कहानी संख्या 37. बुरे लोगों से भला करें, ऐसे विरले संसार।।
भले लोगों से भला करें,
यह जग का व्यवहार।
बुरे लोगों से भला करें,
ऐसे विरले संसार।।
ऐसे विरले पुरुष सन्त सतगुरु ही होते हैं, जो भले लोगों से तो भलाई करते ही हैं, बुरे लोगों की भी भलाई ही करते हैं। क्रोध का जवाब क्रोध नहीं, बल्कि शान्ति और क्षमा है। क्रोध कमजोरी की निशानी है और क्षमा कर देना शक्ति का स्वरूप है, क्रोध अग्नि की चिंगारी है और सन्तों का हृदय समुद्र के समान है। चिंगारी जब समुद्र में जाकर गिरती है तो स्वत: ही शान्त हो जाती है।
एक राजा ने अपने देश में ऐलान कर रखा था कि जो कोई भी राजदरबार में आकर भविष्यवाणी सुनाएगा, यदि वह सच निकली तो उसको ईनाम दिया जाएगा।
ज्योतिष के बड़े -बड़े जानकार, विद्वान पण्डित वहाँ जाकर भविष्यवाणी सुनाते और
यदि वे संयोगवश सच साबित होतीं तो वे बहुत -सा ईनाम भी पाते थे।
उस देश के एक गाँव में एक ग़रीब व्यक्ति रहता था, जिसका गुज़ारा बड़ी मुश्किल से होता था। एक दिन उसकी पत्नी ने उससे कहा," तुम भी राजदरबार में जाकर कोई भविष्यवाणी सुनाओ, सम्भव है कोई सच्ची साबित हो जाए तो हमें भी ईनाम मिल जाए जिससे जीने का कुछ सहारा मिल सके।"
वह व्यक्ति बोला," मैं अनपढ़ आदमी हूँ, मुझे किसी बात का ग्यान नहीं। कहीं ऐसा न हो कि राजदरबार में पहुँच कर लेने के देने पड़ जाएँ ?"
पत्नी बोली," पुरुषार्थ करना मनुष्य का कर्त्तव्य है। आगे जो ईश्वर को मंज़ूर होगा, वही होगा। तुम जाओ तो सही।"
ख़ैर वह आदमी घर से चल पड़ा। रास्ते में चलते-चलते जब वह थक गया तो एक पेड़ के नीचे सुस्ताने लगा। उस पेड़ के नीचे एक इच्छाधारी साधु रहता था। जब वह आदमी उस पेड़ के नीचे बैठा तब वह इच्छाधारी साधु साँप के रूप में सामने आ गया, जिसे देखकर वह आदमी डर कर भागने लगा।
साँप बोला," मुझसे डरो नहीं, मैं साँप नहीं, साधु हूँ। मैं जो बात कहूँगा, तुम्हारे भले की ही कहूँगा, बताओ, तुम कहाँ जा रहे हो?
आदमी ने कहा," देश के राजा ने ऐलान किया हुआ है कि जो कोई आकर भविष्यवाणी सुनाएगा, यदि वो सच्ची हुई तो उसे ईनाम मिलेगा। मैं अनपढ़ आदमी हूँ, पत्नी के कहने पर घर से चला तो आया हूँ, परन्तु हैरान हूँ कि राजदरबार में जाकर मैं कहूँगा क्या? मैं समझ नहीं पा रहा कि इसका परिणाम क्या होगा ?
वे त्रिकालदर्शी साधु बोले," राजदरबार में जाकर कहना कि आने वाले समय में इस देश में अग्निकाण्ड का प्रभाव बहुत अधिक होगा। इसलिए हे राजन! अग्नि से बचाव का प्रबन्ध पहले से ही कर लेना अच्छा होगा।"
आदमी ने राजदरबार में जाकर वैसे ही कहा। राजा ने उस आदमी को अपने पास ठहरा लिया और आने वाले समय की प्रतीक्षा करने लगा। समय आया। अग्नि ने ज़ोर पकड़ा, परन्तु राजा ने उससे बचाव का प्रबन्ध पहले ही कर रखा था, इसलिए कोई विशेष क्षति नहीं हुई।
उस आदमी पर राजा की बड़ी श्रद्धा हो गई। उसे बहुत कुछ ईनाम देकर चलते समय राजा ने कहा," मित्र ! मेरे योग्य कोई और सेवा हो तो बताइये।"
उस व्यक्ति ने मन में सोचा कि यह सब करनी तो उस साधु की है जिसके कारण राजदरबार में मेरा सम्मान हुआ तथा माया भी प्राप्त हुई। संभव है राजा को इस बात का पता चल जाए कि यह भविष्यवाणी तो किसी और की थी, तो मुझे इसके बदले दण्ड मिले। इसलिए उचित यही होगा कि उस साँप को ख़त्म कर दिया जाए।
यह सोच कर राजा से बोला," हे राजन ! यदि आप मुझसे और कोई सेवा पूछते हैं तो कुछ सूखी लकड़ियों को मेरे साथ भिजवाने का प्रबन्ध कर दिया जाए।"
कई मज़दूर सूखी लकड़ियों के गठ्ठे सिर पर रख कर उसके साथ चल पड़े। जब वह उस पेड़ के नीचे पहुँचा जहाँ साँप के रूप में इच्छाधारी साधु रहता था। उस आदमी ने मज़दूरों से कहा," यह बिल साँप का घर है, इसके ऊपर लकड़ियाँ रख कर आग लगा दो।"
उन्होंने वैसा ही किया। आदमी ने सोचा कि अब वह साँप मर गया होगा। इस विश्वास के साथ अपने घर आया और राजदरबार से जो कुछ मिला था, स्त्री के हवाले किया और सुख से रहने लगा किन्तु मुफ़्त का माल थोड़े ही दिनों में उड़ा कर फिर पहले जैसी हालत में आ गया।
स्त्री ने कहा," फिर जाओ, सम्भव है और माया मिल जाए जिससे घर का निर्वाह चल सके।"
वह आदमी सोचने लगा, जिसकी वजह से मुझे माया मिली थी, उसे तो मैं आग लगा के मार आया हूँ। अब कहाँ जाऊँगा और क्या करूँगा ? किन्तु स्त्री के मजबूर करने पर वह घर से चल पड़ा। चलते-चलते फिर उसी पेड़ के नीचे जा बैठा जहाँ उसे इच्छाधारी साधु मिला था।
वह फिर किसी दूसरे रूप में सामने आकर कहने लगा," मैं वही साँप हूँ जिसके घर को तू आग लगा गया था।"
यह सुनते ही वह आदमी डर कर भागने लगा कि अब यह मुझे नहीं छोड़ेगा किन्तु इच्छाधारी साधु बोला," मुझसे डरो नहीं। मेरी बात को सुनो। मैं तेरे भले की ही करूँगा।"
वह आदमी वापस लौट आया। तब साधु ने पूछा," अब कहाँ जा रहे हो ?"
वह आदमी बोला," जहाँ पहले गया था, वहीं अब भी जा रहा हूँ।"
साधु बोला," अब वहाँ जाकर क्या कहोगे ?"
आदमी ने कहा," मैं तो स्त्री के कहने पर जा रहा हूँ। मझे कुछ पता नहीं कि क्या कहना है।"
साधु ने कहा," अब राजा को कहना कि इस बार देश में पानी का ज़्यादा ज़ोर होने से बाढ़ से नुकसान होगा, बचत का उपाय कर लें।
वह आदमी वहाँ से चल पड़ा और दरबार में पहुँच कर कहा, " हे राजन ! इस बार देश में पानी बहुत बरसेगा और बाढ़ का भारी ख़तरा है,अतः बचाव का उपाय कर लें।"
उस आदमी के प्रति राजा की बड़ी श्रद्धा हो गई थी। राजा ने उसके रहने-खाने का उचित प्रबन्ध करा दिया और समय की प्रतीक्षा करने लगा। समय आने पर बहुत वर्षा हुई किन्तु प्रबन्धन होने से कोई नुकसान नहीं हुआ।
उसकी बात सच होने पर राजा ने उसे बहुत सा धन देते हुए कहा," ऐ प्यारे ! कोई और सेवा मेरे योग्य हो तो बताइये।" वह बोला," राजन ! धन तो आपने बहुत दे दिया, पर एक दिल की बात कहता हूँ, पानी से भरी मश्कें देकर कुछ लोग मेरे साथ भेज दीजिये।"
राजा ने वैसा ही किया। उस आदमी ने पेड़ के नीचे जहाँ साँप का बिल था, मज़दूरों से कहा," इस बिल को खोद कर गढ्ढा बना कर पानी से भर दो।"
मज़दूरों ने वैसा ही किया। वह आदमी अपनी तरफ़ से उस साँप को मरा मान कर माया को लेकर घर पहुँचा परन्तु उस मुफ़्त के माल को थोड़े ही दिनों में खा पी के उड़ा दिया और फिर भूखों मरने लगा।
स्त्री के कहने पर जब आदमी फिर उस पेड़ के नीचे पहुँचा तो इच्छाधारी साधु अपने वास्तविक स्वरूप में मिला और उससे पूछा," अब कहाँ जा रहे हो ?"
वह आदमी अपने दुष्कर्मों से डरता और काँपता हुआ बोला, " राजदरबार में जा रहा हूँ।"
साधु ने पूछा," अब क्या कहोगे ?"
वह बोला," जो आप कहें वही कहूँगा।"
साधु बोले," इस बार राजा को कहना कि आने वाला समय अच्छा होगा, नफ़रत नहीं रहेगी, कलह क्लेश सब मिट जाएँगे, प्रेम-मुहब्बत का दौर होगा, लोग प्रसन्नचित्त होकर सौहार्द्र के साथ परस्पर हिलमिल कर सुख-शान्ति से रहेंगे।"
वह आदमी राजदरबार में पहुँचा। राजा की उस पर पहले से ही बड़ी श्रद्धा थी,
विनम्रता से पूछा,"भगवन ! इस बार क्या होगा ?"
वह बोला," राजन ! अब ख़ुशियों का ज़माना आएगा। लोग परस्पर प्रेम करेंगे और
प्रसन्नचित्त होकर एक दूसरे से मिल कर मिठाइयाँ बाँटेंगे।"
राजा पहले ही उसका श्रद्धालु बन चुका था और उसको उचित स्थान पर ठहरा कर कुछ लोग सेवा में लगा दिए। कुछ समय बाद वैसा ही हुआ। ज़माना बदल गया तो लोग ख़ुशहाल होकर प्रेम से रहने लगे। मानो राम-राज्य आ गया। राजा की श्रद्धा और भी बढ़ गई, बड़ी नम्रता से हाथ जोड़ कर बोला," महाशय ! मेरे योग्य जो सेवा हो,आदेश करें।" ज़माना बदलने से अब उस आदमी की विचारधारा भी बदल चुकी थी। वह बोला," राजन ! इस बार अच्छी से अच्छी, भाँति-भाँति की मिठाइयों के थाल सजा कर मेरे साथ भेजने की व्यवस्था कर दीजिए।"
राजा ने वैसा ही किया। वह आदमी राजा के सेवकों के साथ मिठाइयों के थाल सहित उस साधु महात्मा के पास पहुँच कर रोते हुए हाथ जोड़कर विनती की," हे प्रभु !आप बड़े ही दयालु हैं। आपने मेरे ऊपर हर बार भलाई ही की, परन्तु मैंने आपसे बुरा बर्ताव किया। मैं बड़ा पापी हूँ। मेरे सारे अपराध क्षमा कर दीजिए।"
साधु महात्मा बोले," बेटा ! इसमें तुम्हारा कोई दोष नहीं है। यह समय का प्रभाव है, जिसके साथ सबको दो-चार होना पड़ता है। एक समय ऐसा आया जब देश पर अग्नि का प्रकोप था, उसकी आँच मुझ तक भी पहुँची क्योंकि मैं भी तो इसी देश में रहता हूँ। फिर एक दूसरा समय आया जब देश में पानी का ज़ोर हुआ तो उसका असर मुझ पर भी पड़ना स्वाभाविक था। अब चूँकि समय बदल चुका है, अशान्ति तथा कलह का प्रभाव बीत गया है तो देख लो मेरे सामने भी मिठाइयाँ आ पहुँची हैं और तुम भी अच्छा बर्ताव करने लग गए हो। यह सब समय के परिवर्तन की बात है। किसी दूसरे को दोष नहीं देना चाहिए। चलो पिछली बातें भूल कर बताओ कि अब आगे के लिए क्या चाहते हो ?"
वह बोला, "भगवन ! मुझ अपराधी जीव को मेरे कल्याण का उपाय बताइये।" महात्मा ने कहा, "बेटा ! सन्त सतगुरु की खोज करके उनके सत्संग में जाओ। उनके वचनों का पालन करो और "नाम" का रास्ता लेकर अपनी जीवात्मा को आवागमन और काल-माया के बन्धन से मुक्त कर अपने सच्चे देश में निवास बनाओ।" फिर उसने वैसा ही किया और अमर पद को प्राप्त किया।
साध मिले दुख सब गए, मंगल भये शरीर।
वचन सुनत ही मिटि गई, जनम मरन की पीर।।
जय गुरु देव
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