✩ जयगुरुदेव ✩
परम सन्त बाबा उमाकान्त जी महाराज ने सतसंग सुनाते हुए कहा-
सन्तों की होली दुनियादारों से अलग होती है ।
सन्तों की होली में कर्मों की मेल छुड़ाई जाती है।
सभी त्योहारों का कोई न कोई आत्मिक और सांसारिक दोनों तरह कुछ का अर्थ होता है। दोनों तरह का भाव और ज्ञान होता है। संतों की होली में कर्मों की मेल छुड़ाई जाती है यानी कर्मों को खत्म किया जाता है. कुछ हिस्सा तो कर्मों का महात्मा प्रेमियों को एक जगह बुलाकर उनके कर्मों को एक दूसरे की सेवा करवा कर काट देते हैं। कुछ कर्म-कर्जे एक दूसरे से माफी मंगवाकर खत्म कर देते हैं। कर्मों से पूरा छुटकारा दसवां द्वार पहुंचकर साधक पा लेता है।
सतगुरु मिल जाते हैं तो समझाते हैं. बच्चा! होनी थी सो हो ली यानी अब तक जो हुआ सो हुआ, अब चेत जाओ और अपने निज घर चलो। वहीं एक बार पहुँच गए तो फिर इस दुख के संसार में कभी नहीं आना पड़ेगा। बचे हुए कर्मों से छुटकारा दिलाने के लिए साधना की युक्ति बता देते है और बराबर जीवों की मदद करते रहते हैं जिससे वह तरक्की कर ले जाएँ। दसवां द्वार पहुँच कर जीव पूरी तरह से कर्मों से आजाद हो जाता है।
यह नर देही फागुन मास सुरत रंगे सतगुरु के साथ।
जब संतों की, सतगुरु की अपार कृपा होती है, तब यह समझ में आता है कि "हम कौन है? हमारा सच्चा प्रीतम कौन है? हमको सच्ची सुख-शांति कहाँ मिलेगी ? अब तक हम किस भूल-भरम में इस भवसागर में डूबते-उतराते रहे ? जब उनकी दया से समझ में आता है तब आत्मा में एक चेतना जागृत होती है और फिर विरह वेदना उठती है कि अभी तक हमें हमारा प्रीतम नहीं मिला। क्यों नहीं मिला? क्योंकि
"नरदेही जब-जब मिली, किया न सतगुरु साथ"
जब अवसर मिला ऐसे दुर्लभ फागुन मास का। हमने दुनिया के रगड़े-झगड़े में, संग्रह करने में बनाने- बिगाड़ने में ही गंवा दिया।
फागुन मास की महिमा और गरिमा को महात्माओं ने तरह-तरह से बताया। फागुन मास खुशियां बिखेरते आता है। विरह-वेदना को तेज कर देता है। लेकिन वास्तव में फागुन मास क्या है ? इसे संतो और महापुरुषों ने सही ढंग से समझाया है। यह फागुन मास यह मनुष्य शरीर है।
यह मनुष्य शरीर, नरदेही, इंसानी चोला मुद्दतों के बाद नरकों तथा 84 लाख योनियों की यातनाएं सहने के बाद मिला है कि हम इसमें सच्ची होली मना लें। यह सच्ची होली क्या है? आत्मा अपने प्रभु प्रीतम को पा जाए। जब तक यह आत्मा अपने प्रीतम को नहीं पाएगी तब तक सच्ची होली हो ही नहीं सकती।
सच्ची होली कैसे मनाते है? जब हम किसी सतगुरु की शरण में बैठकर उनसे ज्ञान लेते हैं, दया लेते हैं, आत्मा को जगाने की साधना में लग जाते हैं तब इस शरीर का फागुन मास राग रंग और साज-बाज से भर उठता है।
दुनिया की होली क्या है ?
दुनिया की होली क्या है? केवल परंपरा मात्र रह गई है। अब तो संसार की भी होली में कोई आनंद नहीं रह गया। आम जिंदगी वास्तविकता से दूर नाटक मात्र बनकर रह गई। मन में कटुता है, भावनाएं कड़वी, व्यवहार छलावा, दिखावा; क्या कोई सच्ची होली मिलन करेगा।
जिनको एक मार्ग मिल गया, धर्म की जलती मशाल के नीचे आकर बैठे, तो चिराग तले अंधेरे बनकर रह गए। भक्ति का दिखावा, सेवा का दिखावा, समर्पण का दिखावा हो रहा है इसलिए अब धर्म से भी लोग मुड़ गए. कर्म से भी मुड गए, सत्य और सदाचार से भी मुड़ गए।
पर सूर्य सूर्य ही रहेगा, रोशनी रोशनी ही रहेगी. चिराग चिराग ही रहेगा। अंधेरे लाख पले चिराग तले, लोग रोशनी के लिए भागेंगे, भाग रहे हैं। नरदेही का फागुन मास सफल करने के लिए नर-नारियों का समुदाय उमड़ता चला जा रहा है। अबकी अवसर मिला इस बार हम सच्ची होली मना लें। सतगुरु की शरण में बैठकर उनसे ज्ञान ले लें और दया का अनुभव कर लें।
बाबा उमाकान्त जी महाराज ने कहा- "जो होनी थी सो ही ली" अब आत्मा की दुर्गति नहीं होनी है। मनुष्य शरीर में आए हो तो इसकी कीमत को समझना है । अब तो न मनुष्य शरीर की बर्बादी हो सकेगी और न आत्माओं की । अब समय आ गया, सतयुग आएगा।
इस दुनिया का फागुन मास रंग-बिरंगे परिधानों में सज-धज कर लोक-परलोक में फागुन की धूम मचाएगा। फागुन मास में नर देही सफल हो जाएगी। नरदेही में बैठी सुरत फागुन मास की विरह-चंदना में अपने सतगुरु प्रार्थना करती है-
मैं तो होली खेलन को ठाड़ी,
सतगुरु प्यारे झटपट खोलो किवाड़ी।।
प्रेम रंग की वर्षा कीजे, भीज सुरत हमारी।
देर देर बहु देर गई है, कहाँ लग करूँ पुकारी।
तड़प तड़प जिया तड़प रहा है, दर्शन देओ दिखारी।
सुन्दर रूप लखूं अद्भुत छवि होने घट उजियारी।
ऋतु फागुन अब आय मिली है, नई नई फाग खिलारी।
सतगुरु स्वामी परम दयाला, चरनन लेओ मिलारी।
बिनती करूँ दोऊ कर जोरी, करलो प्रेम दुलारी।
जितने भी महापुरुष आए. सबने बात एक ही कही भाषा अपनी- अपनी तर्जे बयां अपना-अपना गुरु ग्रंथ साहिब में गुरु की वाणी है कि ऐ मनुष्यों ! मानव जीवन तुम्हें मिला कुछ बड़ा लाभ पाने के लिए। लेकिन तुम (अपनी नासमझी में, अपनी अज्ञानता में झूठे प्रपंचों में फंस गये.
बात एक ही है, समझाने का तरीका अपना है। परम पूज्य बाबा उमाकान्त जी महाराज बराबर इसी बात की तो याद दिलाते हैं कि यह मनुष्य शरीर है केवल परमात्मा की प्राप्ति के लिए यही जीवन का मूल उद्देश्य है और मानव शरीर पाने का सबसे बड़ा फायदा है। अगर यह काम न किया, दुनिया में ही फंसे रहे और और जीवन खतम हो गया तो मनुष्य और जानवर में फर्क क्या रहा !
जानवर भी अपने बैठने का ठिकाना बना ही लेता है, पेट भरने का जुगाड़ कर ही लेता है और बच्चे पैदा करके उनका पालन-पोषण कर ही देता है और समय पूरा होने पर वह भी अपना शरीर छोड़ देता है। उसका भी सब कुछ यहीं छूटता है, मनुष्य का भी सब कुछ यहीं छूट जाता है। जानवर और मनुष्य में अंतर ये है कि जानवरों के शरीर में ईश्वर प्राप्ति की साधना नहीं की जा सकती क्योंकि उसकी बनावट अलग और तत्त्वों की कमी भी इसलिए बुद्धि पूरा सोच नहीं सकती।
मनुष्य शरीर पाँच तत्त्वों का पूरा है। इसमें बुद्धि समझ सकती है, मन को रोका जा सकता है इंद्रियों को वश में किया जा सकता है और ईश्वर प्राप्ति की साधना की जा सकती है इसीलिए तो इस मानव शरीर की महिमा है। रामायण में लिखा है
'नर तन सम नहिं कबनउ देही'
शब्द-धुन जिसे 'नाम' कहते हैं आसमानी आवाज कहते हैं हर इन्सान के अन्दर मौजूद है। यह इन्सान की बनाई हुई नहीं, खुद परमात्मा का बनाया हुआ डिज़ाइन है। इसको न हम बदल सकते हैं, न बढ़ा सकते हैं और न ही घटा सकते हैं।
इस संसार में अन्य सभी वस्तु परिवर्तनशील है और सदा बदलती रहती हैं लेकिन यह डिजाइन कभी नहीं बदलती। यह शब्द-धुन परमात्मा से निकली हुई लहर है। प्रत्येक जीव उस अनन्त भण्डार की एक चिनगारी या बूंद है।
इस लहर के एक सिरे पर परमात्मा है और दूसरे सिरे पर आत्मा है। इस प्रकार लहर यानी शब्द धुन परमात्मा और आत्मा के बीच का सम्बन्ध सूत्र है। इस लहर के द्वारा प्रत्येक जीव की सम्हाल हो रही है। हम इसको महसूस नहीं करते हैं क्योंकि मौजूदा हालत में आत्मा और शब्द के बीच मन और माया का एक मोटा पर्दा लगा हुआ है। - लेकिन शब्द मनुष्य और प्रत्येक प्राणी के अन्दर मौजूद है। इसको पकड़ने के लिए बिखरे हुए ध्यान को तीसरे तिल में एकाग्र रखना चाहिए।
ध्यान वहीं से शरीर में आंखों के निचले भाग में फैलता है और विभिन्न इन्द्रियों द्वारा संसार में फैल जाता है। ध्यान को तीसरे तिल में एकाग्र करने के बाद आत्मा फिर सूक्ष्म, कारण और आध्यात्मिक मण्डलों से सम्बन्ध स्थापित करती है। और अन्त में अपने निज भण्डार में विलीन हो जाती है।
इसलिए प्रेमियों को यह प्रार्थना करनी चाहिए कि हे मेरे सतगुरु !! चुनर रूपी सुरत को, जो अनेक जन्मों से मेली होती चली जा रही है.. इसे निर्मल करके अपने प्रेम का रंग उस पर चढ़ा दो-
मेरे प्यारे दयालु सतगुरु मेरी सुरत चुनरिया रंग दो।
प्रेम सिंध तुम अगम अपारा। मोहि प्रेम दीवानी कर दो।
रंग भरे रंग ही बरसाओ मेरे मन की कलसिया भर दो।
मन मोहन निज रूप तुम्हारा मेरे हिये मुकर में घर दो।
मन माया से अलग बचाकर मोहिं अजर अमर धुर वर दो ।
बहु दिन बीत करत पुकारा। मेरी आशा पूरन कर दो।
काल कर मोहिं बहु भरमावत मेरे पांचों चोर पकड़ दो।
जिन जाऊँ तिव काल सतावत । चरनन में चित मोर जकड़ दो।
तुम दाता क्यों देर लगाओ । अब तो जल्दी कर दो।
कहाँ लग कहूँ कहन नहिं आये माँगू सो मोहिं वर दो
सतगुरु स्वामी प्रीतम प्यारे मोहिं नित नित अपना संग दो ।
साभार, (पुस्तक) होली 2023
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अंतर साधना में तरक्की करवाने वाले, बाबा उमाकान्त महाराज |
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