*JaiGuruDev | Aapke Prashnottar* [14]

●● जयगुरुदेव ●●
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*प्रश्न ७९. स्वामी जी! जो शाकाहारी नहीं है, ऐसे सगे सम्बन्धियों को कैसे बचाया जा सकता है ?*

उत्तर- ऐसे मौकों पर तुम्हें मायूस नहीं होना चाहिए बल्कि परमात्मा का शुक्र करना चाहिए कि उन लोगों की वजह से तुम्हें गुरु के और निकट आने की प्रेरणा मिलती है।  सत्संगियों के लिए यह जरूरी है कि वे अन्तर में सांसारिक झमेलों से अलग रहें। यह अच्छा ही होगा कि तुम ऐसे सामाजिक समारोहों से दूर रहो क्योंकि ऐसे मेलजोल से परेशानी और वक्त की बर्बादी के सिवाय और कुछ प्राप्त नहीं होता। 

भजन सुमिरन के समय चेतन अवस्था में पहुंचने और ब्रह्मवाणी अथवा आसमानी आवाजों को सुनने के लिए सुरत (जीवात्मा) को तीसरे तिल पर केन्द्रित करना बहुत जरूरी है। वहां पहुंचने पर तुम्हें अपने शरीर और आसपास के वातावरण का कोई अभाव नहीं होगा। जब तक इस प्रकार अन्दर परम चेतनता प्राप्त नहीं होती, कर्मों के फल से बचना सम्भव नहीं है। गुरु का प्रकाशमय स्वरूप इस सूक्ष्म मण्डल में जीवात्मा देखती है।


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*प्रश्न ८०- स्वामी जी! क्या अण्डा मांसाहारी है ?*

उत्तर- हाँं! अण्डा खाने वालों को यह नहीं मालूम कि कितनी गन्दी वस्तु है। रजो धर्म का खून इकट्ठा होकर जमा होता है उसी को लोग खा जाते हैं और अनेक बीमारियों के शिकार हो जाते हैं। अण्डा शरीर के खून को गर्म कर देता है फिर इंसान की इन्द्रियां चलायमान हो जाती हैं। और पाप कर्म बन जाते हैं। मुर्गी पालन केन्द्र हो अथवा मछली पालन केन्द्र हो ये सब योजनाएं हत्या के लिए प्रोत्साहन देती हैं। जीव हिंसा का पाप तो लगता है। 

हिंसा करने वाले को नरकों में भारी यातनाएं दी जाती हैं । 
जो सन्तमत की साधना करते हैं और उनकी दिव्य आंख यानि जीवात्मा की आंख खुल जाती है, उन्हें सब कुछ ज्यों का त्यों दिखाई देता है। सन्तों ने नरकों के दृश्यों को देखा तब अपनी पुस्तकों में लिखा। 
कबीर साहब ने कहा है किः 
तिल भर मछली खाय कर कोटि गऊ दे दान।
काशी करवट ले मरे निश्चय नर्क निदान।।


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*प्रश्न -८१ स्वामी जी! मानव जीवन को अनमोल क्यों कहा गया है ?*

उत्तर- मनुष्य सृष्टि की एक अद्भुत रचना है। वह अपने साथ केवल अपने पिछले इतिहास को ही नहीं लिए चलता बल्कि सारी सृष्टि, दृश्य तथा सबका सृष्टिकर्ता उसके अन्दर है। साथ ही उसे अपने अन्दर की सभी वस्तुओं को देखने तथा अपने सृष्टिकर्ता के साथ एकात्कार होने की शक्ति प्राप्त है।

खोज हमें अपने अन्दर ही करनी है और इसमें खर्च भी नहीं करना पड़ता । सभी चीजें मन के पर्दे के पीछे हैं। जब मन शान्त कर लिया जाता है तब उसके पर्दे के पीछे जो कुछ भी है वह दिखलाई देने लगता है।  मन जो सदा बाहर भटकता रहता है और सोते जागते कभी भी अपने केन्द्र तीसरे तिल में नहीं टिकता, उसे अपने केन्द्र स्थान में टिकने का अभ्यास कराना होगा। फिर उसे बाहर दौड़ने के बदले भीतर तीसरे तिल में देखने की आदत डालनी होगी।

यह आसान काम नहीं है। लेकिन जैसे अन्य आदतें अभ्यास तथा सच्ची लगन से बनाई जाती हैं उसी प्रकार मन को भी इस नये पथ पर प्रेम, विश्वास, सच्ची लगन के साथ चलाना है ।

यह मार्ग अभ्यास का है। इसमें मन के साथ लड़ाई करनी पड़ती है। धीरे- धीरे लेकिन लगातार कोशिश करने वाला विजयी होता है। 

मनुष्य शरीर अगर बेकार चला गया और लक्ष्य की प्राप्ति नहीं हुई तो जीवात्मा नीचे चौरासी लाख योनियों में उतर जाती है फिर यह मनुष्य शरीर युगों युगों तक नहीं मिलता। इसीलिए इसको अनमोल कहा गया है।


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*प्रश्न - ८२ स्वामीजी! परमार्थ के रास्ते पर चलने के लिए मनुष्य को क्या करना चाहिए ?*

उत्तर- सत्संगी को रात -दिन, सोते -जागते अपने गुरु के प्रति प्रेम ताजा रखना चाहिए। जब आत्मा तीसरे तिल पर अपनी बैठक बना लेती है तब यह सदा जाग्रत अवस्था में रहती है और शरीर के आंखों के नीचे आने के बदले सदा ऊपर को ही चढ़ाई जारी रखती है।

 कहने का मतलब यह है कि शरीर का वह केन्द्र या भाग जिसमें आत्मा एकाग्र होती है उस समय क्रियाशील हो जाता है। आत्मा जब आंखों के ऊपर के केन्द्रों में चली जाती है। तब निचले चक्र सो जाते हैं। जहां तक आंखों से ऊपर वाले केन्द्रों का सवाल है वो जाग्रत अवस्था है और उसके सामने यह सारी दुनिया सोई हुई है।  इसलिए साधक को तीसरे तिल में अपनी बैठक बना  लेनी चाहिए, जिससे उसकी चेतन अवस्था बनी रहे।


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*प्रश्न ८३  स्वामी जी! अगर कोई सत्संगी गलत रास्ते पर चला जाता है तो उसका क्या होगा ?*

उत्तर - अगर कोई सत्संगी अपने मार्ग से हट जाता है तो यह उसकी बहुत बड़ी हानि है। एक दिन उसे पता चलेगा कि इस गफलत के कारण उसे कितनी बड़ी हानि उठानी पड़ी। 

सत्संगी जब भजन करता रहेगा और शब्द धुन को पकड़े रहेगा तब काल शक्ति के धोखे से बचा रहेगा। कबीर साहब का एक शिष्य जब फिर मांस खाने लगा तो नरक चला गया और आज भी वह नरक की ज्वाला में वह भोग रहा है। 

सत्संगी अगर मांस खाता है तो यह सबसे बड़ा अपराध है। गुरु तो दया करते हैं किन्तु यदि जीव न माने तो वो कुदरत के नियम में दखल नहीं देते।  कहा भी है किः
*गुरु माथे से ऊतरे, शब्द बिहूना होय।*
*ताकों काल घसीटिहें, रोक सके न कोय।।*

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जयगुरुदेव ●
शेष क्रमशः पोस्ट न. 15 में पढ़ें  👇🏽

त्रिकालदर्शी संत सतगुरु बाबा जयगुरुदेव जी महाराज 

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