परमार्थी सन्देश

जयगुरुदेव आध्यात्मिक सन्देश

*71. अन्न*
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अन्न का कद्र करो। अन्न का एक दाना भी बर्बाद मत करो। मैं देखता हूं कि लोग खाने के बाद अपना जूठा अन्न जहां तहां केंक देते हैं, यह ठीक नहीं है। तुम्हें पता नहीं है कि तुमको अन्न कहां से और कैसे मिलता है। अन्न का एक दाना जो तुमको मिलता है उसके लिये तुम्हें उस दयालु प्रभु की तुम्हारे ऊपर महान कृपा समझनी चाहिये।
यहां भण्डारे में जो भी आपको मिलता है वह प्रसाद है, उसको भोजन मत समझो। भोजन तो अपने घर पर पाते ही हो। यहां तो उस दयालु प्रभु का प्रसाद है, जो तुमको दिया जाता है, उसको पूरी श्रद्धा से प्रेम से, विश्वास से पाओ। प्रसाद का एक दाना भी मत फेंको। तुम्हें पता नहीं कि इस प्रसाद में गुरु महाराज तुमको क्या दे देते हैं। उनकी बड़ी कृपा है। इस बात को समझो।


*72. सार वस्तु*
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मनुष्य जीवन में सार वस्तु तीन हैं -
1.  सुमिरन  2.  ध्यान  3.  भजन
प्रभु को याद करने का नाम है सुमिरन
प्रभु को देखने का नाम है ध्यान
प्रभु को सुनने का नाम है भजन

वक्त के पूरे गुरु द्वारा शिष्य को प्रदत्त नामदान के नाम को बराबर सुमिरन करना चाहिये। नाम के साथ साथ उनके रूप को याद करना चाहिये। दोनों नेत्रों के बीच आज्ञा चक्र तीसरे तिल पर गुरु द्वारा बताये गये युक्ति से निज धाम से आ रहे शब्द नाम निरन्तर सुनना चाहिये। आत्मा के कान से सुनना चाहिये। मनुष्य जब अपने को पूरी तरह से सुमिरन, ध्यान, भजन में उतार लेता है तो वह गुरु कृपा से पिण्ड, अण्ड, ब्रह्माण्ड और पार ब्रह्माण्ड के पार चौथे पद सतलोक अनामी अपने निज धाम में पहुंच जाता है।


*73. गुरु प्रेम*
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वक्त के देहधारी पूरे सन्त सतगुरु से प्रेम करना आत्मा के मुक्ति का रास्ता है। जब तक वक्त के पूरे गुरु से प्रेम नही होगा आत्मा अपने निज देश चौथा पद सतलोक में वापस नहीं जा सकती है। इसलिये अपने वक्त के पूरे गुरु से प्रेम करना चाहिये। गुरु का रूप अपने आंखों में अपने ह्रदय में इस तरह बसा लेना चाहिये कि पल भर भी अलग न हो। गुरु के प्रेम में ही गुरु आज्ञा का पालन होता है.  गुरु से ऐसा प्रेम हो कि उनके किसी भी आज्ञा का अवहेलना न हो।

जब गुरु से प्रेम होगा तो गुरु में जीव पूरी तरह से समर्पित होगा फिर जहां गुरु जायेगा उसका प्रेमी भी उसके साथ जायेगा। पूरा गुरु चौथा पद सतलोक का वासी होता है सतलोक से पिण्ड देश में आता है और पिण्ड देश के जीवों से प्रेम करके उन्हें अपने साथ सतलोक में लिवा जाता है। गुरु और शिष्य के प्रेम में आनन्द प्राप्त होता है युक्ति प्राप्त हो जाती है । शिष्य का गुरु में प्रेम हो और गुरु का शिष्य में प्रेम हो ऐसा जीवन जीना चाहिये।


*74. पूरा गुरु करना*
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जब भी गुरु करो पूरा गुरु करो। अधूरे गुरु से जीवात्मा की सच्ची मुक्ति नहीं हो सकती। जब तक पूरा गुरु नही मिले तब तक उनकी खोज करते रहो। यदि जीवन के अन्तिम सांस तक भी पूरे गुरु का दर्शन मिल जाय तो अहोभाग्य समझों और जब उनकी कृपा से पूरा गुरु मिल जाय तो फौरन उनके चरणों में अपने आप को समर्पित कर दो, अपने को उनके हवाले कर दो। बस उतने से ही तुम्हारा काम हो जायेगा। 

 जब उस प्रभु की कृपा होती है तो पूरे गुरु से मेल होता है। समर्पण से ही गुरु भक्ति होती है और गुरु भक्ति का मतलब है गुरु के आज्ञा का मन, वचन, काया से पूरा पूरा पालन करना।
भूल करके भी कभी अधूरा गुरु मत करो। जो खुद मुक्त नहीं हुआ है जिसका खुद सतपुरुष अनामी पभु से मेल नही हुआ है वह आपको आपके निज घर नहीं पहुंचा सकता।

कर्ज कंगाल से लेने चले, लकड़ी बांस बेचने चले। जो खुद ही कंगाल है वह दूसरे को कैसे दे सकता है। इसलिये अपने अनमोल जीवन को वक्त के पूरा सच्चा सन्त के सत्संग में लगाओ।


*75. पहले रोटी खा लो ब्रह्म*
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भूख लगी है, पहले रोटी खा लो । फिर तुम स्वयं जान लोगे कि रोटी कैसे बनती है। कुछ इसी तरह समझ लो कि हजारों हजारों युगों से यह जीवात्मा अपने दयाल देश निज घर से आनन्द को छोड़कर यहां काल के इस देश में अपने खोये हुए आनन्द को ढूंढ़ रही है। मगर कहीं उसे आनन्द नहीं मिल रहा है क्योंकि इस देश में आनन्द है ही नहीं। मैं तुम्हें तुम्हारे आनन्द को देने के लिये आया हूं जिसे तुम खोज रहे हो। ऐ नर नारियों जो दे रहा हूं उसे ले लो और अपने घर में पहुंच कर अपने आनान्द को पा लो। जब तुम जीते जी अपने घर में पहंचु जाओगे तो तुम स्वयं ही देखोगे कि कितने जन्म जन्मान्तररों के बाद तुम्हारी काल के बन्धनों से रिहाई हुई है। फिर समस्त सृष्टि के बनने और बिगड़ने का रहस्य स्वयं ही तुम देख लोगे। 

तुम देख लोगे किब्रह्मा  बिष्णु महादेव कैसे क्या करते हैं, ईश्वर कहां क्या करते हैं । ब्रह्म और पारब्रह्म कहां बैठे हैं और वे क्या करते हैं सब अपने आंखों से देखोगे। तो यह समय जो तुम्हारा 20 वर्ष 40 वर्ष जीवन का बचा है उसमें जो दे रहा हूं उसे ले लो और इसमें बैठ कर नाम की डोरी को पकड कर अपने आनन्द के धाम में चले चलो. 

यह मनुश्य शरीर किराये का मकान है अमोलक मिला है इसमें कमायी कर लो। नहीं करोगे तो जाने कब शरीर छूट जाय फिर मनुष्य देह का मिलना कोई आसान नही।


*76. खाने के पहले प्रार्थना*
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रोटी खाने बैठो तो पहले प्रार्थना कर लो। रोटी जिसने दिया है उस दयालु प्रभु को याद कर लो, प्रणाम कर लो उसके बाद ही रोटी पाना शुरु करो। यह हमारे यहां की सनातम परम्परा रही है इसको भूलो नहीं। इसमें बरक्कत हैं मैं कुछ नहीं कहना चाहता लेकिन समय तो ऐसा आ रहा है कि जब नाली में भी रोटी का एक टुकड़ा पढ़ा हुआ लोग देखेेंगे तो उसे निकाल कर उसे खा लेने की इच्छा होगी।
इसलिये कदर करो। अन्न देवता है। अन्न का नुकसान कभी मत करो। जो खाने के लिये भाग्य से मिलता है उसका सम्मान करते हुए प्रणाम करके खाओ।

साभार, संत बोध क्रमशः---
sant bodh
jaigurudev



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