∎ सतसंग में बैठकर मन को संसार की बातों से विरक्त करना चाहिए न की नई-नई वस्तुओं और सारहीन बातों से उसको भरते जाना तथा दूसरो के मन को भी मलीन करना।
∎ सतसंग में किसी की भी बुराई भलाई नहीं करनी चाहिए। किसी के मामले अथवा कार्यवाही पर चाहे वह संसार अथवा राजदरबार से सम्बन्धित हो अपने विचार प्रगट करना अथवा मत लगाना उचित नही है। क्योंकि सतसंग परमार्थ का घर है न कि संसार के रगड़े झगड़े के प्रकार की बातों का।
∎ परमार्थी कक्षा के बाद जहां कहीं भी ऐसी बातें होती हैं वे परमार्थ के अमूल तथा हितकारी वचनों को भुलाने वाली होती हैं। ऐसे संघ तथा समाज में परमार्थी को कभी सम्मिलित नही होना चाहिए।
∎ यदि कोई कहे कि विद्या, बुद्धि और चतुराई की बातें करने में कुछ हानि नहीं है अपितु इससे विद्या और बुद्धि का विकास होता है तो उसको समझाया जाता है कि सच्चे सतसंग में विद्या बुद्धि भुलाये जाते हैं न कि उसका स्मरण कराया जावे और उन्नति का प्रयत्न किया जावे। ऐसी बातें परमार्थी वचनों के मनन, अन्तर में भजन और अभ्यास के लिये महान विघ्न कारक और बाधा उपस्थित करने वाली होती हैं। सच्चे परमार्थी को उनसे कठोर पथ्य करना चाहिए।
सतसंगी और उनके प्रेमी जनों को यह सब बात अति रुचिकर होती है। ऐसे लोगों का जो स्वभावतः ऐसी बातों में रत रहते हैं, सतसंग में सम्मिलित होना वे स्वीकार नही करते।
∎ इन सब बातों के अतिरिक्त जिनका कि वर्णन ऊपर हुआ है सतसंग में बैठकर ऊंघना या सोना परमार्थ की उन्नति में महान बाधक होता है तथा वहां के आदर्श और नियम के विरुद्ध है। किन्तु ऐसे लोग जो गहरा सतसंग कर चुके हैं वे यदि ध्यान और अपने मन और सुरत को समेटकर बैठे या अलग एक कोने में लेटे रहे तो उनकी दशा साधारण ऊंघने अथवा सोने वालों से विलग होती है।
वे तो अपने मन और सुरत को समेटे हुए अन्तर में एक प्रकार का रस लेते रहते हैं और नई शक्ति प्राप्त करते हैं। कभी कभी वे अधिक खिंच जाते हैं अथवा कुछ ध्यान सतसंग की कार्यवाही अथवा अपनी सेवा की ओर से ही रहता है।
∎ कुछ लोग जो पहिले ठीक ढंग से अधिक समय तक सतसंग के समय अपने अन्तरी अभ्यास जैसे ध्यान आदि में लीन हो जाते हैं। प्रगट में तो वे बैठे-बैठे सोते दिखाई देते हैं किन्तु यथार्थ में वे चैतन्य होते हैं और अन्तर में रस लेते हैं अथवा चरणों में लीन होते हैं। विदित हो कि ऐसे लोगों को मन और सुरत समेटकर ऊंचे स्थान पर बिठाकर वचन या शब्द सुनने या दर्शन करने का रस तथा स्वाद साधारण रूप् से बैठने की अपेक्षा अधिक मिलता है।
किन्तु यह दशा गहरे सतसंगियों की तथा अभ्यासियों की होती है। नये परमार्थियों को होशियारी से बैठना खुले नेत्रों से दर्शन करना, चित्त से वचनों को सुनना और उनका मनन करना अपेक्षा तथा आवश्यक है। यदि वे ऐसा नहीं करेंगे तो गहरे सतसंगियों की स्थिति तक नहीं पहुंचेंगे।
∎ सच्चे खोजी और दर्दी के लक्षण यही है कि वे सतसंग में बहुत चैतन्यता के साथ बैठें, किसी वचन का एक शब्द भी न जाने देवें, अर्थात कुल वचन को ध्यान से सुनें समझे तथा उसका मनन करें।
*हार चढ़ाने से लाभ*
∎ संत सतगुरु या साध गुरु की सुरत ऊंचे देश के निवासी होते हैं। वह जब नीचे उतरते हैं तब भी पिण्ड में ऊंचे स्थान पर उनकी बैठक होती है। इस कारण उनकी देह से जो रूहानी धारें निकलती हैं वे भी ऊंचे स्थान की ओर अत्यंत निर्मल और शीतल होती हैं। फूल अत्यंत कोमल और आनंदमय होते हैं। चाहे किसी प्रकार की धार हो उसका प्रभाव उस पर अतिशीघ्र उत्पन्न होता है। अतएव जब कि हार बनाकर संतगुरु या साध गुरु के गले में डाला गया तब उनकी देह और हाथों के स्पर्श से उसमें बहुत प्रभाव उनकी धार का आ जाता है। अर्थात सन्तों की रूहानी धार हार पहनने वाली रूहानी और शीतलता को बढ़ाती है। अर्थात् ऊंचे स्थान की ओर उसका मुख मोड़ती है।
*मत्था टेकने तथा प्रणाम करने से लाभ*
1. प्रत्यक्ष है कि आंखें झरोखे दर्शन की हैं क्योंकि प्रत्येक आदमी की बैठक उसके अन्तर में है और वहीं से जगत और उसकी दृष्टि एक होती है। संत सतगुरु या साध गुरु ऊंचे देश के वासी, महान निर्मल, महान शीतल, और दयाल होते हैं। उनकी दृष्टि भी दयालता, शीतलता, और कृपा से भरी हुई होती है। जिस पर वह दृष्टि ध्यान के साथ पड़ती है उसके हृदय पर भी दृष्टि के मिलाकर प्रणाम करने से अधिक लाभ होता है अर्थात उनकी दया और कृपा की प्राप्ति होती है। क्योंकि उनका शरीर विशेषकर उनके हाथों और चरणों से सर्वथा महान पवित्र रूहानी धारें निकलती रहती हैं।
अतएव उनके चरणों पर मत्था टेकने से गहरा प्रभाव रूहानियत का होता है। तथा प्रीति उत्पन्न करता है।
2. संसार में भी नियम हैं कि कोई किसी से मिलता है विशेष कर अपने बड़ों के साथ तो दृष्टि के सम्मुख होकर प्रणाम अथवा नमस्कार करता है। यदि सम्मुख अर्थात दृष्टि के सामने न हुआ तो प्रणाम ठीक नहीं हुआ। जब कोई इच्छा अथवा प्रार्थना प्रस्तुत करता है तब कृपा दृष्टि की मांग करता है। जब अपने बराबर के अथवा छोटे से मिलता है स्नेह और लाड़ की दृष्टि से देखता है। सभी पुरुष अथवा स्त्री अथवा बालक दृष्टि को पहचानते हैं अर्थात् हृदय के स्नेह, मित्रता अथवा शत्रुता तथा विपरीतता के भाव को समझकर आपस में व्यवहार करते हैं।
3. परस्पर मिलने के समय एक दूसरे के शरीर को स्पर्श करने की भी साधारण रीति जिससे समुचित व्यवहार मिलता है और स्नेह का लक्षण प्रगट होता है। जैसे (जहां स्नेह अधिक है। ) कोई वक्ष से वक्ष मिलाकर मिलते छोटे बड़े के चरण छूते अथवा चूमते हैं। इस कार्य से दोनों की आत्मिक धारें परस्पर मिलती हैं और एक का प्रभाव दूसरे में प्रवेश करता है। बालकों को जिनकी आत्मायें तथा मन निर्मल होते हैं हर कोई प्रायः अधिक स्नेह के कारण गोद में लेकर चिपटता और प्यार करता है।
सतगुरु वचन सुनो और मानो। गुरु चरणन प्रीति पालो और चालो।।
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