◉ गुरु सब देखते हैं ◉
☀ अगर किसी दूसरे महापुरुष के सतसंग में आनन्द मिले तो तुमको चाहिए कि उसे अपने गुरु के तरफ से आया हुआ समझो। जो कुछ भी जहाँ से मिले उसे अपने गुरु साहेब की दात अथवा महान कृपा को जानो। गुरु साहब हर हालत में खबर रखते हैं जो कि हर वक्त उनकी निगाह के सामने हैं। उनके हुकुम की तामील कितनी हो रही है यह भी वह सब जानते हैं।
इसलिए हर वक्त गुरु साहब को हाजिर व गायब में भी हाजिर समझो। हर वक्त उनसे डरते रहो ताकि कोई बुरा काम तुमसे न होने पावे और कभी भ्रम मे मत आओ। हर वक्त भय सामने रक्खो। हमेशा समझते रहो कि गुरु यहीं पर उपस्थित हैं और हमें देख रहे हैं। परन्तु किसी कारण से या हमारे पूर्व स्वभाव अनुसार दोष हम पर प्रगट नहीं करते हैं। यदि गुरु साहब उसके कर्म प्रगट कर दें तो वह सतसंग त्याग कर पूर्व कर्म अनुसार सत्य क्रिया छोड़ देगा।
इसमें संदेह न लाने पावे तब साधक पापों से बचकर निकल पाता है। उससे वही काम हो सकते हैं कि जिनको गुरु का भय छुड़ा देता है। वह अति शीघ्र सतपुरुष बनने का अधिकार प्राप्त कर लेता है और सत्य भाव, पुरुष के गुण उस मनुष्य देह में उतर आते हैं। यह लाभ गुरु उपासना, गुरु चिन्तन का सेवक को प्राप्त हो जाता है। सेवक को सदा अपनी आँखें गुरु साहब के सामने रखनी चाहिये।
प्रेम के अलावा सेवक के अन्दर जितनी वस्तुयें हों उन्हें जल्द से जल्द निकाल कर फेंक दे और निर्मल प्रेम गुरु के साथ करना वाजिब है। ऐसों के पास बैठे कि जिनके पास बैठने में दुनिया की याद भूल जाय और दिल खिंचने लगे। तू उनकी सोहबत से वैसा बन या वह तेरे ऐसा हो जावे।
☀ इन ऐसी बातों को लोग गुरडम समझते हैं वह न करें उनसे कोई जबरदस्ती नहीं करना है। लेकिन जो सही सत्य परमार्थ है उसको आपके सामने खोल करके रखा है। गुरु कृपा से यही अनुभव हुआ है कि अन्तिम पर्दा गुरु ही फोड़ता है यहाँ अपनी कोई क्रिया नहीं कामयाब होती है। जप, तप, ज्ञान, होम, दान, तीर्थ, उपासना, बैराग आदि काम नहीं देते हैं। केवल गुरु दया पर ही सेवक पार जाता है।
परन्तु गुरु माया मण्डल के पार का होना जरूरी है। जो गुरु सहस दल कँवल व शिव शक्ति के पार अथवा त्रिकुटी से ब्रह्म माया के परे पहुँचकर अपने बैठने का ठिकाना गुरु पद में बना लिया हो और जब चाहे गुरु को प्रकट करने की शक्ति गुरु में आ गई हो ऐसे कामयाब गुरु को करना उचित होगा। ऐसा गुरु सेवक को माया के परे ले जायेगा। ऐसा गुरु सर्वव्यापी होता है जो कि हर मण्डल में अपना आधिपत्य जमाये हुए है। ऐसे गुरु का शिव शक्ति, ब्रह्म माया अन्य सभी
नीचे के देवता सम्मान करते हैं और ऐसे गुरु शिष्य का सदा इच्छा मात्र से ही काम कर देते हैं। और जो गुरु खुद बन्धन में हो वह दूसरे जीवों की बैड़ियां कैसे काट सकता है। इस वास्ते पूर्ण गुरु की खोज करना और इससे अपनी जरूरी मतलब आत्म निबन्धन के लिए राजी रखना अनिवार्य होगा। सेवक जो सेवा करता है उसको प्रसन्न करने के लिए जब तक हम उसके हृदय में अपने लिए प्रेम उत्पन्न नहीं कर लेते हैं तब तक वह हमारी ओर क्यों देखेगा? और हमारे लिए क्या कष्ट उठायेगा? यदि हम प्रश्न करते हैं और कहते हैं कि महापुरुषों के दृष्टि में दया होती है।
वह दूसरों के कष्टों को दूर करना अपना धर्म समझते हैं। फिर हमें उनकी सेवा करने की क्या जरूरत? यह महामूर्खता है। तुम्हारा भी उनके लिए कर्तव्य है। अपने स्वार्थ हेतु दुनियां में सबकी हाजिरी सेवा करते फिरते हो और नीच ऊँच का तुम्हें ध्यान हरगिज नहीं रहना चाहिए। मतलबी अपने मतलब के वक्त अन्धा हो जाता है और अपना मतलब सिद्ध कर लेता है इसी तरह आत्म निरूपण के वक्त तुम्हारा खास मतलब है। इस काम में तुम जरा भी अन्धे नहीं होते हो बल्कि तुम चालाक रहते हो कि महा परुष माल असबाब धन आदि वस्तुयें न छीन ले।
परमार्थ में इसी प्रकार का नियम लागू करना होगा। किसी प्रकार की अकड़ से काम नहीं बनेगा। अहंकार त्याग के जो मालिक के भक्तों की भक्ति करता है तन मन से और जो उसके आश्रित हो जाता है उसी के भाग्य मे भगवान है उसी के लिए सच्चा मोक्ष है। अन्त में सब इसी खाम ख्याली में पड़े है कि आवागमन का चक्कर कट जाय।
◉ पार होने का सेन्टर ◉
☀ किसी काम के सीखने के हेतु केन्द्र स्थान पर जाना होगा और उससे अपना पूर्व प्रेम स्थापित करना होगा। सतगुरु भी महान विश्व व्यापी शक्ति का एक सेन्टर है। सेवक का सम्बन्ध गुरु से जब तक नहीं होगा तब तक शक्ति की आकर्षण धारें तुम्हें कैसे मिलेंगी और तुम्हारा सच्चा उत्थान कैसे होगा। इस रहस्य को समझो। जो अपनी बुद्धि और बल का अभिमान त्याग के अपने अहं को मिटा के आर्त और दुखी हृदय से भगवान को पुकारते और उनका सहारा लेते हैं उनको उद्धार करने वाली धारें दी जाती हैं।
उसी के लिए प्रभु की दिव्य शक्ति आती है और मनुष्य को माया से संग्राम करने और पार होने के लिए शक्तिशाली बनाती हैं। परन्तु परमात्मा की धारें जो नूरानी होती हैं वह किसी दिव्य महान् आत्मा महात्मा सतगुरु से प्राप्त होती हैं सीधी धारों की रोशनी लोग ले सकते है परन्तु ऐसे वही लोग होते हैं जो महान ऊँचा संस्कार लेकर मनुष्य तन में आते हैं। ऐसी आत्मायें सदा सत्य पथ पर ही रहती हैं और यही आत्मायें गुरु का सही आदर करती हैं। एक खोजी के लिए यह नियम प्रयुक्त नहीं होगा। उसे गुरु से पूरा नाता प्रेम का जोड़ना होगा। बिना गुरु के बहुत कोशिश करने पर उन्हें थोड़ी झलक दिखाई पड़े परन्तु आगे फेल हो जाते हैं। जब तक जानकार का सहारा नहीं लोगे तब तक सही उद्देश्य में सफलता नहीं मिलती।
◉ गुरु ही मुक्ति का दाता क्यों
मनुष्य के शरीर में इन्द्रिय के स्थान वैसे ही हैं जैसे आन्तरिक इन्द्रियों के! मन, चित्त, बुद्धि, अहंकार के भी स्थान हैं इन स्थानों की चढ़ाई एक दूसरे से बहुत विलग है। ज्यों-ज्यों ऊपर चढ़ता है त्यों त्यों सूक्ष्म मण्डलों में साधक को कठिनाईयां बढ़ती जाती है। मनुष्य अपने उद्योग से मन बुद्धि चित्त का पर्दा फाड़ सकता है पर अहंकार का बारीक आवरण दूर करना उसके सामर्थ्य से बाहर की चीज है।
इसको गुरु ही दूर करता है। जब तक स्थूल रूप में अहंकार मौजूद रहेगा तब तक मुक्ति सही नहीं है इसलिये गुरु को मुक्ति का दाता माना गया है। इन माया के बन्धनों को काटने के लिए और अपार भवनिधि पार होने के हेतु सामर्थ्य का सहारा लेना होता है। होशियार मल्लाह ही नाव किनारे लगा सकता है। माया की चप्पल अजीबों गरीब है जिसके सिर पर पड़ती है वही जानता है। इस महा भवकूप से बचने के लिए गुरु का पूरा सहारा लेना होगा गुरु तुम्हारा हो और तुम गुरु के हो बेड़ा पार है।
◉ गुरु और शिष्य का नाता
☀ गुरु और शिष्य का नाता पिता पुत्र का होता है। दोनों मिले जुले होते हैं। आपस की जो सम्पत्ति होती है वह एक दूसरे की होती है। पुत्र की आवश्यकता पर पिता बेखटक देता है और पिता की जरूरत पर पुत्र देता है। न पिता हिचकिचाता है और न पुत्र हिचकिचाता है। इस तरह गुरु और शिष्य हर क्रिया में मिले जुले रहते हैं। शिष्य गुरु से इतना प्रेम करता है कि उसे अपने क्रिया का भान भी नहीं रहता।
जो क्रिया होती है वह गुरु की। ऐसे शिष्य को कुछ नहीं करना है परन्तु शिष्य ऐसा बिरला नजर आता है। गुरु भाव में लीन हुये शिष्य संसार भर में बहुत ही इने गिने होते हैं। गुरु की कृपा देखो की चन्द दिन में हमारा जीवन बदल दिया। अपना रंग चढ़ाके अपना कर लिया और ऐसा रंग चढ़ाकर अपना किया है कि अब छूटता ही नहीं है। और देखो गुरु की कृपा की न जप किया, न तप किया, और न कोई प्रक्रिया की न लंगोटी लगायी और न वन को गये, न घर गृहस्थी का कोई व्यवहार छोड़ा। जैसे तब थे वैसे अब भी हैं।
पर सन्त सतगुरु की दी हुई एक वस्तु अवश्य है कि जिसके लिए बड़े बड़े तपस्वी भी तरसते हैं। यह केवल गुरु कृपा से हुआ है। हम कहा करते हैं कि जैसे भी बने गुरु को अपना बना लो यही पार होने की सर्वोपरि कुंजी है। सब क्रिया साधन भजन थोथे हैं। कुछ ऊँचे स्थान तक जाते है परन्तु अन्त में गुरु सहायता ही पहुँचाती है।
◉ कैसे शिष्य
☀ गुरु से प्रेम करना दुस्तर है पर ऐसे शिष्य जो अपने भाव व क्रिया को गुरु प्रेम की क्रिया में लय कर देते हैं तो वह प्रेम क्रिया ही शिष्य को गुरु स्थान पर पहुँचाती है। ऐसे शिष्य सर्वस्व गुरु पर कुर्बान करने को तैयार हैं, और ऐसे शिष्य पतंगे बनके गुरु के चारो ओर मंडराया करते है जैसे दीपक के चारो तरफ पतंगा घूमता रहता है। बिना गुरु के उन्हें चैन नहीं मिलती परन्तु ऐसे आशिक मिजाज शिष्य हजारों में एक दो ही होते हैं।
दिखने में शिष्यों की बड़ी तायदाद तो होती है पर हजारों में एक दो होते हैं। हजारों तो इहलोक परलोक की लालसाओं को लेकर आते हैं। अपना मतलब गांठने के लिए गुरु की आवभगत करते हैं। गुरु से उनका कोई स्नेह नहीं होता है। न एकत्व भाव उनके अन्दर आता है। तन धन से जो सेवा उनकी करते हैं उसमें भी उनका अर्थ छुपा रहता है। यह सबसे नीचे दर्जे के माने जाते हैं। गुरु उनको दुत्कारता नहीं है कोई साधन भी उनसे छुपाता नहीं है। पर अपना समझता भी नहीं है और हमेशा उसकी ओर लापरवाह है और चौकन्ना रहता है।
दूसरे वह लोग होते हैं जो प्रेम भी करते हैं अपना भी समझते हैं पर अपने आराम को नहीं छोडना चाहते। जो चीजे इनकी है जो काम में आती है उनको यह छोड़ना नहीं चाहते हैं। इफरात वस्तु अपनी जरूरत से ज्यादा बची है उसे गुरु भेंट में देना चाहते हैं। और मन में आपा बांध लिया कि गुरु के साथ हमने बहुत बड़ी सेवा की है। यदि गुरु भाव प्रकट न हुआ तो सतसंगी जनों के साथ यह भाव पैदा हो जाता है कि मैं बहुत बड़ा गुरु मुख सेवादार हूँ और सतसंगी जनों को अपनी सेवा से नीचा समझना यह विचार प्रगट हो जाता है। अन्त में मान प्रतिष्ठा का रूप सामने प्रगट हो जाता है।
एक टिप्पणी भेजें
0 टिप्पणियाँ
Jaigurudev