जयगुरुदेव आध्यात्मिक सन्देश57. आरती की माला
वार्षिक भण्डारा या गुरु पूर्णिमा के सुअवसर पर जो फूलों की माला आपको पहनायी जाती हैं उसमें विशेष कृपा रहती है। मैं तो माला पहनता नहीं। मैं माला हार आपको पहनाता हूं । मैं देखता हूं कि माला पहनाने के बाद थोड़ी देर बाद ही आप इसे अपने गले में से उतार कर रख देते हैं। यह ठीक नहीं हैं, यह जो फूलों में गुरु महाराज की दया भरी हुई होती है। उसको अधिक नहीं तो कुछ घण्टों तक तो तुम्हे पहन कर ही रहना चाहिये। यह कितना बड़ा सौभाग्य हैं कि गुरु महाराज तुम्हें अपनी कृपा का प्रसाद इस अवसर पर देते हैं। भण्डारे में देखते हो कि जो माला तुम्हें पहनाया जाता है वह गुरु महाराज के चरण कमलों को स्पर्श किया हुआ होता है। इसलिये इस माला का कद्र करना सीखों। इसको अगर सुरक्षित पास में रखोगे तो जब कभी साधन में दिक्कत आवे तो पहन कर बैठो तो गुरु महाराज की कृपा उतरती है। इसलिये महात्माओं के द्वारा दी गयी चीजों को खास कर ऐसे माला का सब आदर करना सीखों।
*58. गुरु में ताकत*
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गुरु में ताकत होती है। नाम में ताकत नहीं होती । जब गुरु किसी नाम को देते हैं तो उस नाम में गुरु की ताकत काम करती हैं फिर उस नाम से उ़द्धार होता है, वह नाम जाग्रत नाम कहा जाता है उसे गुरु ने जगाया होता है। गुरु जो चाहें वह नाम दे सकते हैं। जब तक दुनियां में प्रचलित हजारों हरि के नाम हैं उसे रटते रहो किन्तु इससे आत्मा का जागरण नहीं हो सकता। हां शुभ कार्य का फल मिल जाता है लौकिक।
*59. मरते वक्त याद*
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यह जयगुरुदेव परमात्मा अनामी प्रभु का वक्त का जाग्रत नाम है। इसको जब याद करो तो वह तुम्हें देखेगा और कृपा करेगा।
जब कभी किसी का आखिरी वक्त इस दुनिया से जाने का आ जाय तो जयगुरुदेव नाम को बोलो। याद करो तो बाबाजी मैं तुलसीदास मिलेंगे उस वक्त तुम्हारी संभाल करेंगे। मरते वक्त जिस पर तुम्हें यह विश्वास हो कि वह तुम्हारी मदद करेगा पुकारो यदि कोई उस वक्त तुम्हारी मदद नहीं करता तो मुझको याद कर लेना, तुम्हारी मदद मैं करूंगा। लेकिन तुम्हें जयगुरुदेव नाम पुकारना पड़ेगा। और कोई भी व्यक्ति मरने लगे जो कभी सतसंग में नहीं आया हो तो उसका संभाल होगा। उसकी आत्मा को नर्कों और चौरासी से बचाव हो जायेगा।
जब तक वक्त के पूरे गुरु इस दुनिया में रहते हैं तब तक जिसको भी चाहे जैसे भी चाहें पार कर सकते हैं। वक्त गुरु की महिमा होती है, उनके चले जाने के बाद वह बात नही रह जाती।
*60. ताली नहीं*
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यह सतसंग है, अध्यात्म है, सतसंग में बैठो तो एक चित्त होकर नहीं सुनोगे तो मन इधर उधर चला जायेगा फिर सतसंग का शब्द निकल जायेगा। जब एक शब्द निकल गया तो कुछ का कुछ समझने लगोगे मन से धोखा खा जाओगे इसलिये जब सत्संग सुनो तो एक एक शब्द को गौर सेु सुनो, सतसंग का तब फायदा मिलेगा। और यहां ताली मत बजाओ। यह कोई कथा कीर्तन भाषण नहीं राजनेताओं का मंच और सभा नही। तो समझ गये ताली कभी मत बजाना। सतसंग के एक एक शब्द को सुनो फिर उसको अपने में उतारो। एक बात भी तुमने सतसंग की अपने जीवन में उतार लिया तो काम बन जायेगा, आंख जो बन्द है, खुल जायेगी और कान जो बन्द है वह भी खुल जायेगा। यहां अपनी बुराईयां दे दें और बाबा जी जो दे रहे हैं उसको ले लो । हम तो धाोवी हैं, जो गन्दगी तुम्हारे आंखों पर पड़ी है कर्मो की, उसको धो धोकर तुम्हारी आत्मा को तुम्हारे अपने घर में वापस पहुंचाना चाहते हैं मेरा तो काम ही यह है।
*61. बाजा नहीं*
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सत्संग में यहां कोई बाजा नहीं बजता कोई ढोल झाल हारमोनियम तबला बगैरह नहीं। गाना बजाना का कोई नशा नहीं, कोई मनोरंजन नहीं किया जाता मन का कोई रस नहीं। यहां वह नशा चढाया जाता है, वह रस पिलाया जाता है कि एक बार पी लो तो उसका नशा कभी उतरता नहीं । दुनिया के जितने भी नशे हैं, वह तो चढ़ते हैं फिर उतर जाते हैं। लेकिन यह नशा सतसंग का, नाम का अगर एक बार चढ़ गया तो फिर कभी नहीं उतरता जीवन भर।
*62. अधीन नहीं*
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सन्त महापुरुष शास्त्रों के अधीन काम नहीं करते। वे शास्त्रों के बन्धनों में नहीं होते। उनके लिये काल कोई बन्धन नहीं। ग्रह, नक्षत्र, तिथी, वार, मास के चक्र से ऊपर होते हैं। सन्त अपने निज मौज में इस दुनियां में काम करते हैं और उनकी मौज सतपुरुष परमात्मा कुल मालिक अनामी महाप्रभु की मौज होती है। वे जब जैसा जहां उचित समझते हैं उसको करते हैं या लोगों से कराते हैं, उनके हर कार्य में अन्दरूनी आध्यात्मिक पारमार्थिक आत्मकल्याणर्थ लक्ष्य निहित रहता है वह लोक में प्रचलित नियम के अनुकूल भी होता है और प्रतिकूल भी होता है। इसलिये सन्तों को कोई समझ नहीं सकता। सन्तों की नकल कभी नहीं करना चाहिये बल्कि सन्त जो कहें, उसको ही करना चाहिये।
*63. जीवित से प्रेम*
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जीवित व्यक्ति से ही प्रेम होता है। जो प्राणी जीवित नहीं है उनसे वास्तव में प्रेम नहीं किया जा सकता। जो मर चुके हैं उनसे प्रेम नहीं हो सकता, उनके तसवीर से या उनके मूर्ति से या उनके किसी सामान से प्रेम नहीं हो सकता। हां उनकी यादगार हो सकती है उनकी बातों को याद करके उनसे प्रेरणा लिया जा सकता है किन्तु प्रेम नहीं हो सकता। इसलिये जिन्दा से प्रेम करो, जीवित महापुरुषों से लगाव करो, उनके दर्शन से सानिध्य से, संग साथ से सेवा से उनके साथ आदान प्रादान से प्रेम पैदा होता है। महात्मा जो सन्त होते हैं। वे प्रेम के रूप होते हैं उनके दर्शन से ही प्रेम जाग्रत हो जाता है, उनके स्पर्श से प्रेम के दरिया का संचार हो जाता है और प्रेम के डोर में बंध कर व्यक्ति उसी का रूप हो जाता है। प्रेम का रूप परमात्मा है सन्त उनके रूप हैं तो जब सन्त से जुड़ते हैं तो परमात्मा के रूप हो जाते हैं।
sant bodh
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बाबा जयगुरुदेव जी महाराज |
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