राजस्थान में एक महात्मा सफर करते हुए जा रहे थे। रास्ते में एक प्यासा पानी के बिना तड़प् रहा था। मरने ही वाला था कि एक महात्मा उसके पास पहुंच गये और अपने कमण्डल का पानी पिलाया तब उसकी जान बची, जब होश आया तब महात्मा ने कहा कि अब किसी को अपने दरवाजे से प्यासा मत जाने देना।
जो दूसरे मुसाफिरों को पानी नहीं पिलाता है वह प्यासा मरता है। महात्मा बोले इसी तरह ईश्वर के दर्शन करने की जिज्ञासा लग जाये तो भगवान मिल जाते हैं भगवान के दर्शन की प्यास होनी चाहिये परन्तु गुरु को खोजना।
जब तुम आंखों के ऊपर की साधना करो तब मन में हुलाष रक्खो कि हम गुरु का दर्शन करें परन्तु तीसरे तिल पर सुरत का आसन जमा लेना चाहिये।
रोज बैठो नित्य जो शब्द हो रहा है उस शब्द रूपी गुरु की आवाज को सुनो और सुरत रूपी बर्तन मांज।
फिर जब सुरत साफ होगी तब गुरु का रूप दिखाई देगा वह रूप् जैसे सूरज उजाला करता है वैसा उजाला करेगा।
सुरत का कंवल खिल जायेगा मन रूपी भौरा फिर प्यार करेगा।
सुरत जिनको गुरु ज्ञान नहीं मिला सदा उनके अन्दर अंधेरा रहेगा कभी उजाला होगा ही नहीं।
और हे सुरत जब तक पूरा सतगुरु नहीं मिलेगा तब तक आना जाना नही छूटेगा। सदा सुरत खान में भटकती रहेगी।
♛ एक प्रेमी ने पूछा ♛
एक प्रेमी ने पूछा स्वामी जी, जीव किस अवस्था में पहुच कर समझ सकता है कि मैं संसार में जन्म न लूंगा।
जीव अपने आप को जब समझे कि मैं जनम न लूंगा । जबकि मन में संसारी इच्छाये न उठें और संसार के जो भी झकोले हैं उनमें आकर दुखी न हो फिर संत सतगुरु से पूरा प्रेम हो जावे उनके प्रेम में जीव सदा तड़पता रहे
सुरत मन को साथ लेकर सुरत शब्द के अभ्यास में लगी हो और अन्तर में शिवनेत्र खुल गया हो गुरु अन्तर में प्रगट होकर सुरत से बात करता हो समझ लो कि अब जनम न लेना होगा परन्तु काम इसी जीवन में गुरु की दया लेकर होना चाहिये और सुरत सत्यलोक पहुंच जावे।
मनुष्य अपनी सांसारिक आवश्यकताएं पूर्ण करने में अपने सारे जीवन के वर्षों को लगा देता है फिर भी उसकी इच्छायें न होने के बराबर रह जाती हैं। और अपना अनमोल मनुष्य जीवन कूड़े करकट के समान बिता देता है। लौकिक पदार्थ छाया के सदृश्य हैं जिन्हे मनुष्य देखते देखते पकड़ना अनिवार्य समझता हुआ भी छाया रूपी विभिन्न वस्तुओं सूर्य जैसे संध्या समय ढल जाता है और मनुष्य खड़ा खड़ा देखता रहता है इसी भांति मनुष्य स्वांसे हैं कार्य करते करते खतम सी होती जाती हैं ।
अन्त में मनुष्य अपनी इच्छा रूपी सीमाओं का लक्ष्य बना रक्खा है उसको पूरा नही कर पाता है। और अन्त में सिर पीटता पछताता हुआ इस संसार रूपी सम्बन्धियों से नाता सर्वदा के लिये तोड़कर अलग हो जाता है।
मनुष्य तुम्हारी वह इच्छायें कदापि संशय रूपी संसार में पूर्ण न होगी जिस ओस की भांति हीरों के समान घास पर चमकती हो और सूर्य की क्षणिक गर्मी पाकर वह बूंदे उड़ जाती हैं। इसी तरह क्षणिक संसार में सुख प्रतीत होता है और अन्त तक मनुष्य उसी सुख की जिज्ञासा में रहता हुआ खोल अन्त समय प्राणों का त्याग कर देता है। परन्तु जो भगवान के लिये ज्योति प्रकाश रूप मे जलती है जिसमें अस्थायी सुख और अस्थायी शान्ति है उससे बहुत दूर रहता हुआ जगत मे निराशता प्रकट करता रहता है।
♛ भेंट ♛
संतों के पास धन, सामान भेंट करने की कोई महिमा नहीं। जो भेंट रूप्या पैसा की पेश दिल को कचोट कर या झिझक से करते है वह भेंट नहीं।
सन्तों की सेवा में किसी प्रकार की शर्म नहीं करनी चाहिये दिल खोल कर करना चाहिए।
जिस तरह होली के समय रंग दिल खोल कर खेलते हैं उसी तरह उमंग और उत्साह के साथ चित्त प्रसन्न करते हुए करना चाहिये उसका फल व्यर्थ कदापि नही जाता है गुरु के दरबार में किसी की मेहनत रक्खी नहीं जाती है।
सत्संगी समझ कर जो सेवा करते हैं
बहुत से लोग गुरु दरबार में उपस्थित होते हैं कुछ सत्संग सुनते है और कुछ उपदेश लेते हैं । एक दूसरी जगह के सत्संगी जनों से परिचय होता है किसी को किसी चीज की जरूरत होती है । और किसी सत्संगी की जरूरत पूरी कर दी, यह भी उच्च सेवा परन्तु कुछ सत्संगी अपनी आदत नहीं त्यागते हैं हर किसी सत्संगी से रुपया मांगने लगते हैं कि मुझे उधार दे दें। उन्हे ज्ञान होना चाहिये वह अपना वादा पूरा कर सके तो ठीक है नही तो किसी सत्संगी से रुपया हरगिज नहीं लेना चाहिये।
यदि किसी सत्संगी ने किसी सत्संगी को गुरु का सत्संगी समझ कर मदद की है तो उसको रुपया देने के पहिले उसे समझ लेना चाहिये कि गुरु हमारा समर्थ है यह यदि हमारा रुपया न देगा तो इसका मुंह सत्संग में काला होगा और गुरु की दया जो होनी चाहिये वह न होगी।
हमारे ऊपर उसकी दया अवश्य होगी हम उसकी दया से सत्य के राहगीर समझ कर सेवा की है मुझे विश्वास है कि गुरु दाम से दस गुना देगा इसमें जरा भी शक नहीं है गुरु समरथ है।
♛ सेवा ♛
कन्हैया लाल कलकत्ते में रहते हैं उनको मैं हमेशा समझाता रहता हूं नीची निगाह से गरीबों की सेवा करो और अपना कुछ न समझो गुरु दया करेगा और तुम बढ़ते चले जाओगे।
पीछे मत देखो गुरु की सेवा समझ कर करो वह ऐसा ही करते है वह बढ़ते चले जाते हैै।
इसी तरह सबकी सेवा करो और किसी तरह दुःखी मत हो अधिक मिलेगा नुकसान न होगा।
गुरु की सेवा करने के लिये सेवक को हर प्रकार की तैयारी करनी चाहिये यद्यपि गुरु चाहते नहीं हैं।
संगत की सेवा हेतू और तुम्हारी भावना को दृढ़ बनाने के लिये गुरु सेवा स्वीकार करते हैं और गुरु उसी सेवा को संगत में खर्च करते हैं । धन्य मनुष्य जीवन जिन्होंने अपना समय और सेवा गुरु सेवा में लगा दी।
सत्तपुरुष ने स्वतंत्र नहीं जीव छोड़े गये हैं।
स्वतंत्रता का यह मतलब नहीं है कि सत्तपुरुष ने जो सुरत प्रसन्नता में दिया है इसका मतलब यह नहीं है कि मालिक ने बिल्कुल जीवों की लगाम को छोड़ दिया है काल और माया के सुपुर्द जीव किये गये हैं और उनके ऊपर जो आवरण चढ़ा दिये गये तथा जीवों की मादिक पदार्थो की तीव्र इच्छा हो गयी है जब वह इच्छा खतम होगी और मायक शक्ति क्षीण होगी तब जीव सन्तों की रहनुमाई में आयेंगे और उस परम पद का उपदेश सुनायेंगे।
जो पिण्ड अण्ड ब्रह्माण्ड के पार सत्य देश है। और इसलिए जीव ताकत लगा रहे हैं कि ताकि जल्द से जल्द इनकी इन्द्रिय शक्ति खतम हो और बैचेन होकर सन्तों के उपदेश को सुन सकें।
♛ अब ♛
अब जीव भौतिक पदार्थों में जोर के साथ शक्ति खर्च किये देते हैं शक्ति खर्च होने पर कुछ रह न जायेगा। खाना, सोना, कपड़ा पहनना, सिनेमा देखना, स्त्री सुख लेना, राज्य करना, अन्य अन्य भूषणों में खर्च किये देते हैं।
जब इनके पास की सर्व शक्ति खर्च होगी तब सन्तों की बात को सुनेंगे और मानेंगे। बीच में इनके दिल में बहुत फुरना होती है कि कुछ सुख होगा यह हर मनुष्य को धोखा है मनुष्य हर किस्म की भावनायें रख लेता है परन्तु उन्हीं भावनाओं में उलझ कर अपने आपको खतम कर जाता है।
अन्त मे अपने जीवन में कुछ भी तय नहीं कर पाता है।
♛ शिवनेत्र ♛
शिवनेत्र गुरु की आज्ञा अनुसार खुलेगा जब पांच नामों का सच्चा भेद गुरु द्वारा प्राप्त होवे उस समय क्या करना चाहिये गुरु को खुश करें और अन्तर में बैठ कर बिन्दु पर अपनी सुरत की दृष्टि टिका देना चाहिये और बराबर इस बात की निगाहबानी करनी कि मन, चित्त, बुद्धि और सुरत की दृष्टि एक जगह रहे कहीं जावे नहीं।
अन्दर में जो परदे हैं उसके साथ अपनी आंख को घुमाना नहीं है और अगर दृष्टि घूमती रहेगी तो परदा नहीं हटेगा।
प्रथम परदा हटाना है ताकि अन्दर का आकाश साफ होवे।
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