*【 आपके पश्नों के उत्तर 】* [13]

*प्रश्न ७१- महाराज जी! मेरी कुछ ऐसी आदतें पड़ गई हैं जो कोशिश करने पर भी नहीं छूटती।  क्या करें ?*

उत्तर- मन की आदतें पिछले जनम से पड़ी हुई हैं। भरपूर प्रयत्न करने के बाद भी आसानी से आदतों का छूटना संभव नहीं हो पाता। यह कोई एक दिन, महीने और साल का काम नहीं है। गुरु की दया से ही स्वभाव में परिवर्तन आता है। 

दृढ़ संकल्प का होना जरुरी है। वैसे यह जीवन भर की लड़ाई है। जिन्होने मन से टक्कर ली है या ले रहे हैं, वे ही जानते हैं कि मन को जीतना कितना कठिन काम है।

तुम्हें रास्ता मिला है तो भजन करो। शब्द से मन वश में होगा। आवाज यानि मधुर संगीत जो आकाश में हो रही है उसे सुनकर ही मन चुप हो जाता है, दूसरा कोई इलाज नहीं। भजन में सब गुण हैं। उसमें आनन्द है, शक्ति है, निर्भयता है। भजन से आत्मा बलवती होती है और फिर वो मन को अपने इशारे पर नचाती है। मन जो इस समय स्वामी बना है फिर वो आत्मा का दास बन जाता है। 

भजन से विचार बदल जाते है।, अच्छे गुण आ जाते हैं, स्वभाव परिवर्तन हो जाता है, सत असत का ज्ञान हो जाता है और अन्ततः वो मालिक जो सबका सिरजनहार है प्राप्त हो जाता है। 

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*प्रश्न- ७२.स्वामी जी! परिवार में विचारों में भिन्नता होने के नाते मां बाप अलग रहने लगे, क्या करें ?*

उत्तर- यह तुम्हारे परिवार का मामला है, मगर इतना जरुर कहूंगा कि अगर तुम अपने माता- पिता को घर में रखे रहते और अन्त तक उनकी सेवा करते रहते तो इससे तुम्हारा पुत्र सम्बन्धी कर्तव्य पूरा हो जाता क्योंकि उन्होने अबोध बचपन अवस्था में तुम्हारा पालन पोषण किया था। 

किसी भी बात पर आंख मूंद कर विश्वास करने के बजाय उसकी सत्यता का पता लगाना चाहिए। अगर बात गलत निकली तो जीवन के अन्तिम श्वांस तक पछतावा होता रहता है। 

पुत्र के प्रति मां बाप की पीड़ा का एहसास मां बाप बनने पर ही होता है।
तुम्हें मिलना चाहिए, जाकर मनाना चाहिए और प्रयास करना चाहिए कि वे पुनः साथ रहें। उनका थोड़ा जीवन है और जो भी जरुरी सेवा हो उनकी अपना कर्तव्य समझकर तुम्हें करनी चाहिए। सेवा करने पर जो उनके ह्रदय से दुआयें निकलेंगी वो तुम्हें जीवन में शांन्ति प्रदान करेंगी।

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*प्रश्न ७३-  स्वामी जी ! मैं डाक्टर हूँ। इलाज करते वक्त मुझे किन बातों का ध्यान रखना चाहिए जिससे भजन न प्रभावित हो?*

उत्तर-  मरीजों को दवा दें सच्चाई और ईमानदारी के साथ। सेवा भाव बना रहे। अगर किसी को जरूरत हो तो उसकी मदद अवश्य करें जितनी कर सकें। ठीक होना ठीक न होना मालिक की मौज पर उसके प्रारब्ध पर छोड़ें। आपको अपना कर्त्तव्य करना है। जो कुछ भी होगा मरीज के प्रारब्ध के अनुसार होगा। उसकी चिन्ता से अपने मन पर अधिक बोझ मत डालिए। 

आपकी दवा और सेवा ही उसकी सहायता कर सकती है, आपकी चिन्ता से उसका कोई लाभ नहीं। मरीज के प्रति सदा दया भाव बना रहे।

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*प्रश्न ७४- स्वामी जी! मैं बीमार हूं दया कर दीजिए।*

उत्तर- बीमारी बुरे कर्मों के कारण होती है। प्रारब्ध कर्म तो भोगने ही पड़ते हैं, तुम्हें यह सोचना चाहिए कि बीमारी के द्वारा बुरे कर्म कट रहे हैं। बीमारी बोझ को कम करती है, हल्का करती है और कर्ज चुकाती है। गुरु अपनी दया से आठ आने बारह आने कर्मों को माफ कर चार आने भुगतान कराते हैं, इसमें भी तुम चिल्लाते हो।

जब बच्चा गन्दा हो जाता है मां उसे साफ करती है, नहलाती है। भले ही बच्चा कितना भी क्यों न रोये और चिल्लाये। इसी प्रकार बीमारी के द्वारा गुरु हमें साफ करते रहते हैं। गुरु की महान दया का परिचय तुम्हें तब मिलेगा जब तुम भजन और ध्यान नित्य नियम से करोगे। बीमारी की अवस्था में हर वक्त अपने ख्याल को अन्तर तीसरे तिल में जमाये रक्खो। तीसरे तिल में बैठे गुरु हर क्षण तुम्हे देखते रहते हैं।

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*प्रश्न ७५- स्वामी जी ! लड़की की शादी की चिन्ता मुझे भजन करने नहीं देती, क्या करुं ?*

उत्तर - यह दुनिया समस्याओं से भरी हुई है। संसार संघर्ष का क्षैत्र है। यहां न कभी शान्ति रही है न कभी रहेगी। यहां रोज कोई न कोई समस्या बनी ही रहेगी। जिस स्थान पर मन और माया का जोर है वहां शान्ति कभी नहीं रह सकती। कभी परिवार के झगड़े, कभी जातियों के झगड़े और दुःख यहां बने ही रहेंगे। 

आत्मा को शान्ति तभी  मिलेगी जब वो किसी ऐसे महापुरुष की छत्रछाया में बैठी हो जिसने उस प्रभु का दर्शन दीदार किया हो और उसका रूप बन गया हो।

शादी की चिन्ता भी करो और साथ ही भजन करो तो काम आसान हो जाएगा। अपना प्रयास और कर्तव्य करना चाहिए। प्रारब्ध पर विश्वास रखो। वक्त आ जाएगा तो सम्बन्ध होने में देर नहीं लगेगी।
बराबर आते जाते रहना चाहिए।

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*प्रश्न ७६- स्वामी जी ! शिवनेत्र किसे कहते हैं ?*

उत्तर- जीवात्मा में एक आंख है उसी को शिवनेत्र कहते हैं। लोग शिवजी को कहते हैं कि उनका शिवनेत्र खुला तो काम भस्म हो गया। काम कहते हैं कामनाओं को । शिवनेत्र खुलने पर कामनाएं समाप्त हो जाती हैं। काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार ये पांचों भूत मूर्छित होने लगते हैं। आज भी शिवनेत्र है और सबके पास है, चाहे इंसान हो, पशु हो पक्षी हो या अन्य कोई जीव हो।

सन्तों ने तीसरा नेत्र खोलने का बड़ा सुगम मार्ग बताया है। आज भी इस घोर कलयुग में लोगों का तीसरा नेत्र खुल सकता है। जब जीवात्मा की आंख यानि तीसरा नेत्र खुलता है तो देवी देवताओं, स्वर्ग बैकुण्ठ सब कुछ दिखाई देता है। जीवात्मा अन्दर में घाट पर बैठी है और ऊपर जाने का रास्ता अन्दर में ही है। बाहर से दिखाई देने वाला आसमान अलग है और वहां कभी अन्धेरा होता ही नहीं। वहां सदा प्रकाश छाया रहता है।

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*प्रश्न ७७- स्वामी जी! सन्तमत किसे कहते है ?*

उत्तर- मत कहते हैं रास्ते को। सन्तों का मार्ग बिल्कुल न्यारा है। सन्त देवी देवता, ईश्वर, ब्रह्म, पारब्रह्म, सबके मालिक होते हैं और उनके हुक्म को कोई टाल नहीं सकता। 

सन्त सत्तदेश, सत्तलोक के वासी होते हैं जो अविचल धाम है। वहां कभी परिवर्तन नहीं होता। सारी जीवात्मायें उसी देश से आई हुई हैं। सन्तों के यहां अमीर गरीब, ज्ञानी अज्ञानी, का कोई सवाल नहीं उठता। 
उनके पास शब्द का नाम का खजाना होता है। इसी नाम की महिमा की गई है। नाम बोलता है, सुनता है देखता है। सन्त शब्द स्वरूप  होते हैं और हर जीव के साथ अंग संग रहते हैं। नाम को जानने के लिए उसे प्राप्त करने के लिए ऐसे महापुरुषों की खोज करनी पड़ती है जो इस रास्ते को जानते हों। 

ऐसे सन्त जीवों को रास्ता बताकर, नाम भेद बताकर अर्थात नामदान देकर उन्हें तमाम रूहानी मण्डलों स्वर्ग, बैकुण्ठ, ईश्वर धाम, ब्रहमधाम आदि स्थानों को पार कराकर सत्तलोक में पहुंचा देते हैं। ऐसे सन्तों की महिमा की गई है। सन्त जन भूत, भविष्य और वर्तमान का ज्ञान रखते हैं। सन्तमत की साधना में जब आन्तरिक अनुभव खुलता है तब सन्त के बारे में धीरे धीरे परिचय होने लगता है। तीन चीजें सच्ची हैं। पहला सन्त सतगुरु, दूसरा उनका सत्संग, तीसरी नाम। बाकि सब मिथ्या है।

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*प्रश्न ७८-  स्वामी जी! मौत किसे कहते हैं ?*

उत्तर - मरने के बाद नाड़ी में सर्दी मालूम होती है। उस समय पर प्राण और पांचों सूक्ष्म तत्व और जीवात्मायें ये सब जिस रास्ते से दाखिल हुए थे उसी रास्ते से बाहर निकलना चाहते हैं। जीवात्मा के आने और जाने का रास्ता दोनों आंखों के पीछे से है। उसी रास्ते से आकर यह सारे शरीर में फैल गई है। उसी के प्रकाश से ये सारा शरीर प्रकाशित है। 

जीवात्मा की किरणें जो पैर तक फैली हुई हैं मौत के वक्त सिमटने लगती हैं। जब ये किरणें आंखों के पीछे इकट्ठी हो जाती हैं तब शरीर चेतना रहित और बेसुध हो जाता है। इसे शरीर और दुनिया की खबर नहीं रहती।

उस वक्त काल कान के रास्ते से प्रवेश पाकर जीवात्मा को पकड़ना चाहता है। दाई तरफ गुरु की बैठक होती है। गुरु जीवात्मा को जो एक प्रकाशवान गोले के समान होती है तुरन्त पकड़ लेते हैं।  फिर काल निराश होकर वापस चला जाता है।
गुरु अपने में जीवात्मा को मिलाकर ऊपर के रूहानी देशों  की ओर चल देते हैं। जैसे मछली बंशी से खिंची आती है उसी प्रकार जीवात्मा को गुरु खींच लेते हैं। फिर धर्म राय के दरबार में कर्मों का लेखा जोखा होता है और गुरु फिर उस जीवात्मा को मनुष्य शरीर दिलवा देते हैं, चौरासी लाख योनियों अथवा नर्कों में नहीं जाने देते।

जयगुरुदेव ●
शेष क्रमशः पोस्ट न. 14 में पढ़ें  👇🏽
अंतर्यामी महापुरुष बाबा उमाकान्त जी महाराज 

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Jaigurudev