परमार्थ कमाने की विधी–
1 जिस किसी को संसार और नाशमानता और जीव का संसार में थोड़े दिन का ठहराव देखकर चेत हुआ और वह सच्चे प्रभु और उसके धाम का जो अमर और परम आनन्द का भण्डार है खोज और पता लगाना चाहता है। और जिसको उस स्थान तक चलने और पहुंचने की युक्ति जान लेना स्वीकार है, उसके लिये वचन कहे जाते है।
2 पहले संत सतगुरु या उनकी संगति का खोज लगाकर उसके सतसंग में सम्मिलित हों। फिर दीनता और सच्ची अभिलाषा के साथ उसके सम्मुख जाओ और रुचि और प्रीति के साथ उनके वचन सुनो और समझो। इनमें से अपने लिये जिन वचनों को उचित और लाभदायक देखें उनके अनुसार कार्य आरम्भ करें।
जो ओछे और अनुचित विचार उसके मन में पहले से एकत्रित भरे हों उनको शनैः शनैः निकालें और दूर करें। जो बातें और चाल ढाल उसके सच्चे परमार्थ के निमित्त आवश्यक प्रतीत हो उनको ग्रहण करें और उनके अनुसार अपने रहन सहन के ढंग को ठीक करें।
3 इसके अतिरिक्त जो प्रेमी जन सतगुरु के सतसंग में सम्मिलित हैं अथवा होते रहते हैं उनके कार्य तथा रहन सहन को देखकर उनके अनुसार भी अपने कर्तव्य को ठीक रखें तथा उमंग पूर्वक संत सतगुरु और प्रेमी जनों की तन मन से सेवा करें।
4 संत सतगुरु के सतसंग में प्रतिदिन परम प्रभु की महिमा और उनके मिलने के मार्ग अर्थात् सुरत शब्द अभ्यास का जो वर्णन किया जाता है उसे सुन समझ कर रुचि के साथ उपदेश लेकर अन्तर अभ्यास करें और भेद मार्ग और स्थानों को भली भाति समझ लें।
सतसंग सुनने की विधी—
सतसंग अन्तर और बाहर सम्भाल कर करना चाहिए तब उसका लाभ और प्रगट होगा।
1 सच्चे परमार्थी को उचित है कि सतसंग होशियारी से करे तब उसका लाभ प्रत्यक्ष विदित होगा।
2 जब बाहर के सतसंग में सम्मिलित होवे तब चाहिए कि अपने नेत्रों से गुरु या साध के नेत्रों को ( जो सतसंग के अधिष्ठाता अथवा अफसर हैं) दृष्टि जोड़कर देखता रहे, चाहे वे उसकी ओर देखें या नहीं और फिर कुछ मिनट के पश्चात दोनों नेत्रों के मध्य में अर्थात् तीसरे तिल का ध्यान करके दृष्टि को जमावें। यदि इस प्रकार अभ्यास करने में नेत्र पूरे पूरे खुले न रहें तो कुछ हानि नहीं।
3 इस प्रकार दृष्टि जोड़कर बैठने में दर्शन का भी रस प्राप्त होगा और वचन भी विस्तृत रूप से सुनने में आवेंगे। अर्थात् उनके अर्थ स्पष्ट और गहरे समझ में आवेंगे अथवा यह कि उनके अर्थ का हृदय पर अधिक प्रभाव होगा और वे प्रिय लगेंगे।
4 इस प्रकार की बैठक ध्यान के अभ्यास में गिनी जाती है इसका ध्यान रखना चाहिए कि मन में किसी दूसरे प्रकार का विचार न आवे जैसा कि वचन सुनता जावे अर्थात् विचार करे कि उसके मन में कौन सा अनुचित अंग भरा हुआ है या व्यवहार में आता है। उससे जो हानि होती है उसे उसी समय समझकर उसको सच्चे मन से त्याग दें। वचनों से अंग अच्छे और ठीक मालूम हों उनकी प्रशंसा उसी समय अपने अन्तर में मापकर सच्ची अभिलाषा के साथ ग्रहण करता जावे।
5 इस प्रकार अभ्यास की दशा में बुरे अंग के छोड़ने की इच्छा और उत्तम अंग के ग्रहण करने की सच्ची अभिलाषा का प्रभाव हृदय पर बहुत स्पष्ट होता है। पर शर्त यह है कि इसी प्रकार वचनों के विचार और मनन भी जो सतसंग के सुनने में आये प्रतिदिन होते रहें तो कुछ दिनों में मन को निर्मलता प्राप्त होगी और अपने दशा को देख विचार की शक्ति भी वचन सुनते आती जायेगी इससे यह लाभ होगा कि सतसंग के अतिरिक्त और समय में भी अपने मन की चाल सूचना और उसको ठीक रखने का थोड़ा अभ्यास होता रहेगा। शनैः शनैः इस अभ्यास से चतुर रहने और सम्भालने की शक्ति होती जावेगी। और भूल और भ्रम घटते जावेंगे।
6 जब कुछ दिन तक इस प्रकार बाहर का सतसंग जारी रहेगा तो अन्तर का सतसंग भी किसी प्रकार ठीक होता जावेगा। अर्थात ध्यान के समय मन और सुरत चंचलता छोड़कर स्वरूप और भजन के समय मन शब्द में एकाग्र होकर थोड़ी देर के लिये जमने लगेंगे। जब कोई गुनावन या किसी प्रकार के विचार उत्पन्न होंगे तो उसे शीघ्र उनकी सूचना होती जावेगी। तब वह अपनी सम्हाल थोड़े से प्रयत्न से दूर कर सकेगा।
इस प्रकार ध्यान और भजन का थोड़ा रस मिलना आरम्भ हो जायेगा और भविष्य में उन्नति हो जायेगी।
7 यदि ऐसे अभ्यासी को घण्टे दो घण्टे बाहर के सतसंग में बैठकर मन सुरत के सिमटाव और जमाव का रस लेने का स्वभाव हो जायेगा तो जब वह सतसंग से अलग होगा, और यदि वह उसी समय ध्यान और भजन करेगा तो उसके मन और सुरत अवश्य ही स्वभाव के अनुसार थोड़े बहुत निश्चल रहेंगे और अभ्यास के रस और आनन्द की सहायता से धीरे धीरे बढ़ते जावेंगे और दिन प्रतिदिन दशा भी बदलती जावेगी।
8 विदित हो कि अन्तर के सतसंग में अभ्यासी को इस प्रकार सावधानी और चतुराई की आवश्यकता है जिस प्रकार कि भजन के समय और सुरत जहां तक सम्भव हो ध्वनि का रस लेवे और ध्यान के समय नाम और स्वरूप में स्थिर होकर सिमिट जावे और थोड़ा बहुत सिमटाव और जमाव का रस प्राप्त करे। किन्तु अन्दर के सतसंग में अभ्यासी की यह दशा उस समय होगी जब कि वह मन की तरंगो और विचारों को छोड़कर ध्वनि और रूप में लगेगा। यदि इच्छा प्रबल है और भोगों की ओर से चित्त में कुछ वैराग्य है तो मन और सुरत शीघ्र सिमिट कर ध्वनि में लग जावेंगे अन्यथा जब बाहर का सतसंग जो इस प्रकार से जैसा कि ऊपर लिखा गया है, किया जावेगा तो मन और सुरत को एकाग्र करने के लिये अन्तर के अभ्यास में उससे बहुत सहायता मिलेगी अर्थात अन्तर का सतसंग या अभ्यासी किसी प्रकार ठीक हो सकेगा और भविष्य में धीरे धीरे उन्नति होती जावेगी। मन और सुरत नौ द्वारों से झांक कर इस लोक में भोगों में फंस गई।
9 विदित हो कि सुरत की धार प्रथम मन के स्थान पर और फिर वहां के अनेक धाराओं में विभाजित होकर इन्द्रिय घाट पर बैठी। इन्द्रियों के स्थान से धारायें जारी हुई और उनका सम्बन्ध उस संसार की रचना भोगों और पदार्थो के साथ हुआ। मन प्रत्येक इन्द्रिय द्वार पर अलग-अलग भोगों का रस और आनन्द लेकर प्रसन्न रहने लगा।
10 प्रत्येक इन्द्रिय का रस भारी हैं मन सर्व अंग करके इन रसों का प्रेमी और वशीभूत हो गया है। उसका ध्यान इन द्वारों के द्वारा बाहरी पदार्थों और अनेक वस्तुओं में अत्यन्त दृढ़ता के साथ जम गया है यहां तक कि इन पदार्थों और वस्तुओं की दशा बदलने में मन की भी दशा बदल जाती है। उस इच्छा को यदि कोई हटाना चाहे तो वह नहीं हटती अपितु बल और प्रभाव डालने पर मन को अत्यन्त कष्ट होता है।
11 ये धारायें जो इन्द्रिय द्वारों से निकलकर अनेक जीवों और वस्तुओं में बंध गई हैं, मन के बांधने के लिये मानो बेड़ियां बन गई हैं स्वभावतः ऐसी कठोर और दृढ़ हो गई हैं कि उनको हटाने या तोड़ने में मन को अधिक कष्ट होता है। यदि स्वभाविक रूप से कोई बंधन एकाएक ढीला होता है या टूट जाता है तो मन अत्यन्त चिंतित और उदास हो जाता है, रोता है, चिल्लाता है और झींकता है।
12 संसारियों की समझ ऐसी ओछी होती है कि जिस किसी के ऐसे बन्धन अधिक और बलवान होते हैं, उसी को वे संसार में भाग्यवान सुखी समझते हैं। वह व्यक्ति स्वयं भी अपने बन्धन पर अपने को बड़ा भाग्यवान समझता है और उन्हें बहुत प्रसन्नता के साथ झेलता है। हृदय में उनको स्वीकार करके दिन प्रतिदिन उनकी अधीनता चाहता है। यद्यपि प्रतिदिन धक्का और झटका खाता है फिर भी उसी नशें में मतवाला और बेसुध रहता है कि कुछ भी भय और चेतना नहीं रखता। कुछ भी सोच विचार नहीं करता कि मैं किस विपत्ति में फंस गया हूं भविष्य में क्या होगा और कैसे महान कष्ट उठाने पड़ेंगे।
13 जब कभी ऐसे जीव को कोई परमार्थ के वचन सुनाता है, उनको बुरी गति से अवगत कराता तथा उनके वर्तमान रहन सहन से भविष्य में उनसे प्राप्त होने वाली दशा का वर्णन करते हैं तो वे आश्चर्य करके उसके वचनों को ध्यान पूर्वक नहीं सुनते अपितु वह वचन उनके बहुत बुरे और कठोर प्रतीत होते हैं। कारण यह होता है कि उनमें उनके भोगों, प्रिय सम्बन्धियों और पदार्थों के नाशमानता तथा उनसे प्रीति और बन्धन स्थापित रखने की जो जो हानि होती है उनका वर्णन रहता है।
14 यद्यपि ये लोग रोग, शोक, मरी और मृत्यु इत्यादि के दृश्य इस संसार में प्रतिदिन अपनी आंखों से देखते रहते हैं और जीवों के नाना प्रकार के दुःखों, कष्टों और पीड़ाओं से व्यथित भी देखते रहते हैं किन्तु फिर भी उनके हृदय पर इन बातों का बहुत कम प्रभाव होता है। वे कभी इस बात का सोच विचार नहीं करते कि एक दिन इस शरीर को संसार, परिवार, कुटुम्ब, घर बार, जगह सामान आदि सभी को छोड़कर अवश्य जाना पड़ेगा। उस समय इस मन पर कितना कठोर आघात लगेगा, भविष्य में उन्हें कहां जाना होगा, और उनकी क्या दशा होगी अथवा क्या सुख अथवा दुख प्राप्त होगा। इससे इस जीवन में ही उसका कुछ प्रबन्ध करना चाहिए।
15 जो जीव संसार में उत्पन्न होते हैं प्रारम्भ में सब भोले और अज्ञान होते हैं। परन्तु संगत करके अनकी दशा और अवस्था बदलती जाती है। तात्पर्य यह है कि जैसी उन्हें संगति मिलती है और जिन दशा का वर्णन सुनते हैं, जिन वस्तुओं में लोगों के भाव और प्रलोभन देखते हैं, उसी के अनुसार उनकी भी इच्छायें होने लगती हैं, उसकी प्राप्ती के लिये यत्न भी होने लगते हैं। यदि यत्न में सफलता प्राप्त हो गई तो मन प्रसन्न हो जाता है। अन्यथा दुखी हो जाता है।
16 इधर परमार्थ की यह दशा हो गई कि मन बुद्धि से रचे हुए अथवा ईश्वर देवता महात्मा के जारी किए हुए अनेक मत इस संसार में फैल गए हैं। हर एक अपने अपने विचार और अनुभव, अपनी इच्छा और पहुंच के अनुसार अपनी रीति से वर्णन करता है कि अमुक अमुक कार्य करने से भविष्य में सुख की प्राप्ति होगी अथवा किसी देवता या ईश्वर या महात्मा की भक्ति करने से अमुक अमुक लाभ होंगे। अब बेचारे जीव चिंतित होते हैं कि किसका कहना माने और किसका ना मानें। अतएव सबके सब अपने जाति और वृद्धों के चाल ढाल और कर्म के अनुसार ही थोड़ा बहुत कर्म उपयोग में लाने लगते हैं। उनके हृदय में किसी पूरे सच्चे ज्ञान बताने वाले को ढूढ़ने अथवा पाने की इच्छा नहीं रह जाती। यदि किसी ने अपनी बुद्धि और विद्या के अनुसार उनको ढूढ़ा भी तो विद्वानों के ग्रन्थों और पुस्तको को पढ़कर गलत मार्ग धारण करके भारी भूल में पढ़ जाते हैं और वहां से उनका निकलना अत्यन्त कठिन हो जाता है।
17 तात्पर्य यह है कि सच्चे स्वामी और परम प्रभु का पता और भेद किसी को न मिल सका, न सच्चा और सीधा मार्ग अपने निज घर में जाने का जिससे आवागमन और देह धारण करके सुख-दुख भोगने से छुटकारा हो, मालूम हो सका फिर जब जीव मन और बुद्धि की उपजाई हुई चालों में जिससे भूल और भ्रम नहीं मिट सकते न सुख दुख के जाल से छुटकारा सम्भव हो, फंस गये।
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