45. मानसिक पाप माफ
कलयुग में मानसिक पाप का भोग मनुष्य को नहीं भोगना पड़ता। काल भगवान ईश्वर ने मनुष्य द्वारा किये जाने वाले मानसिक पाप को माफ कर दिया है, ऐसा विधान बन गया है। लेकिन मन से जो पुण्य कर्म मनुष्य करता है उसका फल उसे प्राप्त होता है। यह महत्व है। बाकी वचन और शरीर से जो भी अच्छा और बुरा कर्म मनुष्य करता है वह सब उसे भोगना पड़ता है, जन्म जन्मान्तर तक।
46. गुरु
शरीरधारी सन्त सदगुरु और परमात्मा में कोई भेद नहीं होता है। सन्त गुरु नानक साहब ने अपने समय में यह नियम लागू कर दिया कि जो मनुष्य नाम या शब्द का सच्चा साधन सुमिरन ध्यान भजन का करता है तो जो उसके साधना की पूंजी उसके पास प्राप्त होती है उस पूंजी की यानि शक्ति सामर्थ्य की जानकारी उसको नहीं होने पाती।
इसका कारण यह था कि मनुष्य को जब अपने शक्ति की जानकारी हो जाती थी तब किसी को शाप याआशीर्वाद देने लगते थे और उनके शक्ति की अपूर्णता के कारण उनकी कमाई हुई पूंजी खर्च हो जाती थी। फलतः शब्द मार्ग पर वे चढ़ाई नहीं कर पाते थे। थोड़ी दूर सुरत ऊपर खिसकी कि फिर नीचे गिर जाती थी। जब तक सुरत सतलोक के समुद्र में नहीं मिल जाती जिस लोक की वह मूंदअंश है तब तक गिरने का सिलसिला रहता है। इसलिये पूरा गुरु शिष्य की पल पल संभाल करते हैं कि शिष्य नीचे गिरने नहीं पाये।
सत्संगी नामदानी को हिदायत दी जाती है कि जब तक वह पूरन गति को न प्राप्त कर ले किसी को नहीं तो शाप दे और नहीं तो आशीर्वाद ही दे बल्कि जहां पर ऐसी स्थिति आवे उसको गुरु द्वारा प्रदत वर्णनात्मक नाम बोलना चाहिये ताकि गुरु की मौज रहे।
47. वर्णानात्मक नाम
हरी के हजारों नाम हैं जो वर्णनात्मक है यानी जो बोलने या पढ़ने लिखने में आते हैं लेकिन उनसे आत्मिक लाभ नहीं होता, मुक्ति नहीं मिलता। नाम वही काम करता है जो किसी सन्त महात्मा द्वारा कमाया हुआ यानी जगाया हुआ होता है वह कोई भी नाम हो सकता है।
जो महात्मा अपने भक्ति यानी योग बल से किसी नाम को जागृत कर लेते है यानी नामी में समा जाते हैं वह जीवों के उद्धार के लिये कोई भी ईश्वर का नाम बोल देते हैं वह जाग्रत नाम उद्धार करता है जब कि वह नाम मनुष्य को उन महात्मा द्वारा दिया गया हो जिन्हांने उसे जगा कर इस भवसागर संसार में लगाया है। वह नाम जहाज होता है ऐसे कि उसमें जो बैठ जाता है वह उस स्थान यानी पद या लोक में पहुंच जाता है जिस स्थान का वह नाम होता है। और वह नाम तभी तक काम करता है जब तक कि वे इस संसार में शरीर से जीवित रहते हैं, उनके शरीर छोड़ने के बाद उनकी जिम्मेदारी नहीं होती।
हां यदि वे महात्मा अपने जाने के बाद के लिये किसी अपने ही रूप् वाले व्यक्ति को निर्धारित समय के लिये ही उस नाम को चलाने काआदेश दे जाते हैं तो तब तक वह काम कर सकता है, हमेशा नहीं। इसीलिये प्रभु का वर्णनात्मक नाम सदा नया नया आता जाता है यानी बदलता रहता है।
48. धुनात्मक नाम
परमात्मा का जो सच्चा नाम है मुक्दिाता नाम है वह धुनात्मक है। वह नाम वर्णन में नहीं आता, उसको लिखा नहीं जा सकता पढ़ा नहीं जा सकता। वह नाम एक रस आनन्द और प्रेम का स्रोत है। सम्पूर्ण सृष्टि की रचना उसी नाम से ही हुआ है और पारब्रह्माण्ड, ब्रह्माण्ड अण्ड और पिण्ड के सभी लोक उसी नाम पर टिके हुए हैं। वह नाम न कभी बदला और न कभी बदलेगा।
वह किसी भी भाषा का नहीं है। वह नाम प्रत्येक प्राणी में है उसी के सहारे वह जीवित रहता है। मनुष्य शरीर में वह नाम निरन्तर धुनकार देता है। उस नाम को केवल वहीं मनुष्य जानता है जो पिण्ड, अण्ड, ब्रह्माण्ड, पारब्रह्माण्ड के पार दयाल देश सतलोक और अनामी में आता जाता है और उस मनुष्य को सन्त कहा जाता है और किसी को नहीं।
सन्त से भेंट होने पर जब उसकी कृपा होती है तो वह किसी ऐसे पात्र व्यक्ति को नामदान देता है जिसके लिये सतलोक से सतपुरुष का उसको हुक्म होता है। सन्त द्वारा दुनिया में जारी किया गया वर्णनात्मक नाम सतलोक में पहुंचाता है। जब तक सन्त रहते हैं। सन्त कबीर साहब ने नाम लगाया सतनाम साहेब, सन्त गुरुनानक साहब ने कहा- वाहे गुरु, गोस्वामी सन्त तुलसीदास जी ने कहा- सीताराम सन्त शिवदयाल सिंह ने लगाया- राधा स्वामी और संत तुलसीदास ने नाम लगाया है जयगुरुदेव यह अपने अपने वक्त के जाग्रत नाम हैं।
49. समभाव
जब महात्मा नर शरीर में इस दुनियां में आते हैं तो वे मनुष्यों के आत्म उद्धार हेतु रास्ता बताते हैं। उनका उपदेश समस्त मानव के लिये होता है, एक समान। नर नारी का भेद गरीब अमीर का भेद शिक्षित अशिक्षित का भेद देश विदेश का भेद गोरे काले का भेद जाति का भेद ऊंच नीच का भेद उनके यहां बिल्कुल नहीं होता।
वे धरती पर कोई भी मनुुष्य हो सबसे प्रेम करते है। और सबको परमात्मा के पाने का उपदेश देते हैं। वे कोई भी पन्थ नहीं बनाते कोई धर्म नहीं बनाते। उनका उपदेश सभी धर्मो सम्प्रदायों या फिरकों के लोगों के लिये एक ही होता है क्योंकि परमात्मा से मिलने का रास्ता समस्त मनुष्यों के लिये ही है, दो नहीं या अलग अलग नहीं।
जिस शब्द या नाम के रास्ते से आत्मा सतलोक से इस मृत्युलोक में आयी है उसी रास्ते से मृत्युलोक से सतलोक वापस जाती है। वे महात्मा जब शरीर छोड़ देते है तो उनके जाने के बाद इस लोक में लोग स्वार्थ में अनजान में उनके असली रास्ते से अलग होकर उनके नाम पर पन्थ बना देते हैं। उनकी मूर्ति तसवीर स्थान पुस्तक आदि की नाना प्रकार से बाहरी पूजा पाठ कीर्तन आदि करते हैं, उन कार्यो से जीव का तनिक भी लाभ नहीं होता है।
परिणामताः उन महात्मा का सच्चा रास्ता लोप हो जाता है और उनके नाम पर नाना प्रकार का ढोंग और पन्थ बन जाता है फिर पन्थ पन्थ में हमेशा लड़ाईयां होती रहती हैं । और लकीर के फकीर होकर अपने मानव जीवन के सुअवसर का नुकसान किया करते हैं।
साभार, संत बोध क्रमशः---
sant bodh
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