◉ सतसंगी जनों को हिदायतें
हर सतसंगी अपने को छोटा समझे और जो भी सेवा गुरु के प्रति हो या संगत के लिए करता हो उसको यह समझ कर करे कि गुरु हमारा हिसाब चुका रहे हैं। वे इस प्रकार या तो दिलाते हैं या वापस कराते हैं।
◉ कहानी
किसी शहर में एक साहूकार और दूसरे शहर में एक मजदूर आदमी रहता था। साहूकार वह साहूकार था जिसका कर्ज बहुत से मनुष्यों पर लदा हुआ था जो कि पूर्व जन्म का था जिसका हिसाब कई जन्मों में लेना था। दूसरा मजदूर उसी साहूकार के यहाँ नौकरी करने किसी के जरिये से पहुँच गया।
साहूकार मजदूर से दिन भर काम लेता था और रात को दो बजे तक सोने नहीं देता था। इतने पर भी मजदूर को तीन बजे तक जगा देता था और सुबह उसे बुलाकर बहुत बुरी तरह डांटता था। कहता कि तुमने कुछ काम नहीं किया। बिचारा मजदूर लाचार था। रोज सोचता कहां जाऊ हमारे लिए तो यही घर है।
उसी समय एक महात्मा उसी मुहल्ले में आ पहुँचे और उनका सतसंग जारी हो गया। साहूकार अपनी हबिस पूरी करने के हेतु अशान्त रहता था और मजदूर अपनी गरीबी से तबाह था। दोनों अपने अपने मर्ज में फंसे थे। सुना कि पहुंचे हुए महात्मा आये हैं। हर मर्ज की दवा देते हैं। मजदूर गरीबी दूर कराने पहुंचा और साहूकार यह इच्छा लेकर पहुँचा कि हमे धन प्राप्त हो जावे। यह भाव लेकर दोनों महात्मा जी के पास पहुँचे।
इन दोनों के पहुंचते ही महात्मा जी सतसंग में बोले कि सुनो प्रेमी जनों, लेनदार और देनदार असाध्य मरीज आ पहुँचे हैं। महात्मा जी के सतसंग में लाखों की भीड़ होती थी। महात्मा जी ने साहूकार को सारे सतसंग का हेड कैशियर बनाया और कहा कि तुम मनमानी रुपया खर्च करो। तुमको पूरा अधिकार है। और मजदूर से महात्मा जी ने कहा कि तुम हेड कैशियर के साथ रहना जो वे कहें उस को करना।
साहूकार रुपया पाकर और साथ-साथ बहुत आदर मान सतसंग में पाकर बहुत खुश हुआ और सोचने लगा कि मुझे यहाँ मुफ्त में सब चीजें प्राप्त हुई हैं और शान्त हो गया। मजदूर सोचने लगा कि मै अपने मालिक के साथ हूँ हर प्रकार का मुझे आराम है।
महात्मा जी ने सेवा कराकर उस साहूकार का धन अदा कर दिया और साहूकार ने जिन लोगों को धन दिया था वह धन मान से प्राप्त कर लिया। संतजन हर तरह से जीव के कर्जे को अदा करा देते हैं। जीव अपनी अज्ञानता में यह सूझ नहीं पैदा कर पाता है कि संत जन कितनी भारी दया करते हैं।
◉ एक मित्र की कहानी
(१७) एक हमारे मित्र थे। उन्हें गुरु महाराज की महिमा सुनाई गई तो उनके अन्दर जिज्ञासा जाग गई और गुरु महाराज के पास पहुँचे। उनके मुरीद हुये और साधना प्रारम्भ की और ऐसे भाव में आ गये कि घरबार छोड़कर उन्हीं के आश्रम में रहने लगे थे तो बहुत ऊँचे विचार के, पर उनका दिमाग कम्युनिस्ट था। सदा लाभ के टटोलने में रहा करते थे
और जरा सी त्रुटि दिखाई दी कि उसके विरोध का डंका बजा देते थे। यह बात इनकी प्रकृति में थी। इसी उधेड़बुन में इनके कई साल बरबाद हो गये। जब पूर्ण रूप से सन्तुष्ट हुए तब आगे बढ़ सके। इनके दूसरे साथी इनसे आगे निकल गये। उन्होंने अपना साधन पूर्ण विश्वास और श्रद्धा से किया था।
◉ कौवा शिष्य
इसलिए गुरु में और गुरु के बताए हुए साधन में शंका और अविश्वास लाना शिष्य के लिये महान हानिकारक है। जो जल्दी ही अथवा तुरन्त ही अपनी बुद्धि पर गुरु को तौलना चाहते हैं उन्हें इस जल्दीबाजी से बचने की बहुत जरूरत है। ऐसों को संतों के यहाँ कौआ शिष्य कहा जाता है।
यदि मोहन भोग और विष्ठा एक ही जगह पर रक्खे हों तो कौवा अपनी चोंच मारकर मनमानी चीज विष्ठा को पसंद करता है और जाकर चोंच बढ़ा देता है। कभी-कभी ऐसी दशा भी बीच में आ जाती है। मन की आसुरी शक्तियां भी साधक को बीच में दबोच लेती हैं। गुरु अथवा सत्य पुरुष की ओर से श्रद्धा उसकी हटा देती हैं। उस समय मन बेकाबू हो जाता है और सब कुछ उससे छुड़ा कर उसे घृणा के फंदे में फांस लेता है।
☀ गुरु का सोना
गुरु सिरजनहार है हर किसी पर दया करता है। गुरु की अगम नीति को जीव नहीं जान सकते है। जानकार सतगुरु हर प्रकार का नाटक इस जगत में कर जाते हैं और हर प्रकार से जीव को संस्कारी बना जाते हैं गुरु चैतन्य पुरुष होते हैं। कभी सोते नहीं। उनकी निद्रा स्वान की सी है। आनन्द में लय हो जाते है। यही उनका सोना होता है। दिन भर जीव हित के लिए महा परिश्रम करते हैं। रात्रि में अपने देश में पहुँच जाते हैं। यही गुरु का सोना है।
☀ घट घट की आवाज
हर घट में घनघोर रसीली आवाजें होती हैं। यह आवाजें उनके अन्दर हर वक्त होती हैं जिनके ऊपर गुरु कृपा से घट के परदे खुल जाते हैं। गुरु कृपा का पात्र शिष्य सदा घट की धुनों को सुनता रहता है और जो रस धुनों के द्वारा आता है उसी रस से सुरत तृप्त रहती है। सुरत की ताकत में मन हरा भरा रहता और इन्द्रियां शान्त शीतल रहती हैं जिससे संसार के दोष नहीं आने पाते हैं।
गृहस्थियों को शिकायत रहती है कि मेहनत के समय याद नहीं कर पाता हूँ क्योंकि जब तन मन लगाकर संसार का काम करता हूँ तब कहीं संसार की कामना की पूर्ति हो पाती है। यह तुम्हारा विचार सत्य नहीं है। तुम्हारे लिए सन्तों ने अथवा गुरु ने इतना सस्ता कर दिया है कि बगैर परिश्रम के पाते हो और थोड़ी वृत्ति नहीं जमाते हो।
बिना आधार के मन रोका नहीं जा सकता। बिना ध्येय पदार्थ के ध्यान जमाया नहीं जा सकता। मन माया का बनाया हुआ है। मन पत्थर की तरह सख्त हो गया है। मन पर अधिकार कैसे जमाना होगा? प्रथम माया का पूरा आश्रय लेना होगा इस लोक में और सूक्ष्म लोक में सब खेल माया का है। जो भी शरीर है वह माया का बना हुआ है। सारे शब्द और रूप माया के बने हुए हैं। निराकार की कोई कल्पना नहीं वहाँ ध्यान और धारणा कहां हो।
इसलिये इस काम के लिये निराकार भी कोई न कोई कल्पित मूर्ति बनाता है पर वह साकार उपासकों की तरह नहीं बल्कि सूक्ष्म होती है। इसका एक लाभ भी है जैसी वस्तु का ध्यान किया जाता है वैसा अन्तःकरण बनता है। इस सूक्ष्म मूर्ति या शब्द के ध्यान से वह एक दम सूक्ष्म मण्डलों में पहुँच जाता है और गुरु के बल से शीघ्र प्रकाश पा जाता है। अन्तरी प्रकाश से ही उसे यानी जो साधक है, ज्ञान मिलता है उसी ज्ञान का परिणाम शक्ति आनन्द है।
☀ तस्वीरों में रस नहीं
दुनियाँ वाले सब सिनेमा के अन्दर जाकर स्त्रियों की नकली छाया पर आशिक हैं और उन्हीं की सूरतों में जो आर्टीफिशियल (Artificial) तस्वीरों पर है अपनी आँखों को गड़ा रहे हैं। अपनी आँखों से उन नकली सूरतों को देखते-देखते उन्हीं का तदरूप हो रहे हैं। आज हमारी धर्म राजभूमि पर रहने वालों का क्या यही धर्म है जो कि इन्हीं नकली तस्वीरों में आनन्द खोज रहे हैं? क्या ऐसे शख्सों को आत्म आनन्द अर्थात् परमात्मा की प्राप्ति होगी ? हरगिज नहीं।
अपना अमूल्य समय नाहक गुजार रहे हैं और मनुष्य होते हुये अपनी दिनचर्या जानवरों जैसी करते जा रहे हैं। यह नहीं जानते हैं कि यह मनुष्य जन्म बड़े भाग से पाया है। इसे वृथा बरबाद नहीं करना चाहिये। क्या आगे तुम्हें पछताना नहीं होगा? तुम पछताओगे और मरना जरूर होगा मौत तुम्हारे सिर पर अपना सामान लेकर खड़ी है।
तुम समझते हो कि हम पर मौत नहीं आवेगी। मौत जरूर आवेगी। जिनकी अवस्था जीर्ण हो गई हो वह जीव परमात्मा की याद नहीं कर सकता है, एक तो उसने संसारी साधन वासनाओं के सारे जीवन किये हों और अन्त समय पर चाहे कि हमारी वासनायें पूरी हों इस पर यदि उसे सतसंग भी न मिले तो वह वृद्ध इस दुनियों में आकर परमात्मा को नहीं पा सकता है।
उसको चाहिये कि अपने घर पर ही महात्माओं को बुलावे और ध्यान देकर सतसंग सुने समझे कि अब मुझे दुनियों से जाना है। इस प्रकार महात्माओं से समझौती लेकर और उनकी कुछ कृपा से भाग्य बनेगा नहीं तो चौरासी जरूर जाना होगा। बगैर गुरु के गति हरगिज नहीं मिलेगी।
☀ साधन में बाधक भाव
तुम्हारे अन्दर हर वक्त शब्द होते रहते हैं। तुम अन्दर के शब्दों को क्यों नहीं सुन पाते हो? इसका खास कारण है कि तुम्हारा ध्यान संसार के प्रत्येक पदार्थों के चिन्तन में रहता है।
धन कमाना, खाना खाना, कपड़ा पहनना, स्त्री का ध्यान, पुत्र का ध्यान, कुटुम्बी जनों का ध्यान, मान हानि का ध्यान, लोक तरक्की का ध्यान, हुकूमत करने का ध्यान, जायदाद पैदा करने का ध्यान और बाकी समय रात्रि में विषय कमाना। भोग वासना सोना इसी तरह के अनेक गन्दी वासनाओं में हमारा ध्यान लगा हुआ है।
इसीलिए अन्तर का शब्द-वेद ध्वनि, अनहद ध्वनि, आंकाश वाणी खुदा की आसमानी आवाज सुनाई नहीं देती है। अब तुम्हें ऐसा पुरुष मिले जो तुम्हारा ध्यान संसार की ओर से बदलकर अनहद नाम ध्वनि के साथ लगा दे और गुरु की कृपा से नाम ध्वनि का रस तुम्हें आने लगे। तुम्हारे आँखों के पीछे दोनों आँखें बन्द करने पर सामने एक नुख्ता सफेद तिल है जो कि गुरु कृपा द्वारा मिलेगा।
गुरु से अन्दर का भेद लेकर जो युक्ति गुरु तुम्हें अपनी कृपा से तुम्हारी जिज्ञासा के अनुसार बता दें उसे शुरु कर दो और तुम गुरु के सामने उनकी आँखों को देखा करो। जब तुम उनके पास बैठो आँखों से एक अजीब रोशनी मिलेगी उसी रोशनी का सहारा लेकर अन्तर में साधन शुरु कर दो।
इस बात का पूरा ध्यान रक्खो कि साधन के वक्त आँख एक जगह टिकी रहे हिले डुले नहीं और भाव में आकर तुम बैठो कि आज मालिक की दया अन्दर में जरूर प्रकट करूंगा। जब दया आती मालूम न पड़े और पूर्व के स्वभाव अनुसार मन तुम्हें साधन पर न बैठने दे तो तुम उस वक्त क्या करो? आखें खोल लो और जोर से अन्दर ही अन्दर रोओ और अपने कर्मों पर पश्चाताप करो कि मालिक
अथवा गुरुदेव दया कर दो हम बहुत पातकी हैं अब मुझे सदबुद्धि दो ताकि मैं कोई बुरा कर्म न करूँ। ऐसा करने से कर्म का परदा साफ होगा और तुम्हारे अन्तर में शब्द सुनाई देगा व प्रकाश भी प्रकट होने लगेगा। ऐसी दया आते हुए जब तुम्हें आभास मालूम होने लगे तब तुम अपने को भाग्यशाली समझो और गुरु का महान शुकर करो कि आज गुरु की खास दया हुई है।
Parmarthi vachan sangrah
pratidin ke vichar
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