।। जयगुरुदेव ।।
✴ सृष्टि की रचना
एक समय ऐसा था जब यहाँ कुछ भी नहीं थाः न धरती, न आकाश, न मनुष्य, न पेड़-पौधे, न जीव-जन्तु, न अंड-पिंड-ब्रह्मांड, न स्वर्ग-बैकुण्ठ, न सूरज-चाँद, न देवलोक, न काल-महाकाल, न ब्रह्म- पारब्रह्म, न सतलोक, न अलख लोक, न अगम लोक। केवल एक अनामी लोक था, जिसे अविचल धाम कहा जाता है। वहाँ जीवात्माएं (शरीर को चलाने वाली अदृश्य शक्ति) प्रकाश रूप में विद्यमान थीं।
जब सृष्टि की रचना की मौज हुई तो एक आवाज की हिलोर उठी, जिससे कुछ आत्माएं छलककर नीचे गिर गई और वहीं ठहर गई। यह अगम लोक कहलाया और अगम पुरुष वहाँ के मालिक बने।
समय बीतने के बाद जब आत्माएं वहाँ स्थापित हो गई तो उन्हें अलख लोक में उतारा गया और यहाँ के मालिक अलख पुरुष बने। जैसे सागर से एक बूंद निकाली जाती है, वैसे ही अनामी धाम से जीवात्माएं उतारी गई और विस्तार होता गया। फिर जीवात्माओं को सतलोक में उतारा गया, जहाँ के मालिक सतपुरुष बने। सभी जीवात्माएं नीचे नहीं उतारी गई,
कुछ आत्माएं ऊपर के लोकों में बनी रहीं। सतपुरुष, दयाल पुरुष कहलाए और उन्हीं की मौज से सतलोक के नीचे की रचना हुई। एक आवाज के सहारे जीवात्माएं नीचे उतारी गई, जिसे 'शब्द' या 'नाम' कहा गया। यह चेतन शब्द कभी खत्म नहीं होता।
जब बड़ी तेज आवाज हुई, तो जीवात्माएं घबराई और जो सबसे निचले स्तर पर जीवात्माएं उतारी जाने वाली थीं उन्होंने कहा कि हमको क्यों भेज रहे हो? हमसे क्या गलती हो गयी? तब सतपुरुष ने कहा कि घबराने की जरूरत नहीं है। मैं तुम्हें नीचे उतारूंगा, ऐसी मौज हो गयी है। मैं किसी न किसी को भेजूंगा, वे सन्त कहे जायेंगे। वे तुम्हें उपाय बतायेंगे और तुम उस उपाय से वापस आ जाओगी।
सतलोक से उतारी गई प्रमुख आत्माओं को 16 सुत या 16 निर्गुण कहा गया जो बड़े मंडल बनाकर रहने लगे। सतपुरुष के नीचे जो लोक हुए उनको भंवरगुफा, पारब्रह्म (महाकाल), ब्रह्म (त्रिकुटी), सहस्रदलकमल कहा गया।
सहस्रदलकमल के मालिक को किसी ने ईश्वर कहा, किसी ने काल कहा, किसी ने गॉड (God) कहा। कालपुरुष ने बहुत दिनों तक तपस्या किया जिससे सतपुरुष खुश हो गए तो बोले वरदान मांग लो। कालपुरुष ने उनसे कहा कि मुझे अपने ही जैसा राज्य दे दीजिये। ऐसी मांग करने पर सतपुरुष नाराज होकर बोले कि "दे तो रहा हूँ लेकिन फिर तुम यहाँ आ नहीं सकोगे और अगर ये जीवात्माएं वापस आना चाहें तो आने से रोक नहीं सकोगे। मैं किसी को इन्हें लेने के लिए भेजूंगा।"
इस पर कालपुरुष ने कहा कि फिर तो कुछ वरदान और दीजिये। एक-एक करके तीन वरदान और मांग लिए। पहला कि जिसको भेजेंगे वह कोई चमत्कार दिखाकर जीवों को आकर्षित न करें। दूसरा यह कि इन जीवात्माओं को पिछले जन्मों का कुछ याद न रहे और तीसरा यह कि ये जहाँ भी, जिस भी योनि में रहें, उसी में सन्तुष्ट रहें। तो सतपुरुष ने यह तीनों वरदान भी दे दिया।
कालपुरुष और आद्या के सम्पर्क से तीन पुत्र ब्रह्मा, विष्णु, महेश की उत्पत्ति हुई। जीवात्मा को चार तरह के खोल (शरीर) में बंद कर दिया। पहला कारण, दूसरा सूक्ष्म, तीसरा लिंग और चौथा स्थूल शरीर। जब तक जीवात्मा इनसे अलग नहीं होती यह वापस सतलोक नहीं पहुँच पायेगी।
कालपुरुष ने मन, चित, बुद्धि और अहंकार को जीवात्मा के साथ लगा दिया। इन चारों से जीवात्मा बंध गयी। अब मन की डोरी को आद्या के हाथ में, चित् की ब्रह्मा, बुद्धि की विष्णु और अहंकार की शिव के हाथ में सौंप दिया और जीवात्मा की डोरी काल ने अपने हाथ में रखी।
यह चारों अपने-अपने स्थान पर बैठ कर निगरानी करते रहते हैं। सृष्टि की व्यवस्था को चलाने के लिये ब्रह्मा को उत्पत्ति, विष्णु को पालन एवं शिव को संहार का काम मिला।
✴ जब सृष्टि की रचना हुई, उस समय धरती पर सतयुग था तथा सब जीव निष्कर्म (कर्म विहीन) थे। कहा गया -
सतयुग योगी सब विज्ञानी, करि हरि ध्यान तरहिं भव प्रानी।
सतयुग में सब लोग योगी और विज्ञानी थे और ध्यान लगाते ही प्रभु के पास आने-जाने लगते थे। सतयुग में मनुष्य की उम्र एक लाख वर्ष की हुआ करती थी और उम्र पूरी हो जाने पर बिना किसी रोक-टोक के सब जीवात्माएं अपने घर, अपने वतन, अपने मालिक के पास पहुँच जाती थीं।
तब काल भगवान (जो तीनों लोकों के मालिक हैं) को चिंता हुई कि यदि सब जीव अपने 'असल' घर पहुँच जाएंगे तो उनका यह देश खाली हो जाएगा। यदि प्रजा ही न रहे तो राजा का जलवा खत्म हो जाएगा। अतः तपस्या द्वारा माँगे हुए जीवों के वापस निजघर पहुँचने में रुकावट डालने के लिए काल भगवान ने कर्मों का विधान बनाया और जब विधान लागू हुआ तो जीवात्माएं कर्मों के चक्कर में फँसती चली गई।
✴ कर्मों का विधान
यह परिवर्तनशील संसार है, यहाँ बदलाव होता रहता है। सतयुग, त्रेता, द्वापर और कलयुग - यह चार युग बनाए गए हैं। सतयुग के बाद त्रेता, त्रेता के बाद द्वापर और द्वापर के बाद कलयुग आया। जब से ये जीवात्मा सतलोक से नीचे उतारी गई, तब से ये वापस नहीं जा पाई।
जैसे-जैसे युग बदला वैसे-वैसे जीवों पर मलीनता आने लग गई और शरीर से कर्म बनने लग गए। जीवात्मा इतनी निर्बल हो गई कि अपने बल पर वहाँ जा नहीं सकी और धीरे-धीरे अपने घर का रास्ता ही भूल गई। कर्मों के बंधन को काटे बिना जीवात्मा वापस निज घर नहीं जा सकती है।
✴ मुख्य रूप से दो प्रकार के कर्म होते हैं- पाप और पुण्य।
जो जैसा कर्म करता है, उसको वैसा ही फल मिलता है। तभी तो कहा गया -
कर्म प्रधान विश्व रचि राखा।
जो जस कीन्ह सो तस फल चाखा ।।
शरीर है तो कर्म भी हैं और अनिवार्य रूप से उसका कर्म फल भी भोगना होगा। जब जीव के पुण्य कर्म ज्यादा रहते हैं तो वह स्वर्ग-बैकुंठ जाता है और जब पाप कर्म ज्यादा रहते हैं तो नर्कों तथा चौरासी लाख योनियों में यही जीवात्मा डाल दी जाती है।
स्वर्ग-बैकुंठ में सुख- सुविधाएं तो बहुत हैं लेकिन इसमें जाने के बाद भी तो जीव बंधन से मुक्त नहीं हुआ, क्योंकि स्वर्ग-बैकुंठ की भी एक अवधि है यानी यह भी समय (काल) से परे नहीं है। हमारी धर्म पुस्तकों के अनुसार "पुण्य क्षीणे, मृत्यु लोके" पुण्य भोग लेने के बाद फिर मृत्युलोक में आना पड़ेगा और नर्क चौरासी की यातनाएं झेलनी पड़ेंगी। अर्थात इसे ऐसा समझ सकते हैं कि हमारी जीवात्मा को दी जाने वाली सजा को कुछ देर के लिए रोक दिया गया है लेकिन कैद से रिहाई। अभी नहीं हुई है।
यानी जीवात्मा की मुक्ति नहीं हुई। अर्थात हमेशा के लिए तो हमारे दुखों का अंत नहीं हुआ।
सन्त बराबर चेताते हैं कि बेड़ी चाहे लोहे की हो या सोने की, उसमें बंधे रहने पर तकलीफ होती ही है।
कर्म तीन प्रकार के होते हैं- संचित, क्रियामाण और प्रारब्ध। पूर्व जन्मों में किये गए कर्मों को संचित कर्म कहते हैं जिनको इकट्ठा करके रखा जाता है और जब जीव का नया जन्म होना होता है तो उसके संचित कर्मों के कोष में से कुछ हिस्सा लेकर प्रारब्ध कर्म बनाया जाता है। प्रारब्ध कर्म को ही भाग्य भी कहते हैं। जो कर्म मनुष्य वर्तमान समय में करता है उसे क्रियामाण कर्म कहते हैं।
कर्म तीन प्रकार से बनते हैं मनसा, वाचा और कर्मणा। जब मन में मनुष्य सोचता है कि किसी का बुरा हो जाए, इसके साथ हम ऐसा बुरा कर्म कर दें, इसका धन हड़प कर लें, आदि तो यह मनसा पाप कहलाता है। वर्तमान समय में मनसा पाप माफ हो जाता है क्योंकि इस समय पर यह मन इतना ज्यादा पापी हो गया है कि अगर मनसा पाप की सजा मिलने लग जाए तो बहुत से जीव नर्क में चले जाएँ। जो कर्म मुँह से बोलकर किए जाते हैं जैसे गाली देना, गलत गवाही देकर सजा दिलवा देना, आदि, वाचा कर्म कहलाते हैं। ऐसे कर्म जो शरीर से किये जाते हैं, कर्मणा कर्म कहलाते हैं।
जब तक जीव सभी प्रकार के कर्मों से विहीन (निष्कर्म) नहीं हो जाता, तब तक उसको मुक्ति मोक्ष नहीं मिल सकता है, कर्मों के अनुसार बार-बार जन्म लेना पड़ता है और पीड़ा भोगनी पड़ती है। यहाँ तक कि शरीरधारी महापुरुषों को भी कर्मों का बदला चुकाना पड़ता है।
✴ जयगुरुदेव
कर्म का वेग प्रबल, भोगना ही पड़ता है।
ब्रह्मवैवर्तपुराण में उल्लेख आता है -
ननुनाभुक्तं क्षीयते कर्म कल्पकोटिशतैरपि। अवश्यमेव भोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभम् ।।
अर्थात मनुष्य जो कुछ अच्छा या बुरा करता है, उसका फल उसे भोगना ही पड़ता है.
अनन्त काल बीत जाने पर भी कोई भी कर्म, अपने फल को दिए बिना नाश को प्राप्त नहीं होता।
पौराणिक कथाओं में भी लिखा हुआ मिलता है कि बाली को वरदान था कि कोई भी उसके सामने लड़ने के लिए आए तो उसका आधा बल वह ले लेता था। इसी कारण राम भगवान ने बाली को पेड़ की ओट से मारा था। फिर जब द्वापर में कृष्ण अवतार हुआ और कृष्ण जंगल में पैर लटकाए हुए बैठे थे, वहीं बहेलिया शिकार के लिए गया हुआ था। कृष्ण के पैर में पद्म का निशान था जिसको मृग की चमकती हुई आँख समझकर बहेलिये ने तीर चला दिया।
जब कृष्ण के पैर में तीर लगा और उनके मुँह से कराह निकली तब आदमी जैसी आवाज को सुनकर बहेलिया उनके समीप गया और देखा कि यह तो कृष्ण हैं। बहेलिया बड़ा पश्चाताप करने लग गया और कहा कि भगवान मुझसे बड़ी भूल हो गई। तब कृष्ण ने समझाया कि इसमें तुम्हारा कोई कसूर नहीं है। त्रेता में मैंने तुमको पेड़ की ओट से छिपकर मारा था आज तुमने अपना बदला ले लिया।
एक और प्रसंग मिलता है जब धृतराष्ट्र ने कृष्ण से पूछा था कि मैं अंधा क्यों हुआ? तब कृष्ण ने कहा कि तुम्हारे कर्म खराब थे और तुमको कर्म का फल मिला है। तब धृतराष्ट्र बोले कि इस जन्म में मैंने कोई बुरा कर्म किया ही नहीं। कृष्ण ने कहा कि और पीछे देखो तब धृतराष्ट्र ने कहा कि सौ जन्मों का मुझे याद है कि मैंने कोई ऐसा कर्म नहीं किया जिसकी वजह से मैं अंधा हूँ। तब कृष्ण ने कहा कि और पीछे देखो तो एक सौ छः जन्म पहले जो बुरा कर्म हो गया था उसकी वजह से उनको अंधा होना पड़ा था।
शेष क्रमशः अगली पोस्ट no.3 में...
पिछली पोस्ट no. 1 देखें -
साभार, (पुस्तक) जीव जीवन रक्षक भंडारा 2024
Jeev-jivan-rakshak-bhandara-2024
एक टिप्पणी भेजें
0 टिप्पणियाँ
Jaigurudev