जयगुरुदेव आध्यात्मिक सन्देश*50. पन्थ*
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जयगुरुदेव प्रभु का नाम है। यह नाम मेरा नहीं है, मेरा नाम तो माता पिता ने जो रखा है वह है-तुलसीदास। मैं जयगुरुदेव नाम का प्रचार करता हूं। इसमें शंका मत करो।
अभी जयगुरुदेव नाम है। इस नाम से दिखाया और सुनाया जा रहा है। इस नाम से तुम्हारा उद्धार हो रहा है लेकिन आगे जब यह पन्थ बना लिया जायेगा तो किताब पढ़ लिया और जयगुरुदेव कह लिया तो इससे कुछ नहीं होगा।
*51. पुस्तक*
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पुस्तकों को महात्मा बनाते हैं, पुस्तक महात्मा को नहीं बनाती। महात्मा की तीसरी आंख और तीसरा कान खुला होता है। इस मनुष्य शरीर में रहते हुए महात्मा इस संसार के लोक के परे अण्ड लोक में, ब्रह्माण्ड के लोक में, पारब्रह्माण्ड के लोक में और सबके उपर सतलोक में जाते आते रहते हैं। और उन लोकों में वे जो कुछ अपनी आंखों से देखते हैं, कानों से सुनते हैं, उसमें से कुछ जैसा वे उचित समझते हैं, का वर्णन कर देते हैं, वे किताब बन जाती है।
पुस्तकें एक दस्तावेज है, प्रमाण पत्र हैं कि उन्होंने जो कहा या लिखा वह आन्तरिक आंख कान से देखी सुनी है। महात्माओं ने सन्तों ने जो पुस्तक शास्त्र लिखा उनका सच्चा अर्थ वही मनुष्य कर सकता है जिसकी आन्तरिक गति पुस्तक लिखने वाले महात्मा के समकक्ष हो, जो मनुष्य ऐसा गति वाला महात्मा नहीं है वह महात्मा कहलाने योग्य नही है वह महात्मा के वचनो का सही अर्थ कतई नही बता सकता ।
विद्यमान जो पुस्तकों को पढ़कर रट कर लोगों को अर्थ सुनाते हैं वे भ्रम में स्वयं रहते हैं और दूसरों को भी सदा गुमराह करते हैं इसका दोष उनको लगता है। वास्तव में विद्धान यानी वाचक ज्ञानियों की आंख अन्धी होती है और उनके कान बहरे होते हैं इस संसार में इन्हीं अन्धे और बहरे ज्ञानियों आचार्यों, महन्तों के कारण अहंकार में सभी धर्मो की लड़ाई करते रहते हैं।
*52. नकली जयगुरुदेव*
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यह मन काल का वकील है और जीव को हरदम बहकाता रहता है। जीवों को बहकाने के अनेकों रास्ते हैं। अभी क्या देखते हो अभी तो इतने जयगुरुदेव बाबा बनेंगे और लोग भ्रमित हो जायेंगे। जो नकल करेगा वह मारा जायेगा इसलिये सब लोग संभल कर रहें। पहले से आगाह कर देना मेरा काम है ताकि आगे कह न सको।
संगत बहुत बढ़ रही है और आगे बहुत बढ़ेगी। तुम सब लोग बहुत होशियारी से अपने लक्ष्य पर डटे रहो। सतसंग एक ऐसा बाजार है जहां हर सामान मिलता है । जब तुम खुद सोचो कि तुम किस वस्तु के ग्राहक हो। सतसंग का दरबार सबके लिये खुला है। तुम अपने को देखो और मुझको देखो, इधर उधर जाओगे तो बहक जाओगे।
*53. प्रसाद*
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महात्मा जो तुम्हें दे दें वह उनका प्रसाद है। वह तुम्हें चाहें मिटटी ही दे दें, चाहे भभूती दे, चाहे बतासा दे दें चाहे इलायचीदाना दे दें या कोई मिठाई दे दें या कोई फल बगैरह दे दें, उनका दिया हुआ तुम्हारे लिये पवित्र मौज की दया से भरपूर प्रसाद है कल्याणकारी है, उसे ले लो बिना किसी संकोच के।
उससे तुम्हारे अन्दर बैठी हुई आत्मा का कल्याण होगा। लेकिन महात्मा के पास में रखी हुई किसी चीज को बिना उनके दिये, बिना उनके आज्ञा के ही यदि तुम ले लोगे तो उससे तुम्हारा नुकसान होगा वह प्रसाद नहीं होता। महात्मा को लोग प्रायः जो भेंट देते हैं, चढ़ाते हैं वह किसी न किसी मनौती से दिया करते है, उसको तुम लोगे अपने से ले लोगे तो जिसने मनौती चढ़ाया है उसके कर्मो का बोझ भी तुम्हें भोगना पड़ेगा।
तुम उपने कर्मो को भोग भोगने में तो चिल्लाते हो फिर दूसरे के बोझ को सिर पर लादोगे तो सोचो कि तुम्हारी क्या हालत हो सकती है इसलिये प्रसाद पाने में भी सावधान रहा करो। तुम्हारे कर्मो के बोझे को 12 आने तो माफ कर दिया ही गया है। चार आने कर्मो को इसलिये रखा है कि उसके चलते तुम सतसंग में आते रहो, दरस परस करते रहो, नहीं तो मन इतना जबरजस्त है कि तुम्हें सतसंग से दूर कर देगा।
*54. दर्शन*
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महात्मा के सामने आओ तो अपना सिर नीचे मत करो, दोनों आंखो से सामने देखो। गुरु की आंखें में देखो, उनके आँखों मे देखोगे तो उनकी अपार दया की किरणें तुम्हारे भीतर आयेंगी जो तुम्हें सतलोक चौथे पद में जाने में सहायक होगी उनके चरणों की जो धार निकलती है वह तो पैर छूने से मिलेगी लेकिन अगाध दया तो आंखों से ही मिलती है इसलिये महात्मा का दर्शन हमेशा सावधानी से करो।
समय समय पर दर्शन देते रहो और दर्शन लेते रहो इसी दर्शन के लेने देने में तुम जीते जी प्रेम और आनन्द के स्रोत सतलोक में जाने के काबिल बन जाओगे। गुरु बड़े दयालु होते हैं वे तुम्हें बुलातें, तुम्हें मुफ्त में वह धन देना चाहते हैं कि जिसको पाने के बाद तुम्हारा जन्मना मरना हमेशा के लिये छूट जाता है। इसलिये गुरु के पास उठने बैठने में देखने सुनने में सेवा देने में और उनकी आज्ञा पालन में सदैव चौकन्ने रहो।
*55. आदेश*
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जो तुमसे कहा जाय वह तुम करो। गुरु की नकल कभी मत करो। यदि तुम नकल करोगे तो बहुत मार पड़ेगी। काल का पन्जा बहुत जबरजस्त है वह तुम्हें दबोच लेगा इसिलिये अपने बुद्धि के पहलवानी में कभी भी भूल कर भी गुरु की नकल मत करना।
गुरु समरथ है वह कब क्या क्यों और कैसे करते हैं यह तुम नहीं जान सकते। गुरु के हर कार्य में मौज मसलहत होता है, रहस्य छिपा रहता है जिसको वे ही जानते हैं, दूसरा कोई नहीं जान सकता।
*56. परीक्षा नहीं*
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वक्त के पूरे गुरु अपने सतसंगियों को सत्संग में रहनी गहनी सिखाते हैं सेवा कराते हैं, भक्ति साधना कराते हैं । सतसंगी गलतिया भी करते हैं तो गुरु माफ किया करते हैं । फिर चेताते हैं बार बार चेताते हैं और सही रास्ते पर लाकर साधना कराते हैं, दिखाते सुनाते हैं लेकिन शिष्य की परीक्षा नहीं लेते हैं। दया करके अपना पाठ पढाते हैं समझाते बुझाते हैं। सनैः सनैः उसे काबिल बनाते जाते हैं।
एक भल्ला साहब शिष्य हुए हैं। उनके गुरु ने उनकी परीक्षा लिया था परीक्षा सत्संग की सेवा का थाा परीक्षा कड़ा था लेकिन भल्ला साहब परीक्षा में खरे उतरे तब उनके गुरु ने उनसे वरदान मांगने को कहा। भला साहब ने मांगा कि अब आगे से किसी सत्संगी की परीक्षा नहीं लिया जाय। गुरु ने वरदान दे दिया। इसीलिये अब किसी सतसंगी की गुरु परीक्षा नहीं लेते हैं। गुरु से मतलब पूरे सन्त से है जो सतलोक के वासी होते हैं।
साभार, संत बोध क्रमशः---
sant bodh
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