*Bhajan karne ki sahi umra*

*जयगुरुदेव आध्यात्मिक सन्देश* 


लोग कहते हैं भक्ति या धर्म, यह एक उम्र होने पर प्रारम्भ करना चाहिए।  लेकिन जो ऐसा सोचते हैं  उन लोगों की यह धारणा बिलकुल गलत है।

बचपन से भक्ति शुरु कीजिए। बुढ़ापे में भक्ति नहीं हो सकती है।
जितने भी भक्त हुए- चाहे मीराबाई हों, प्रहलाद हों, या ध्रुव हों। इन सबने बचपन से ही भक्ति शुरु की है।
उसी का फल है कि वो हम सभी के हृदय में आज भी जिंदा हैं,  अमर हैं। 

लोगों को धर्म के विषय में, अध्यात्म के विषय में जब जानने को मिलता है तो वही लोग भगवान के भक्त बन जाते हैं।

जो संत,  महात्मा, फकीरों की संगत में आता है उसकी मस्ती में कभी फर्क नहीं पडता है। 
राजमद में वो मस्ती कहां ?  पद प्रतिष्ठा में वो मस्ती कहां ?  जो मस्ती संत महापुरुषों के सतसंग में मिलती है।
यह मस्ती भाग्यशालियों को ही मिलती है, सिर्फ भाग्यशालियों को।।

इसीलिए तो रामायण कहती है- 
*भक्ति स्वतंत्र सकल गुणखानी। बिनु सतसंग ना पावहिं प्राणी।।*
भक्ति स्वतंत्र है और सब सुखों की खान है, परन्तु सतसंग के बिना कोई भी इसे प्राप्त नही कर सकता।  
और पुण्यों के प्रभाव के बिना संत कभी मिलते नहीं है।

तभी तो रामायण आगे कहती है- 
*पुण्य पुंज बिनु मिलहि ना संता, सतसंगति संसृति करि अंता।*

धर्म के साथ चलोगे वही पुण्य है। अधर्म के साथ चलोगे वही पाप है।  इस पाप से बचो। 
और इस पाप से बचाने का काम संत करते हैं,  उनका सतसंग करता है।  इसलिए संतो का संग खोजिए।

प्रणाम जयगुरुदेव।



ujjain-ashram
baba jaigurudev

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