*प्रश्न ५२. स्वामी जी ! मन कितने प्रकार का होता है ?*
उत्तर - मन तीन प्रकार का होता है- पिण्डी मन, ब्रह्मांडी मन तथा निज मन |
● पिण्डी मन शरीर में तीसरे तिल के नीचे वाले भाग में काम करता है| इसकी वासनाएं मलीन होती हैं तथा इसकी प्रगति बाहर मुखी और नीचे की और होती है|
इसका संबंध इंद्रियों के साथ होता है |
आत्मा का इसके साथ गहरा संबंध होने से आत्मा नीचे आ जाती है और मैली हो जाती है|
● ब्रह्मांडी मन की इच्छाएं अच्छी होती हैं और इस की प्रवृत्ति अंतर्मुखी और ऊपर की ओर होने के कारण यह आत्मा को ऊपर उठाने में सहायता देता है | तथा यह ब्रह्मांड में काम करता है |
● निज मन दूसरे पद यानी त्रिकुटी का एक कतरा है और इसके अंदर त्रिकुटी के नीचे की समस्त रचना का बीज है | सत्संगी को इन तीनों मन पर विजय प्राप्त करनी पड़ती है तभी ऊपर आगे का रास्ता साफ होगा|
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*५३. स्वामी जी ! शिव की पूजा करनी चाहिए या विष्णु भगवान की ? इनमें से कौन बड़ा है ?*
उत्तर - पिण्ड, अण्ड और ब्रह्मांड इन तीनों लोकों के मालिक निरंजन भगवान हैं | यह सहस्रदल कमल में रहते हैं जो स्वर्ग और बैकुंठ से बहुत ऊपर है | इन्हीं निरंजन भगवान को हिंदू ईश्वर कहते हैं परमात्मा कहते हैं, मुसलमान खुदा कहते हैं और ईसाई गॉड कहते हैं | निरंजन भगवान ने सृष्टि का कार्यभार अपने तीनों पुत्रों ब्रह्मा विष्णु और शिव को सौप रखा है| इन तीनों की माता आद्या महाशक्ति हैं जो निरंजन भगवान की अर्द्धांगिनी है | ब्रह्मा को उत्पत्ति का विष्णु को पालन का और शिव को संहार का काम सौंपा गया है | यह अधिकारी हैं और इन्हें अपनी ड्यूटी बजानी पड़ती है | यह जीव का कल्याण नहीं कर सकते |
ब्रह्मा सबसे बड़े पुत्र हैं किंतु एक बार माता से इन्होने झूठ बोला था इसलिए मृत्यु लोक में इनकी पूजा नहीं होती | क्योंकि आद्या महाशक्ति ने इन्हें श्राप दे दिया था| संत सदगुरु जो सत्यलोक से आते हैं जीवो को जगाने के लिए वह ईश्वर, ब्रह्म, परब्रह्म सबके मालिक होते हैं | वह तुम्हें सब से मिला सकते हैं और जीवात्माओं के सच्चे हितैषी व हमदर्द होते हैं| उनकी पूजा अगर कर लिया तो सब की पूजा हो गई | महात्माओं ने कहा है कि *गुरु पूजा में सब की पूजा |* फिर कहा है कि -
*गुरु गोविंद दोनों खड़े काके लागू पाय,*
*बलिहारी गुरु आपने जिन गोविंद दियो लखाय ||*
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*प्रश्न ५४. स्वामी जी ! संत चमत्कार क्यों नहीं दिखाते ?*
उत्तर - परमात्मा से मिलने और उसका दर्शन कराने की जो बात करें उसे तुम क्या कम चमत्कार समझते हो | संत सर्वसमर्थ होते हैं | उन से बड़ा कोई नहीं | ईश्वर ब्रह्म पारब्रह्म सब उनकी मर्जी के अंदर रहकर काम करते हैं | संत अगर अपनी शक्तियों का प्रयोग करने लगे तो सारी दुनिया उनके पीछे दौड़ने लग जाएगी| इसलिए करामात दिखाकर वह लोगों को प्रभावित नहीं करते हैं| काल के देश में जन्म मरण के चक्कर से जीवो को छुड़ाकर वापस उन्हें उनके घर सत्य देश अथवा सत्य लोक में पहुंचाना ही संतों का प्रमुख उद्देश्य होता है| जब तक कर्मों के लेन देन का हिसाब काल भगवान के देश का चुकता नहीं होता तब तक कोई भी जीव उनके दायरे से बाहर नहीं जा सकता |
इसलिए संत सेवा करा कर ध्यान भजन करा कर कुछ कर्मों को भुगताकर जीव को बंधन मुक्त कर देते हैं | किसी जीव पर यदि वे प्रसन्न हो जाएं तो काल भगवान के यहां कर्मों का खाता जो रखा हुआ है उसे बे फाड़ भी देते हैं | यह काम अवतारी शक्तियां नहीं कर सकती क्योंकि वे स्वयं कर्म के दायरे में रहती हैं | राम को बाली को मारने का बदला द्वापर में चुकाना पड़ा और बहेलिया ने छुपकर कृष्ण को तीर मारा था| और उसी वेदना में उन्होंने शरीर त्याग दिया | जो जिस रूप में कर्म करता है उसको उसी रुप में बदला चुकाना पड़ता है यही यहां का विधान है | और संतजन साधारणतया उसमें छेड़छाड़ नही करते।
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*प्रश्न ५५. स्वामी जी ! अवतारी शक्तियां भूमंडल पर क्यों आती हैं?*
उत्तर - जब संसार में पाप बहुत बढ़ जाता है, नर-नारी, बच्चे-बच्चियां अनैतिक कर्म करने लगते हैं | घर की बाहर की सारी मर्यादाएं टूटने लगती हैं | लोग ईश्वर की तरफ से विमुख होने लगते हैं और अधर्म का रास्ता अपना लेते हैं, तब ऊपर के मंडलों से एक जीवात्मा ईश्वरीय बोध में यहां भेजी जाती है | वह काल का रुप होती है | ऐसी शक्तियों का काम अधर्मियों का विनाश करना और धर्म की पुनः स्थापना करना होता है |
इसी काम के लिए त्रेता में राम और द्वापर में कृष्ण भेजे गए थे | इन्हें जीव को मुक्ति और मोक्ष देने का अधिकार नहीं था | ऐसी शक्तियों से जो जीव प्यार करते हैं उन्हें भौतिक लाभ तो मिल जाता है किंतु आत्म कल्याण नहीं हो सकता | उद्धव कृष्ण के बड़े प्रेमी थे और बराबर साथ रहते थे | जो कृष्ण ने कहा उन की आज्ञा पालन किया|
जब कृष्ण के जाने का समय आया तो उन्होंने कहा कि भगवान मुझे भी अपने धाम ले चलिए तो उन्होंने कहा कि तुम्हें योग करना होगा | मुक्ति मोक्ष ऐसे नहीं मिला करती | ऊधो रो पड़े और बोले कि आपने पहले नहीं बताया अब तो मैं बूढ़ा हो चला हूं, योग और तप कैसे करूंगा| कहने का मतलब यह है कि कृष्ण ने कहा कि अगर तुम्हें मोक्ष और मुक्ति को पाना है तो संतों के पास जाओ | मुक्ति और मोक्ष उन्हीं के अधीन है | उनके द्वारा जीव सहज ही में मुक्ति और मोक्ष को प्राप्त कर सकता है|
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*प्रश्न ५६. स्वामी जी ! दुनिया कहती है कि मरने के बाद मुक्ति मिलेगी तो क्या यह सच है ?*
उत्तर- यह सच नहीं है | संत ऐसी मुक्ति को नहीं मानते | अगर मैं आज एक रुपया नहीं दे सकता और कह दूं दो चार साल बाद 10,000 दे दूंगा तो क्या भरोसा किया जा सकता है ? इसीलिए जो पूरे संत हैं और आदि से अंत का और अंत से आदि का सब भेद जानते हैं वह कहते हैं कि अगर जीते जी मुक्ति का आनंद नहीं आया तो मरने के बाद कोई भरोसा नहीं | यह झूठी बात है |
जो जीते जी अनपढ़ हैं, वह मरा हुआ भी अनपढ़ ही रहेगा | जीवात्मा का ज्ञान अगर मरने के पहले प्राप्त कर लिया जाए तो मरने के बाद भी वह बरकरार रहेगा | जीते जी मुक्ति को प्राप्त करने के लिए उस गुरु के पास जाना होगा जो जीते जी मुक्त हो चुका हो और रुहानी मंडलों की नित्य सैर करता हो | ऐसा गुरु नाम से, शब्द से, आसमानी आवाज से रूह को जीवात्मा को जोड़ देता है | फिर वह भी आसमानों की सैर करने लगती है और जीते जी अपने प्रियतम को, मालिक को, परमात्मा को, जो सत्य देश में रहता है प्राप्त कर लेती है | यह वह दरबार है जहां तमाम मुक्तियां पानी भर्ती हैं|
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*प्रश्न ५७. स्वामी जी ! फोटो का ध्यान करना चाहिए की नहीं ?*
उत्तर - गुरु की फोटो का ध्यान करना उचित नहीं है | फोटो और असलियत में अंतर है | फोटो जड़ है और गुरु चेतन है| फोटो तुम्हारे और गुरु के दरमियान एक बाहरी वस्तु के रूप में खड़ा हो जाता है | इसलिए गुरु के स्वरूप का ध्यान करना चाहिए| जो नामदान के वक़्त गुरु का स्वरूप तुमने देखा है उसका ध्यान करने से बंधन ढीले होते हैं | फोटो यादगार के लिए है और उसका सम्मान होना चाहिए|
आंखें बंद करके गुरु के चेतन स्वरुप का ध्यान करना चाहिए| आंखों के पर्दे के पीछे गुरु खड़ा है और हर वक्त तुम्हें देखता रहता है| जीवात्मा की आंख बंद है इसलिए तुम नहीं देख पाते हो| प्रयास इस बात का होना चाहिए कि जीवात्मा की आंख यानी दिव्य आंख खुले तभी चेतन सृष्टि में प्रवेश मिल सकता है | गुरु का भौतिक स्वरूप यहां समझाने बुझाने के लिए है| और ऊपरी मंडलो में गुरु प्रकाशमय रूप में मिलते हैं|
स्वरूप वही होता है जैसा तुम यहाँ देखते हो, तभी तो पहचान होती है|
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*५८. स्वामी जी ! ध्यान में कभी प्रकाश दिखाई देता है कभी नहीं और भजन में कभी शब्द सुनाई देता है कभी सुनाई नहीं पड़ता |
उत्तर - तुम प्रगाड़ वासना लेकर संसार में फंसे हुए हो इसीलिए ऐसा होता है | कभी शब्द सुनाई देता है तो कभी नहीं सुनाई देता इसी प्रकार प्रकाश भी कभी दिखाई दिया कभी नहीं दिखाई दिया | जितना ही तुम दुनिया से उदास होंगे उतना ही वासनाएं धराशाई होती चली जाएगी |
दुनिया से उदासीनता और मालिक से मिलने के लिए प्रेम तड़प जरूरी है | जब लगन कम हुई तो भजन में भी कमी आ गई | दुनिया का चिंतन और भजन दोनों का मेल नहीं खाता | संसार में चाहे जितना भी लगे रहो वह तुम्हारे काम आने वाला नहीं | काम बिगड़ गया तो दुख और दुनिया भी हंसती है| परमार्थ के रास्ते पर निर्मल होकर चलोगे तभी काम बनेगा | जब जाने लगे तो सुई की नोक भी यहां से तुम नहीं ले जा सकते | केवल भजन की पूंजी जो इकट्ठा की है वही साथ जाएगी |
इसीलिए भजन पर ध्यान दो वही सार है |
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*प्रश्न ५९. स्वामी जी ! मन मानता नहीं है नाचता रहता है क्या करूं ?*
उत्तर - दोनों आंखों के पीछे तीसरा तिल है | वहां बहुत तेज प्रकाश है | जो यहां सूरज निकलता है उसका प्रकाश कुछ भी नहीं है | तीसरे तल पर सत्य पुरुष की धार आती है | जब तुम मन को चित्त को वहां टिकाओगे तब मन का घाट बदलेगा | मन की निरख परख तुमको ही करनी है कि पहले वह क्या था और अब क्या है | उसमें कितना विवेक आया, कितना ज्ञान आया, कितनी बुराइयां छूटी, कितनी दुनिया से उदासीनता हुई |
गुरु इधर मिलते हैं मानव शरीर में गुरु उधर भी मिलते हैं तीसरे तिल में | वहां गुरु का प्रकाशमय रूप होता है जो अति सुंदर है | बातें भी होती हैं | इसीलिए ध्यान भजन के द्वारा तीसरे तिल पर पहुंचो| फिर मन की भागदौड़ नाचना कूदना सब समाप्त हो जाएगा|
जयगुरुदेव ★
शेष क्रमशः पोस्ट न. 11 में पढ़ें 👇🏽
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