स्वामी जी महाराज बाबा जयगुरुदेव अपने प्रकट जीवन में इतने व्यवहारिक प्रेक्टिकल रहे हैं कि उसे वर्णन करने में नहीं आता वे बातें अब आंखों के सामने प्रत्यक्ष होती हुई यादें ही रह गयी हैं.
सर्वसमरथ पूरे गुरु परमात्मा का देहधारी स्वरूप होते हुए भी सर्वदा सामान्य मनुष्य के तरह से ही व्यवहार करते रहे हैं। अफसोस है कि हम उन्हें जान नही सके, पहिचान नहीं सके और उन्हें एक सामान्य साधू फकीर ही समझते रहे। समय समय पर अलग अलग मौकों पर अलग अलग स्थानों पर हुए ऐसी अविस्मरणीय बातों का वर्णन करना संभव तो नहीं है हां कुछेक बातों का यहां उल्लेख करने क प्रयास करता हूं।
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1.
सत्संग के प्रारम्भिक दिनों में सारनाथ वाराणसी में चातुर्मास व्यतीत कर रहे थे। सतसंगियों की संख्या कम थी। सत्संगी भाई सुबह और शाम को सारनाथ के बगीचे में स्वामी जी के पास हाजिरी देते थे दर्शन कर सत्संग दोनों पाकर निहाल हो जातेरहे। लेकिन उन भाग्यशाली सतसंगी भाईयों में अनेक ऐसे थे जो दिन में अपने कार्यालयों दफ्तरों में काम करने जाते रहे। ऐसे में स्वामी जी महाराज उनका ध्यान रखते हुए अपने हाथ से भोजन रोटियां वगैरह बनाते और पकाते रहे और उनके टिफिन बॉक्स में उसे देकर उन सभी को डयूटी करने के लिये भेजते रहे।
जिस तरह घर की पत्नी अपने पति को दोपहर का टिफिन देकर भेजा करती है उसी तरह स्वामी जी साधू होते हुए सत्संगियों की सेवा करते रहे। सतसंगियों को सतसंग में खड़ा करने करने के लिये स्वामी जी ने हर तरह से परिश्रम किया। इतना मेहनत करते रहे जैसे कि एक पिता अपने पुत्र को योग्य बनाने के लिये तत्पर रहता है। परिश्रम करता है। वो बातें अब याद करने की रह गयी हैं।
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2.
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उन्हीं सतसंग के प्रारम्भिक दिनों में स्व. शालीग्राम मिश्रा भी सतसंग में आये। वे भी हर तरह की सेवा करते रहे, सतसंग सुनते रहे। स्वामी जी को गुरु मानते रहे लेकिन स्वामी जी की उम्र बहुत कम ही रही इसलिये उनका विश्वास डिग जाया करता था। जवान साधु पर विश्वास कोन करे कि वह पूरा सन्त है, सतगुरु है।
इस दुविधा में उनका मन कभी कभी डोला करता था । मिश्रा जी प्रार्थना की रचना करने में और सस्र गाने में पारंगत थे। उनके बच्चे अभी छोटे छोटे रहे। सारनाथ में कभी कभी पहुंचने में उन्हें विलम्ब हो जाता था और आस पास जहां स्वामी का सतसंग होता रहा वहां भी उनको जाने में कभी कभी देर हो जाया करती थी।
एक दिन एक सत्संगी भाई ने स्वामी जी से कहा कि स्वामी जी ये मिश्रा जी सतसंग में पहुचने में देर कर देते हैं तो यह सुनते ही स्वामी जी बोले कि अगर देर ना करे तो उनके बच्चों को तुम खिलाओगे। अरे परिवार को चलाने में देर हो ही जाती है। सतसंग में लगे तो रहते हैं। स्वामी जी सतसंगी को हर बात का हर परिस्थिति का कितना ख्याल रखते थे यह वाक्या से स्वतः स्पष्ट हो जाता है।
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3.
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गोरखपुर जिले के एक सत्संगी रहे राम मिलन तिवारी। उन्होंने अपने गांव में सत्संग करने के लिये स्वामी जी से निवेदन किया। उनकी इच्छा मंजूर हो गयी। स्वामी जी ने समय दे दिया। निश्चित दिन पर स्वामी जी अपने कार से चले तो तिवारी जी के गांव के पहले ही रास्ता सही नहीं था। कार चलाने लायक नहीं थी। उस रास्ते में बैलगाड़ी चला करती थी। तो उस कच्चे रास्ते में बैलगाड़ी के चक्के का जमीन में गहरा गहरा निशान बनता गया था।
स्वामी जी अपने कार स्वयं ही चलाते रहे तो जब बराबर रास्ता नहीं मिला तो राम मिलन तिवारी स्वामी जी के सामने आये और हाथ जोड़ते हुए बोले कि स्वामी जी लीक लीक पर चलिये। उनकी बात सुनकर स्वामी जी मुस्कुराये और प्रेमियों से कहे कि यह तिवारी भी खूब है, कह रहा है लीक लीक पर चलें। कुछ देर तक स्वामी जी रुके रहे और तिवारी के भोलेपन पर, नादानी पर हंसते रहे। बैलगाड़ी के चक्कों के द्वारा बने जमीन में गढढों पर भला स्वामी जी की कार कैसे चलती। तिवारी जी का कहना कि लीक लीक पर चलें प्रेमियों को बहुत दिन तक याद रहा।
खैर गुरु महाराज तो प्रेम के भूखे रहे भाव के भूखे रहे। वे उसी कच्ची उबड़ खाबड़ रास्ते पर धीरे धीरे अपनी कार को लेकर चलते रहे और सत्संग करने के लिये समय से पहले ही पहुंच गये। सभी प्रेमियों से मिले और बहुत ही प्रेम से नये नये गांवों से आये सभी प्रेमी सतसंग सुन और आनन्द भी पाया। स्वामी जी के साथ की यह घटना "लीक लीक पर चलें" आज भी याद आ जाती है।
साभार, संत बोध क्रमशः---
शेष क्रमशः पोस्ट न. 18 में पढ़ें 👇🏽
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जयगुरुदेव की यादें |
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