कहानी संख्या 14.
*भूखे को भोजन देने का महत्व*
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एक साहूकार अपने धन से बहुत सा परोपकार करता था। अधिक समय गुजरने पर वह समय के चक्कर में आकर गरीब हो गया। स्त्री बच्चे मुहताजी में रहने लगे।
किसी-किसी दिन भोजन भी नसीब नहीं होता था। दुःख से बहुत दुखी थे।
दोनों प्राणी सोचने लगे कि भगवान, क्या हमारा दिन अच्छा भी आयेगा? परन्तु अच्छा दिन नहीं आया।
जिसके राज्य में वह रहता था वह राजा सबका पुण्य अपने धन से खरीदा करता था। स्त्री ने अपने पति साहुकार से बात की कि हमारे बच्चे बहुत दुःखी हैं। आप क्यों न ऐसा करें कि जो पुण्य हमने अपनी सारी उम्र में किया है उसका फल चलकर इसी राजा से ले आवें।
स्त्री और साहूकार राजा के पास गये। राजा ने कहा कि राजन मैं अपना पुण्य बेचने आया हूं।
राजा ने कहा कि आप इस शीशे के सामने खड़े हो जायें, ताकि आपको मालूम हो कि कितना पुण्य है और कितना आप बेचना चाहते हैं।
साहूकार और उसकी स्त्री शीशे के सामने खड़े हुए। तब उन्होने देखा कि उनका कुछ भी पुण्य उस शीशे में न निकला।
स्त्री बहुत दुःखी हुई कि इतना करते हुए भी हमारा कुछ भी पुण्य न निकला अब क्या करें।
एक दिन उनके बच्चे भूख से पीड़ित और खुद स्त्री पुरुष दुःखी थे। एकाएक एक आदमी उन्हें रोटी दे गया।
जब स्त्री पुरुष उसको खाने को बैठे तो बच्चा रो रहा था। बच्चे को एक टुकड़ा दे दिया। उसी समय एक कुत्ता भूखा आ गया।
स्त्री ने पुरुष से कहा कि हमारी तरह यह भी भूखा है इसमें परमात्मा की आत्मा है इसको एक टुकड़ा दे देना चाहिए।
अपनी भूख को रोक दुखी कुत्ते को टुकड़ा दे दिया और आप भूखे रहे।
क्या करें, अपनी वेदना की तरह सेठ और उनकी धर्म देवी ने कुत्ते की भूख को मिटाया। वह कुत्ता खाकर चला गया।
कुछ दिन बीते स्त्री पुरुष ने बात की अब ऐसा करें कि फिर से राजा के पास चलकर देखा जाय यदि भूल से पुण्य बन गया हो तो उसका फल ले लिया जावे।
साहूकार फिर राजा के पास गया और कहने लगा कि अब हमारे पुण्य को लिया जावे। राजा ने कहा कि शीशे के सामने खड़े हो जायं। स्त्री पुरुष साहूकार उस शीशे के सामने खड़े हुए तो देखते हैं कि भूख से व्याकुल होकर रो रहे हैं, उसी समय एक रोटी किसी ने दे दिया।
उसको खाने ही जा रहे थे कि एक कुत्ता भूखा आ गया। सेठ जी अपनी भूख को रोककर उस संतप्त भूखे कुत्ते को अपनी हक में से एक टुकड़ा दे रहे हैं।
यह एक पुण्य बना।
राजा ने पूछा यह पुण्य सब दोगे?
साहूकार को मालूम न था कि हमारा पुण्य इतना हो सकता है। उसने कहा कि हम सब देना चाहते हैं।
जब पुण्य तराजू पर तौला गया तो राजा का सारा धन चढ़ गया और पुण्य का पलड़ा भारी रहा।
भूखी आत्मा को खिलाने का पुण्य अपार होता है।
इस वास्ते भूखे को जरूर देना चाहिए।
साहूकार की समझ में आया कि ऐसा पुण्य दुख उठाकर और दूसरी भूखी आत्मा को शीतलता पहुंचाई जावे, कभी नहीं किया।
राजा का धन उस साहूकार के पुण्य के तराजू पर चढ़ गया उसे भी दुख हुआ, वह तो पुण्य खरीदा ही करता था, साहूकार उस को लेकर बहुत खुश हुआ और सारा धन भूखी आत्माओं की सेवाओं में अभिमान को त्याग कर लगा दिया।
अपना न खाकर दूसरों की सेवा की अतः साहूकार स्वर्ग लोक को प्राप्त हुआ।
आज की भौतिक दुनिया में लोगों की आंखों की शरम खत्म हो गई।
प्रत्येक स्वभाव के लोग आपसी बर्ताव, सदाचारी नहीं रखते हैं।
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जयगुरुदेव ●
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