*संत उपदेश 20*

 जयगुरुदेव  
पांच व्यक्तियों का साथ नही करना--
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1. जो झूठ बोलता है।
2. मूर्ख जो कि हित के समय तुम्हारी हानि करा दे।
3. कंजूस जो कि उचित समय पर शुभ कर्म में तुम्हें व्यय न करने दे।
4. मलीन हृदय अर्थात् ओछा और कमीना पुरुष जो कि आवश्यकता के अवसर पर तुम्हारे काम न आवे।
5. विश्वासघाती जो कि अपना लाभ देखकर तुम्हारी हानि करा दे।

साधक संदेश
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1. जो कोई दूसरों को वचन सुनाने की अभिलाषा अधिक रखे और अन्तर अभ्यास कम करता हो तो उसके विचार नीच हैं, उसका मन मूर्ख है और वह अपन समय व्यर्थ ही खोता है।

2. झूठे गुरु की टेक को, तजत न कीजे बार,। द्वार न पावे शब्द का, भटके बारम्बार।।
सुरत शब्द बिना जो गुरु होई। ताको छोड़ो पाप कटा।।

3. सच्चे गुरु की पहचान यह है कि घट में परम प्रभु की और रचना का भेद बतावे, शब्द सुना कर अन्तर में सुरत अर्थात् आत्मा और मन को सिमटावे और चढ़ावे, नेत्र के स्थान से जहां जाग्रत अवस्था में जीव की मुख्य कर बैठक है चलने की युक्ति समझावे और आप परम प्रभु के स्थान से चैतन्य हों अथवा अपना कार्य यहीं अभ्यास करके पूरा कर चुके हों अथवा साधन कर रहे हों।

4.  पहले का नाम संत सतगुरु दूसरे का साध गुरु या प्रेेमी अभ्सासी हो। उसके उपदेश या सतसंग से जीव का काज बन सकता है। किसी दूसरे व्यक्ति से सच्चा उद्धार संभव नही है न चौरासी का भ्रम छूटेगा।

5.  अब जीवों को स्वयं विचारना चाहिए कि सच्चे प्रभु से मिलने की सच्ची युक्ति बतलाने वाला मार्ग चलाने वाला ही गुरु हो सकता है अथवा असत्य भ्रमों में तथा बाहर मुखी कर्मों में भटकाने वाला और यथार्थ से विमुख रहने वाला।

 वह तो स्वयं अचैतन्य है भ्रमों में भ्रमण कर रहा है। धन और पूजा के लोभ में और भी भ्रमाता है। ऐसे झूठे गुरु से जिसने पाखण्ड करके अथवा अज्ञानता से अपना नाम गुरु रक्खा है, गुरुत्व का सम्बन्ध तोड़ना उचित है। इससे कभी पाप नहीं होगा अपितु परम प्रभु उन जीवों से जिन्होंने सच्चा उपदेश लेकर अभ्यास आरम्भ किया है और सच्चे गुरु और सच्चे प्रभु की शरण में आये हैं, प्रसन्न होगा।


पूरे गुरु के साथ सतसंग में व्यवहार के नियम

बिना पूरे गुरु और उनके सतसंग के किसी जीव का सच्चा उद्धार सम्भव नही है। अतएव नीचे लिखा जाता है कि परमार्थियों के लिये किस प्रकार के नियम का पालन करना चाहिए, जिससे कि उनका पूरा लाभ हो--

 परमार्थी जीवों को पहले सतगुरु और सतसंग की खोज करना चाहिए। जब पता मिल जावे तब जिस प्रकार शीघ्र हो सके उनके सतसंग में सम्मिलित होना चाहिए। अर्थात वहां के नियम के अनुसार व्यवहार में लाना चाहिए। अर्थात दृष्टि सतगुरु के सम्मुख करके उनके चरणों में मत्था टेकना या चरण छूकर प्रणाम करना चाहिए । 

 जहां तक सम्भव हो सन्मुख अथवा दाहिने, बायें, जहां सतगुरु की दृष्टि पड़ती हो बैठना चाहिए। पीठ पीछे या दृष्टि के पीछे जहां तक सम्भव हो न बैठें क्योंकि दया भरी हुई दृष्टि वहां न पडे़गी और वचन भी सन्मुख रहने से जैसे सुनाई देंगे वैसे दृष्टि के पीछे रहने से स्पष्ट सुनाई न देंगे तथा दृष्टि भी किसी अंश तक चंचल रहेगी।

∎ जब सतसंग में जावे अपने को शून्य तथा कम ज्ञानवान समझकर दीनता के साथ जावें तब कुछ लाभ की प्राप्ति होगी। जो स्वयं को पूर्ण तथा दाता समझकर अथवा परीक्षक बनकर अथवा दृश्य देखने की भावना से जायेगा वह शून्य ही वापस आयेगा। कदाचित उनकी दया को कौन कहे उनकी कृपा दृष्टि भी उन पर न पड़े जिससे उसको सतसंग का लाभ न मिल सकेगा।

∎ जब सतसंग में बैठे तब दृष्टि सतगुरु पर रक्खे और वचन चित्त देकर सुने और समझें। कोई विचार संसारी अर्थात कार-बार अथवा व्यापार इत्यादि का मन में न लावें। नही तो वचन कम सुनाई और समझाई देंगे और उसका रस भी नहीं मिलेगा। 

∎ जिस समय कि सतगुरु वचन कहते हों, बीच में प्रश्न न करें। जब वे टुकड़ा या पूरा वचन कह लें तब जो पूछना हो पूछें और स्मरण रक्खें कि यथार्थ प्रश्न के अतिरिक्त जिसका की कोई उससे सम्बन्ध हो, दूसरी बात न पूछें कहें, अन्यथा भाव समझ में न आवेगा। जो बात सुनें उसका मनन और विचार अपने में स्वयं करें। 

∎ अब सतसंग में ऐसे वचन हो कि किसी बुरे वस्तु खाने-पीने अथवा अथवा विचार करने अथवा बुरे कर्मोें  के करने से पथ्य करना चाहिए तो अपनी शक्ति के अनुसार उसके मानने में अन्तर में बाहर में प्रयत्न करे। जो बात  नई सुनाई उनको जहां तक सम्भव हो स्मरण करे और सतसंग के पश्चात उनका मनन करके उन्हें हृदय में बसाया जावे।

∎ व्यर्थ और निष्प्रयोजन बाते न करें न संसार के समाचार सतसंग में सुनावें, न संसार के बड़े और धनी राजाओं आदि की कथा कहें, न उनके व्यवहार और चाल चलन की बातों का प्रकाश करें, न कचहरी दरबार के मामलों तथा मुकदमों और लड़ाई-झगड़ों की व्याख्या और न अपने भाई बन्धु और सम्बन्धियों के व्यवहार और उनके घरों की और नगर की वस्तुओं का वर्णन करें। क्योंकि यह सब कारखाने मलीन हैं और परमार्थ से उनका कुछ सम्बन्ध नहीं है।


जयगुरुदेव
शेष क्रमशः अगली पोस्ट  no. 21  में...

पिछली पोस्ट न. 19 की लिंक... 

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