☀ सच्चा आत्म भाव
जब जीव आत्म भाव से रोकर पुकार लगाते हैं तब वह गुरु जो तुमको मालिक का भेद देने आया है जरूर दया करता है क्योंकि आत्म वेदना की बरदास्त संत सतगुरु को नहीं होती है। गुरु के भाव में आत्म वेदना का फल तुम्हें मिलेगा। बगैर गुरु के जिन जीवों में आत्म वेदना पैदा होती है उसका फल यह है कि वही आत्म वेदना गुरु के पास पहुंचा देती है जो आत्म वेदना होगी उसका फल मालिक की प्राप्ति का होगा, जरूर होगा। मैंने आपको दोनों आत्म वेदना के भाव बतला दिये हैं।
मालिक का नियम है कि जो जीव मुझसे मिलना चाहे वह हमारे पास पहुँचा देंगे वरना बगैर गुरु के तुम हमारा रूप नहीं समझ पावोगे। कुछ लोग ऐसे होते हैं जिन्हें अपने जीव कल्याण की चाह नहीं होती वह महात्माओं के पास पहुँचना और उनसे नेक नसीहत, आत्म कल्याण की लेना पाप समझते है। उन्हें खाना पीना भोग भोगना सोना सच्चे महात्माओं के रास्ते में विरोध करना अपनी नामवरी समझते हैं, अपने को जानते है कि बहुत बड़े जानकार हैं। मुझे तो दुख होता है कि वे अपना अमूल्य कीमती समय किस कदर बरबाद करते हैं जिसकी सजा उन्हें जरूर मिलेगी। महात्माओं के विरोधी बनकर धर्म समाज का पतन करते हैं
☀ (संत मार्ग परम पुरातन है)
यह संतों का मार्ग नाम का है जिसका साधन हर मनुष्य नहीं कर सकता है क्योंकि संतों की क्रिया दुनियादारों के साधन से जुदा है और शब्द के मार्ग में अभ्यास करना पड़ता है। लोग नया अभ्यास करना अपनी मान हानि समझते हैं और पूर्व के स्वभाव अनुसार आत्म निरूपण की क्रिया उन्हें कठिन मालूम होती है। वास्तव में बात तो यह है कि जब सन्त यह जीवों को समझाते हैं कि तुम्हें शुभ-अशुभ कर्म का फल जरूर भोगना होगा और तुम यदि यह काम नहीं त्यागना चाहते हो तो आत्म कल्याण नहीं होगा।
इसी से संतों से विरोध होता है कि सन्त कर्म का खण्डन करते हैं। आत्म कल्याण का भी तो मार्ग कर्म है पर जिस क्रिया से आत्म कल्याण होगा सन्त उसी कर्म को करावेंगे। संसार भाव वाले प्राणी जनों के भाग्य में अभी कल्याण का समय नहीं आया है इसी से महान जनों की क्रिया विपरीत मालूम होती है। चित्त विरोध रहता और आत्मदर्शी महान जनों से दूषित प्रकृति के लोग दूर रहते हैं। इसी से सत्य भाव का उपदेश होने से जीव दूषित क्रिया करते जा रहे हैं और लोगों में सदाचार का अभाव होता जाता है। मालूम होता है कि यही वातावरण रहा तो भारत के कोने कोने में अनाचार फैल जायेगा। और लोगों का अन्त में खात्मा अवश्य हो जायेगा।
मनुष्य को अपने जीव कल्याण के हेतु लोक में धर्म अनुसार चलना चाहिए। शास्त्रों का अथवा महात्माओं का वचन है कि जो मनुष्य मेरे बताए हुए मार्ग के विपरीत चलते हैं उन जीवों का धर्म कर्म लोक रीति, मर्यादा रीति सब छूट जाता है और उनकी आत्मा का कल्याण नहीं होता है। ऐसी आत्मायें कर्म के विधान दंड में आकर जम महराज के हवाले हो जाती हैं और फिर करोड़ों युगों तक उन्हें मनुष्य तन नहीं प्राप्त होता है। लोक में जब अधर्म कर्म होने लगता है और लोगों की प्रवृत्ति पापाचार की ओर हो जाती है जैसे शराब पीना, मांस खाना, व्यभिचार करना, रिश्वत लेना और अपने स्वार्थ हेतु दूसरे मनुष्यों को धोखा देना।
ऐसी भावना को जब लोग पाप नहीं समझते हैं उस वक्त परमात्मा अपनी सृष्टि को सुधारने के हेतु किन्हीं महान आत्माओं को ऊपर के मण्डल से भेजते हैं। वही महान आत्मायें इस संसार में आकर धर्म, कर्म मर्यादा लोक रीति समाज में रहना सिखाती हैं और फिर से नवीन रास्ता आत्म कल्याण का जारी करती हैं। ऐसे समय में कर्मी जीव इस सरल रास्ते का जो पुरातन सनातन आदि से चला आता है उसको अन समझता से कहते हैं कि नया रास्ता है! और इस आत्म कल्याण के पुराने रास्ते से दूर रहते हैं।
☀ (मनुष्य भाव का सच्चा निवारण)
मनुष्य भाव का सच्चा निवारण तब होगा जब कि माता पिता के विचार शुद्ध होंगे और लोक में रहते हुए उनका कदम पापाचार की ओर नहीं होगा। तभी माता पिता अपनी सन्तान को उच्च आदर्श, की शिक्षा लौकिक सामाजिक देंगे और साथ ही साथ धार्मिक आत्म-उत्थान की भी शिक्षा होगी। जब मनुष्य लोक समाज में बंध गया और गृह जीवन में रहकर उसको सुख प्राप्ति न हुआ तो उसे इस बात की चिन्ता होगी कि सच्चा सुख गृह जीवन में नहीं है। अब कौन उपाय करूँ जिससे सच्चा सुख प्राप्त हो। शिक्षा के अनुसार गृह जीवन के नवयुवक सज्जन संत पुरुषों की तलाश जिज्ञासा के अनुसार करेंगे और भावपूर्ण जिज्ञासू जीव को महान पुरुष महात्मा अवश्य मिलेंगे और वही आत्मसुखी महात्मा आत्म आनन्द जरूर देंगे तब जीव को सच्चा सुख प्राप्त होगा।
माता पिता की शिक्षा असत्य है। या तो अपने पुत्र नवयुवक को शिक्षा देते ही नहीं या माता पिता पापाचार करते हैं जिनके आधार पर पुत्र नवयुवक अपने पिता के दुर्गुणों को अपने हृदय स्थल में उतार लेता है और उसी प्रकार के विचारहीन कर्म करना शुरु कर देता है जिससे आगे की सन्तान नष्ट हो जाती है और पाप भाव में बहते रहते हैं। जीव का पतन हो रहा है जिसका नमूना आज मालूम होता है। बच्चों में सत्य का खून होता तो जरूर विवेकी धीरजवान अर्थात सज्जन भाव में बरतते। अब तो आसुरी भाव में बरत रहे। इसी से अपने जीवन के बहुमूल्य समय को नष्ट करते हैं और अन्त में दुर्गति की ओर चले जा रहे हैं।
☀ यह बिगड़ी सन्तति क्यों ?
बिगड़े हुए माता पिता पुत्र पुत्री को यदि गुरुजन पा जावें यह सत्य है कि अपनी शिक्षा अर्थात दैविक भाव से सुधारने के पश्चात् उनके तौर तरीके को बदल देते हैं और परमार्थ का जो तौर तरीका है उसमें प्रवेश कर देते हैं। धन्य गुरुजन तुमने पूरा सुधारने का काम कर दिया। बिगड़े हुए जीव को तुमने अपनी अलौकिक शक्ति द्वारा जीवन दान दिया और संसार के सत्य पथ पर अर्थात परमार्थ के सत्य रास्ते पर लगा दिया और महान कृपा द्वारा रास्ता सुरत के बनाने का सुरत शब्द का उसको दिया और सुरत को जगाया। गुरु महान विद्या के भण्डार हैं।
आज, बगैर गुरु की शिक्षा के घर घर हर प्रकार की कपट कटौती होती है और हर घर में हर भांति के झगड़े होते हैं और स्त्रियों अपने पति के कंट्रोल से इस कदर बाहर हैं जैसे पानी की मछली जब चाहा पानी में गोता लगा दिया और पता नहीं कहीं चली गई। पति बेचारा क्या करे। उसकी समझ में आता ही नहीं कि मैं क्या करूँ।
परन्तु जब सत्य का और धर्म का वातावरण था उस वक्त स्त्रियां अपने पति के अधीन थीं और सन्तान उच्च कोटि की हुआ करती थी। पर अफसोस है मनुष्य ज्यादा चंचल हो गया। वासना का जब से भण्डार बना तभी से ऐसी महा दशा भारत की बन गई और मनुष्य की क्रिया जानवर भाव में परिणित हो गई। मुझे दुख है मनुष्य जीवन मनुष्य नहीं बनाता है। सदाचारी दोनों बनो और आचार विचार ठीक रक्खो।
अब प्राणी दुख के कारण पाप करते हैं। पर क्या करें संसार में उपदेश की कमी है। महात्मा बहुत कम हैं। संसार बहुत बिगड़ा हुआ है। अब कौन सुधारे? तालीम तो सदा से महात्माओं की एक ही रही और आज भी वही है अपने कर्मानुसार तालीम भी ग्रहण की जाती है तालीम एक है पर सबकी एक बुद्धि नहीं होती है। आजकल तामस भाव की बुद्धि होती है। कौन पुत्र अपने पिता की आज्ञा में चलता है? कोई बिरला। अपने माता पिता के पहले तुम उपासक बनो और उनकी आज्ञा का पूर्ण पालन करो तब तुम गुरुजनों के पास पहुँचोगे फिर गुरुजनो की आज्ञा का पालन करो।
☀ गुरु आशिकों के साथ जुल्म और उपाधि
भक्तों के साथ दुनियां हमेशा से जुल्म करती रही है जैसा कि पलटू साहब ने इस कड़ी में कहा है- पलटू नाहक भूकता जोगी देखे स्वान। जगत भगत से बैर है चारो जुग परमान।। संत साधु महात्मा और भक्तजनों को दुनियां में हमेशा तंग किया। हर तरह से उनको तकलीफ दी और दुनियां दार बराबर इस बात का जलन करते रहे कि जिसमें सच्चे परमार्थ की युक्ति प्रकट न होने पावे।
अब कलियुग का प्रभाव है और जैसे जैसे घोर कलियुग आता जा रहा है दुनिया की तरफ से खिलाफत और उपाधि बढ़ती जा रही और बढ़ते-बढ़ते किस वक्त में जाकर इस उपाधि और विरोध की क्या सूरत होगी और किस कदर यह जोर पकड़ेगा इसके निसबत पेश्तर जो सन्तों ने इशारों में फरमाया है उस पर जब गौर किया जाता है तो रोमांच हो जाता है और शरीर कांपने लगता है।
इसाई मजहब की तारीख में आता है कि एक फिरके के लोगों ने दूसरे फिरके वालों के साथ क्या ज्यादतियों या जुल्म किये हैं। उससे कहीं बढ़कर जोर व जुल्म सन्तों और सन्तों के भक्तों पर कयास किया जाता है कि आइन्दा होंगे।
जो सच्चा भक्त और परमार्थी होगा वही उनको बरदास्त कर सकेगा और भक्ति और परमार्थ के रास्ते में डिगमिगायेगा नहीं। काल यह पसन्द नहीं करता कि सन्तों का मत जारी हो। इसलिए वह हमेशा से सन्तों के मार्ग में रुकावटें डालता रहा है और डालता रहेगा और जैसे-जैसे वक्त गुजरता है काल की तरफ से मुखालफत और उपाधि रूप भयंकर होता जायेगा। जब पहिले-पहल सन्त यहाँ पधारे थे उस वक्त उनके और उनके भक्तों और सेवकों के पीछे छूआछूत और जात बिरादरी और घर वालों बगैरह की तरफ की उपाधि थी।
जाति बिरादरी और घर वाले लोग रोकते थे और विघ्न डालते थे कि जिसमें सच्चा सतसंग खड़ा न होने पावे। जो भक्त और सेवक वहां जाते थे उनको उनके जात बिरादरी और घर वाले लोग तंग करते थे। सैकड़ों तरह की बातें करते कि वहां ऐसा होता है कि केवल स्त्रियों आती हैं ये तो जानकी. माई हैं सीता बनी हैं। रास्ते में औरतों को तंग करते थे। बदनाम करते थे और कहते थे कि महात्मा दूसरों का धन हर लेते हैं पुलिस को केस दिए जाते थे। सी०आई०डी० लगाये जाते थे।
लोग नाना प्रकार की हँसी उड़ाते हैं। जितनी बदनामी होती है संसार में और धूर्तबाजी, वह सब दुनियां वाले, महात्मा और उनके सेवकों के गले में बॉधते हैं। दुनियां वालों को डर समाज धर्म का नहीं रहा। और वह अब बन्द नहीं हो गया है।
जहाँ सच्ची भक्ति और परमार्थ की सच्ची यह कार्रवाई हो रही होगी वहीं यह सब उपाधि मौजूद होगी। दुनियां में सन्तों और उनके भक्तों सेवकों को चैन से नही रहने दिया और न रहने देंगी बल्कि रोज नई नई उपाधि पैदा करेगी। यह सब भी मालिक की मौज मसलहत से है। सच्चे परमार्थियों की भक्ति और परमार्थ में कोई हर्ज नहीं होगा बल्कि जिस कदर दुनियों उनको तंग करेगी उनकी भक्ति दृढ़ मजबूत और बढ़ती जावेगी दूसरी बात यह है कि ऐसा न हो तो सच्चे झूठे की पहचान कैसे होगी।
विचार करने योग्य सत्य वचन यह है कि उसका बीज गुरु का वचन ही है जो गुरु का और शिष्य के बीच भक्ति का सम्बन्ध उत्पन्न करता है। और जिसके द्वारा गुरु शिष्य को भक्ति का धन प्रदान करता है। यदि वचन की पाबन्दी न हो तो गुरु संगत में रहता हुआ भी शिष्य उनके लाभ से खाली रह जाता है।
और गुरु के वचन का पालन करने वाला दूर रह कर भी रंग जाता है। इसलिए गुरु की आज्ञानुसार कर्म करना गुरु भक्तों का प्रथम और उत्तम धर्म है क्योंकि जिसको गुरु के वचनों में विश्वास नहीं उसको इहलोक और परलोक दोनों दुख रूप में बने रहते हैं।
विचार करना चाहिये कि हम इस संसार में क्यों आए हैं और क्या चाहते हैं। अगर हमकों सुख की इच्छा है और इसी इच्छा को लेकर फिर रहे हैं तो वह सुख बाहर नहीं है तुम्हारे अन्दर है। सन्तों का कथन है कि यह जीव स्वयं सुख रूप है। तुममें सब शक्तियों भरपूर हैं मगर भूल और भ्रम के कारण यह दुर्बल और कमजोर बना बैठा है।
यह शक्ति कब प्राप्त होगी? जब यह गुरु के साथ सम्बन्ध पैदा करेगा। जब गुरु का आदर्श उसके सामने होगा और गुरु के सतसंग व वचनों का लाभ इसको प्राप्त होगा तो फिर संशय और भरम की जड़ आप से आप कट जायेगी और इसे अपने वास्तविक स्वरूप का ज्ञान होने लगेगा।
दोहा-
भूमि जीव संकुल रहे गये शरद ऋतु पाय। सतगुरु मिले जाहिं जिमि संसय भ्रम समुदाय ।।
हे लक्ष्मण, वर्षा ऋतु के अन्दर मच्छर कीड़े मकोड़े आदि इस कदर भी जीव जन्तु पैदा हो गये थे वह शरद ऋतु के आते ही इस प्रकार नाश हो गये हैं जैसे सतगुरु के मिलाप से संशय तथा अधर्मों का नाश हो जाता है। आम लोग ग्रन्थों और वाणियों के पाठ को किस्से कहानियां समझ कर पढ़ते हैं। परन्तु यह वास्तव में किस्से कहानियां नहीं हैं। इनके अन्दर हकीकत के भेद छुपे होते हैं जिनको भक्ति भाव का दिमाग रखने वाला जीव ही समझ सकता है।
यह पूर्ण गुरु की निशानी होती हैं कि उनकी शरण प्राप्त होने से दिल सम्पूर्ण संशय भरमों से साफ हो जाता है जब दिल से संशय भरमों की गन्दगी दूर हो गई फिर संसार कहां? संशय भरमों का नाम ही संसार है। संसार की और कोई हैसियत ही नहीं है जब तक जीव संशय भरमौ के रोग से पीड़ित हो रहा है तब तक संसारी है।
☀ गुरु भक्ति के लाभ
गुरु का दर्शन, गुरु सेवा, गुरु की पूजा, गुरु का ध्यान, गुरु की संगत- यह सब कुछ गुरु भक्ति के प्रकरण हैं, इनसे जगत के मोटे बन्धन कटेंगे। इसलिए पहली शर्त यह है कि मनुष्य गुरु की भक्ति में मन दे जिससे मोटी माया साफ हो जाय। रही झीनी माया, इसके लिए गुरु के नाम का सुमिरन और ध्यान के अभ्यास की आवश्यकता है जिसका सम्बन्ध मन के साथ है।
जब यह दोनों सीढ़ियों तय हो जायेंगीं तो अपने आपका साक्षात्कार होगा और मनुष्य जीवन मुक्ति के सुख का अनुभव करेगा। और जब स्थूल और सूक्ष्म दो प्रकार की माया के संस्कार दूर हो जायेंगे तो फिर हर जगह इष्टदेव का रूप दिखाई देने लगेगा। यह रूहानियत है और यही रूप के सुख का असली स्थान है जिसके प्राप्त करने के सिवाय गुरु की भक्ति के और कोई तरकीब नहीं है।
☀ पात पात को सींचते, पेड़ को दिया सुखाय।
पात पात को सींचते, पेड़ को दिया सुखाय।
माली सींचे मूल को, ऋतु आया फल खाय ।।
अनन्य भक्ति का अर्थ हैं एक की भक्ति। और वह एक की भक्ति गुरु की भक्ति हो सकती है क्योंकि मन की भक्ति से यह जीव कभी ठौर ठिकाने नहीं लग सकता है। मन का तो स्वभाव है कि वह कभी एक जगह पर ठहरा नहीं करता। सदा बन्दर के समान कभी कहीं और कभी कहीं उछलता कूदता हुआ अनेक सम्बन्ध अपने आस पास बनाये रखता है। इन सम्बन्धों से छूटने के लिए अकेली तदबीर यह है कि गुरु के रूप से सम्बन्ध उत्पन्न किया जाय।
उसी एक के रिश्ते से बाकी सम्पूर्ण रिश्ते आपसे आप कट जायेंगे। कल्पनायें दूर होगी और जीव अपने ठिकाने लगेगा। बेसमझी की भक्ति किसी काम की नहीं होती है क्योंकि एक उपासक हो और हजारों उसके इष्ट हों तो वह बिचारा किस किस की पूजा करे और किस किस के साथ प्रेम करे। सुगम युक्ति यह है कि गुरु का पल्ला दृढ़ता से पकड़ ले अनेकों का झगड़ा आप से आप मिट जायेगा।
संसार में ही मनुष्य सुख और शान्ति को चाहता है। हर एक की इच्छा है कि उसका मन एकाग्र हो और वह एकता की व्यवस्था पर पहुँच कर सच्ची खुशी और आनन्द को प्राप्त करे। परन्तु यह एकाग्रता जब होगी, जब वह एक का बनेगा। एक का बनने से एकता आयेगी और बहुतों का बनने से वृत्ति बिखरी रहेगी और सुख का स्थान नहीं मिलेगा। जो मनुष्य बहुतों का बनता है वह वास्तव में एक का भी नहीं बनता। और जो एक का बन जाता है उसमें बहुतों का प्रश्न आप से आप पूर्ण हो जाता है।
सब आये उस एक से, डाल पात, फल-फूल।
अब कहो पीछे क्या रहा, गहि पकड़ा जब मूल ।।
जिसको गुरु पूर्ण मिल जाने पर भी मन की शान्ति नहीं हुई तो इसका कारण यह है कि अभी मन से अनेकों के सम्बन्ध का नुक्स दूर नहीं हुआ। गुरु के मिलने पर साथ ही यह शर्त भी जरूर है कि औरों के सम्बन्ध में कमी की जाय। क्योंकि जब तक अनेकों की तरफ से दिल नहीं हटाया जाएगा तब तक एक की भक्ति का रस नहीं आयेगा।
गुरु से करे कपट चतुराई। सो हँसा भव भरमें जाई ।।
जो शिष्य गुरु की निन्दा करई। सूकर स्वान गरभ में परई।।
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