदी दशमी की आधी रात को 12 से 1 बजे के बीच में स्वामी जी महाराज तथा उनके गुरु भाई लोग बड़े स्वामी जी परम सन्त घूरे लाल जी महाराज की आरती करते रहे। आरती में प्रार्थनायें भी की जाती रही। बाबाजी श्री प्यारे  लाल पाठक अलीगढ़ वाले की देख रेख में ही प्रार्थना की जाती रही। 

उस प्रार्थना करने वालों के गोल में बाबा जी और शालीग्राम मिश्रा के सहमति से मैं भी सम्मिलित हो गया था। बाद में जटाशंकर लाल श्रीवास्तव इलाहबाद वाले और प्रार्थना के गोल में जुड़ गये। प्रार्थनायें बराबर होती रहती थी। प्रार्थनाओं में एक प्रार्थना मैंने जब सार वचन अथवा किसी सन्त की वाणी में से नहीं बोला तो स्वामी जी ने मुझे इशारा करते हुए मुझे रोक दिया फिर हम लोग उसी में से ही प्रार्थना करते रहे।


17. बाद में स्वामी जी ने एक दिन समझाया कि आरती के समय हमेशा किसी सन्त की लिखी हूुई शब्द प्रार्थना को भाव से ही करना चाहिये। सन्तों की रचित प्रार्थना गाने से सुरत की रसाई सतलोक दयाल देश  में प्रभु के चरणों में होती है जिससे जीव के उद्धार का रास्ता बनता है और जो प्रार्थना बुद्धि के स्तर से बनाई गयी होती है उससे आत्मा के उद्धार के लिये कोई फायदा नहीं होता जो होना चाहिये क्योंकि इससे मन और आत्मा का खिंचाव ऊपरी लोको में नहीं हेाता। बल्कि कभी कुछ एकाग्रता भी आती है तो उसकी चढ़ाई मन माया के पिंजड़े में ही कैद रहता है। 

जाने अनजाने में मनोरंजन का लाभ ही मिलता है। मुझे अपनी भूल मालूम हुई तब से आरती के समय में केवल सार वचन प्रेम वाणी और अन्य सन्तों की वाणियों में से ही आरती प्रार्थना के शब्द गाते रहे। गुरु महाराज की असीम कृपा बराबर सभी सत्संगियों पर होती रही है। यह मुझे बार बार अनुभव में आता रहा है।

प्रार्थना
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मेरे गुरुदेव दया मुझ पे दिखाया तू ने।
हम थे गुमराह मगर राह बताया तू ने।।
कर्म  भौजाल फंसे आन छुड़ाया तू ने, 
युगों से बन्द मेरी आंख बनाया तू ने।

धैर्य था टूट चुका धीर बंधाया तू ने, 
मुझमें जलती जो रही आग बुझाया तू ने।
मुझसे अभागा का भी भाग जगाया तू ने, 
अपना जलवा जो हमें आंख दिखाया तू ने।।

नाम धुन नाद हमें कान सुनाया तू ने, 
अपना बल दे के मुझे धाम चढ़ाया तू ने। 
धन्य अपने को किया मेरी आत्मा स्वामी 
पाप और भूल सभी माफ कराया तू ने।

मुझसा अभागी  कृतघ्नी न होगा कोई 
यदि तेरे उपदेश  भुलाया जो बताया तू ने।

जयगुरुदेव.... 
शेष क्रमशः पोस्ट न. 21 में पढ़ें  👇🏽

Jai Guru Dev


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