जीव जीवन रक्षक भंडारा 2024 की कुछ रोचक बातें - सतसंग सार वचन (3.)

जयगुरुदेव 

✵ मनुष्य जीवन का परम् लक्ष्य व उसकी प्राप्ति का मार्ग

बड़े भाग मानुष तन पावा। सुर दुर्लभ सब ग्रंथहिं गावा।।

कहा गया कि यह मनुष्य शरीर बड़े ही भाग्य से मिला है। इसको पाने के लिए देवता भी तरसते रहते हैं और यह भी लिखा गया है कि- साधन धाम मोक्ष कर द्वारा। पाई न जेहिं परलोक संवारा।।

अथार्त यही शरीर है जिसमें मोक्ष की खिड़की या दरवाजा है जिससे चाहे तो निकलकर अपने देश अपने मालिक के पास पहुंच सकते हैं। 

जो कुछ पशु पक्षी कर रहे हैं, हम भी अगर वही कर रहे हैं तो हम उनसे किस मामले में बेहतर कहे जाएंगे? वे भी तो भोजन का इंतजाम कर लेते हैं, रहने की जगह बना लेते हैं, बच्चे पैदा कर लेते हैं और उनकी देखभाल कर लेते हैं तो आखिर इस मानव शरीर को पाकर हमें करना क्या चाहिए, हमारा लक्ष्य क्या होना चाहिए?

जीवात्मा जब तक अपने निज घर नहीं पहुँचेगी इसे शाश्वत सुख नहीं मिल सकता। अतः मानव जीवन का असली काम, परम् लक्ष्य यही होना चाहिए कि जीवात्मा काल के कैदखाने से आजाद होकर अपने वतन, अपने मालिक, अपने प्रभु, दयाल के पास पहुँच जाए। 

लेकिन इसके लिए मनुष्य को वक्त के सन्त सतगुरु की जरुरत होती है, क्योंकि बिना सतगुरु के आत्मकल्याण की ओर एक कदम भी नहीं बढ़ा जा सकता है। वक्त के समर्थ सतगुरु से रास्ता लेकर ही जीवात्मा को परमात्मा से मिलाया जा सकता है। 

कहा गया है-
गुरु बिन भवनिधि तरइ न कोई, जौं बिरंचि संकर सम हाई।
अथार्त कोई व्यक्ति ब्रह्मा और शंकर के समान भी हो जाए तो भी बिना गुरु के भवसागर से पार नहीं हो सकता है। इस दुःख भरे संसार में जन्मने मरने की असह पीड़ा से बच नहीं सकता।



✵ गृहस्थ जीवन

पहले के समय में गृहस्थ जीवन स्वर्ग के समान था। लोग बखूबी गृहस्थ धर्म का पालन करते थे। रात को यदि कोई किसी के यहाँ पहुँच जाता, तो वह गृहस्थ प्रसन्न हो जाता था कि उसके यहाँ मेहमान नहीं, भगवान आए हैं। गृहस्थ अपने घर आए मेहमान की अपनी औकात से ज्यादा सेवा करता था। उस समय गृहस्थ जीवन एकदम स्वर्ग जैसा था। सब लोग सुखी थे, मेहनत व ईमानदारी की कमाई में भरपूर बरकत रहती थी।

जो लोग हम पर आश्रित हैं, जिनसे पिछले जन्मों का हमारा लेना-देना यानी कर्म-कर्जा है, उसे भी अदा करना हमारा धर्म होता है। इस संसार में उसी गृहस्थ धर्म का पालन करते हुए इसे स्वप्नवत समझना चाहिए।


✵ गृहस्थ जीवन : प्रभु प्राप्ति के लिए सर्वश्रेष्ठ आश्रम

गृहस्थ आश्रम एक उत्तम और श्रेष्ठ आश्रम है। जो लोग गृहस्थ आश्रम और घर छोड़कर तपस्या करने के लिए बाहर जाते हैं, उनकी तपस्या में पहले की अपेक्षा कहीं ज्यादा विघ्न-बाधाएं आती हैं। 

इसलिए गृहस्थ आश्रम में ही रहिए, अपने माता-पिता, बाल-बच्चों की देखभाल कीजिए, उनकी सेवा कीजिए लेकिन इस गृहस्थ जीवन में अगर इंसान सही तरीके से गृहस्थ धर्म का पालन करे तो थोड़े ही प्रयास से प्रभु प्राप्ति कर सकता है। 

इस समय गृहस्थ जीवन छोड़कर कोई भगवान का दर्शन करना चाहे तो यह असंभव है। आदमी सन्यास लेता है तो परिवार और समाज के साथ उसके कर्म-कर्जे का लेन-देन पूरा नहीं हो पाता है, कर्म उसके बचे रह जाते हैं। क्योंकि मनुष्य जहाँ भी जाता है, शरीर और शरीर की जरूरतें, जैसे - भोजन, वस्त्र, रहने के लिए जगह या अन्य आवश्यकताएँ भी साथ ही रहती हैं। 

अब इसके लिए या तो वह भीख मांगे या किसी अनैतिक ढंग से उन्हें प्राप्त करे। अब यदि वह भीख मांगता है, तो जिससे कोई चीज ली, उसका कर्म-कर्जा उस पर लदेगा। साथ ही,



✵ जैसा खावे अन्न, वैसा होवे मन ।

अगर कहीं दूषित अन्न ग्रहण कर लिया, तो मन भी दूषित हो जाएगा और वह तरह-तरह के दूषित कर्म करने लगेगा। इस तरह से कर्म उतरने के बजाय और चढ़ते चले जाएँगे, जिससे भगवान भी उससे दूर होता चला जाएगा। 

इसके विपरीत गृहस्थ को अगर प्रभु पर भरोसा हो तो मेहनत-ईमानदारी की कमाई से परिवार और समाज का कर्म-कर्जा भी आसानी से चुका सकता है जिससे उसका मन निर्मल और सरल रहता है। 

कहा भी है-
निर्मल मन जन सो मोहि पावा। मोहि कपट छल छिद्र न भावा ।।

तो प्रभु को निर्मल मन ही पसंद है। ऐसे में अगर कोई सन्त-सतगुरु मिल गए और उन्होंने रास्ता बता दिया, तो वह प्रभु को सन्यासियों के अपेक्षा आसानी से पा सकता है। इसीलिए महात्माओं ने गृहस्थ जीवन को सर्वश्रेष्ठ बताया है।


✵ स्वर्ग जैसा गृहस्थ जीवन, नर्क जैसा हो रहा है।

गृहस्थ आश्रम, जिसे स्वर्ग जैसा कहा जाता था, आजकल स्थिर नहीं रह पाता। लड़ाई-झगड़ा घर-घर में हो रहा है। कोई यह कह ही नहीं सकता कि उसके घर में झगड़ा नहीं हुआ। कुछ घरों में तो रोज कुछ न कुछ होता ही रहता है। शादी हुए ज्यादा समय नहीं बीतता है और आपसी झगड़े में तलाक के मुकदमा चालू हो जाते हैं।

सच्चे सन्त का सतसंग नहीं मिलने पर, सही जानकारी न मिलने के कारण लालच, ईर्ष्या, द्वेष, क्रोध और अहंकार इस कदर हावी हो गए हैं कि इंसान गृहस्थ धर्म को ही भूलता जा रहा है, आपसी प्रेम और सहयोग तो कहीं दिखाई ही नहीं देता। दुःखी होकर लोग अपनी जीवन लीला तक समाप्त कर ले रहे हैं। जो कभी नहीं करना चाहिए।

कहा जाता है कि पहले के समय में 'दैहिक दैविक भौतिक तापा, रामराज नहिं काहुहि ब्यापा।' कोई कोढ़ी, अपाहिज, लूला-लंगड़ा, बीमार होता ही नहीं था। 'सब सुंदर सब बिरुज शरीरा' सब स्वस्थ और सुंदर थे, जब समय पूरा हो जाता था तभी इस संसार से जाते थे। 

लेकिन इस समय कोई आदमी यह नहीं कह सकता कि वह कभी बीमार नहीं पड़ा, अब तो किसी का कोई ठिकाना ही नहीं, कब कहाँ शरीर छोड़ दे। सच तो यह है कि ये संसार दुःखों का सागर हो गया है।



✵ गृहस्थ जीवन नर्क जैसा होने का कारण

गृहस्थ जीवन में समस्याओं का प्रमुख कारण सच्चे सन्त के सतसंग का न मिलना है। अगर लोग सन्तों के सतसंग में जाते रहते तो वे सीख सकते थे कि पति-पत्नी, पिता-पुत्र और भाई-भाई के बीच प्रेम और व्यवहार कैसा होना चाहिए। 

पहले लोग महीने या पंद्रह दिन में एक बार नदियों में स्नान करने जाते थे तो वहाँ महात्माओं के आश्रमों में भी जाते थे। महात्माओं के आश्रम ज्यादातर नदियों के किनारे होते थे। लोग वहाँ जाकर दर्शन करते, सेवा करते और सतसंग सुनते। सतसंग से उन्हें पता चलता था कि गृहस्थ जीवन में कैसे रहना चाहिए और आपस में प्रेम और व्यवहार कैसे करना चाहिए।

सतसंग सुनने से लोगों को ईर्ष्या, द्वेष, लोभ, लालच और क्रोध जैसी बुराइयों से छुटकारा मिलता था और शील, क्षमा, संतोष, विरह, विवेक, दया, करुणा जैसे मानवीय गुणों का विकास होता था। आज ये सभी चीजें खत्म हो गई हैं। 



✵ सच्चे सन्त इस धरती पर हमेशा रहते हैं। 

तभी तो कहा गया है-
घिरी बदरिया पाप की, बरस रही अंगार। 
सन्त न होते जगत में, तो जल मरता संसार ।।

अर्थात, पाप की बदरी ने संसार को घेर रखा है और अगर सन्त न होते, तो यह संसार जलकर नष्ट हो जाता।



✵ सुखी गृहस्थ जीवन के सूत्र

गृहस्थ जीवन में छोटी-छोटी कुछ बातों को अपना लिया जाय तो यही गृहस्थ जीवन सुखमय बन सकता है। प्रमुख रूप से संयम और नियम का पालन करें, कम खाएं इससे शरीर निरोगी रहेगा, गम खाएं, कोई कुछ कह दे उसे बर्दाश्त कर लो तो झगडा झंझट से, कोर्ट-कचहरी के चक्कर लगाने से बचे रहेंगे। 

समय रहते बच्चों का शादी-ब्याह कर दें ताकि बच्चे स्वयं अपने लिए रिश्ते न बनाने लगें। माता-पिता की सेवा करें, उनसे कठोर वचन न बोलें क्योंकि आपके बच्चे आपका ही अनुकरण करने वाले हैं। 'संतोषम् परम् सुखं' अतः लोभ और लालच से बचें, लालच में ही लोग ठगी का शिकार हो जाते हैं। जल्दी में ज्यादा कमाने के चक्कर में जो पड़ जाता है वह घर का बचा हुआ भी नुकसान कर बैठता है। 

कोई नया काम-धंधा करना हो तो पहले उसे सीखें और फिर शुरू करें। पार्टनरशिप में कोई काम नहीं करना चाहिए। पार्टनरशिप में विवाद होता ही होता है, अभी निभ गया तो बच्चों के समय में हो जायेगा। जल्दी धनवान बनने के सपने न देखें, अपने प्रारब्ध पर, उस प्रभु पर भरोसा रखें जो सबका सिरजनहार है। 

बच्चा पैदा होने से पहले जो माँ के स्तन में दूध भर देता है, देता वह है, खिलाता वह है। मेहनत-ईमानदारी की कमाई से ही बरकत होगी पहले एक कमाता था और दस लोग खाते थे। आज दस के दस कमा रहे हैं, फिर भी पूरा नहीं पड़ रहा क्योंकि बरकत छिन गई है। 

जो मेहनत और ईमानदारी से कमाई करता है, उससे लक्ष्मी खुश होती हैं और उसके यहाँ ठहरती हैं। लेकिन जो जुए, चोरी, लूट-मार या दूसरों का दिल दुखाकर धन लाता है, लक्ष्मी उसे अपनी तौहीन समझकर नाराज हो जाती हैं। 

अगर गलत तरीके से कमाओगे, तो वह धन गलत तरीके से ही चला भी जाएगा। इसलिए मेहनत और ईमानदारी की कमाई पर भरोसा करो और उसी कमाई से बच्चों को खिलाओ, इससे उनकी बुद्धि सही रहेगी।



✵ गृहस्थ का यह धर्म है कि गृहस्थी को संभाले

गृहस्थ का धर्म है कि गृहस्थी को संभालें और विरासत को बनाए रखें। जो विरासत में मिला है, उसे बचाकर रखें और अपनी कमाई को भी बर्बाद न होने दें। बच्चों की निरख-परख जरूरी है, क्योंकि गलत संगत से उनका जीवन बर्बाद हो सकता है।

बचपन में आपके कहने पर वे नाम ध्वनि बोलते हैं, सुमिरन, ध्यान और भजन भी करते हैं। लेकिन जैसे ही बच्चे पढ़ने-लिखने या नौकरी करने के लिए घर छोड़कर बाहर निकलते हैं, आपका नियंत्रण उन पर से खत्म हो जाता है और वे गलत संगत में पड़कर बुराईयों की नकल करके बिगड़ जाते हैं।

अगर सतसंगों में लाते रहेंगे और ध्यान-भजन में उनका मन लग गया, तो उनका ध्यान इधर-उधर कहीं नहीं जाएगा। सतसंग और भजन के रंग में रंगे बच्चों पर बुराईयों का असर नहीं होता, जैसे काले कंबल पर दूसरा रंग नहीं चढ़ता। 

बच्चों के बिगड़ने की संभावना 8 से 20 साल की उम्र के बीच अधिक होती है। उसके बाद वे हर चीज समझने लगते हैं, तब कोई दिक्कत नहीं होती है। नशाखोरी बहुत बढ़ती चली जा रही है इसलिए बच्चों की संभाल बहुत जरूरी है।



✵ लोक-परलोक बनाने का सूत्र सतसंग, सेवा और भजन

सतसंग में बताई गई बातों को याद रखना चाहिए और नियमित रूप से साप्ताहिक सतसंग में भाग लेना चाहिए। अपने बच्चों को भी सतसंग में ले जाएँ, इससे उनके संस्कार बनेंगे। यदि आप उन्हें सतसंग में नहीं ले जाएंगे, तो बच्चे आपका कहना नहीं मानेंगे। 

आजकल छोटे-छोटे बच्चे जिद्दी हो गए हैं, अपनी मनमानी करते हैं और प्यार-मोहब्बत के कारण आप उन्हें कुछ कह नहीं पाते। यदि आप उन्हें मारते-पीटते हैं, तो वे घर छोड़कर भाग जाते हैं। ऐसे में समाज कैसे अच्छा बन पाएगा?

इसलिए अच्छा समाज बनाने के लिए, अच्छाई लाने के लिए तो आपको लोक-परलोक बनाने का सूत्र पकड़ना है। यह सूत्र है- सतसंग, सेवा और भजन। सतसंग में लाओगे, सेवा कराओगे, भजन में लगा दोगे तो सुखी और संपन्न बनने का, तरक्की करके नाम कमाने का रास्ता प्रशस्त हो जाएगा।



✵ सतसंगी ऐसा कोई काम न करें जिसमें फंसाव हो

आप लोग ऐसा कोई काम न करें जिसमें फंसाव हो, नहीं तो भजन और ध्यान करते समय वही समस्याएं आपको परेशान करेंगी। इसलिए इसी दुनिया और गृहस्थ आश्रम में रहते हुए भी इनमें फंसना नहीं चाहिए, जैसे कमल का फूल कीचड़ में रहते हुए भी उससे अछूता रहता है।


✵ प्रभु की नौकरी समझकर गृहस्थी को चलाना चाहिए

यह समझना जरूरी है कि जो भी चीजें हमें मिली हैं, वे प्रभु की दी हुई हैं और केवल कुछ समय के लिए हमारे पास हैं। जैसे नौकरी से मालिक जब चाहे हटा सकता है, वैसे ही ये चीजें भी स्थायी नहीं हैं इसलिए अपनी गृहस्थी को प्रभु की सेवा समझकर चलाना चाहिए। 

हमारे परिवार और आश्रितों की सेवा करना हमारा फर्ज है। लेकिन यह भी सदैव याद रखना चाहिए कि ये चीजें हमारी नहीं हैं। हमें भजन और भक्ति के लिए भी समय निकालना चाहिए क्योंकि भक्ति से ही प्रभु रीझता है और भक्तों पर दया करता है। सच्चे दिल से भक्ति करने पर ही प्रभु की कृपा मिलती है।

तन मन से साँचा रहे, सतगुरु पकड़े बाँह। 
काल कभी रोके नहीं, देवे राह बताय।।

✩ जयगुरुदेव 

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शेष क्रमशः अगली पोस्ट no.4. में...

पिछली पोस्ट no.  2.  देखें - 


साभार, (पुस्तक) जीव जीवन रक्षक भंडारा 2024  
Jeev-jivan-rakshak-bhandara-2024


वक़्त गुरु बाबा उमाकान्त जी महाराज


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