*जयगुरुदेव सुनहरी यादें* (post 18)

*जयगुरुदेव अनोखी यादें* 
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मथुरा आश्रम पर भण्डारा के अवसर पर बहुत से प्रेमी जो टेन्टों में जगह नहीं पाते थे वे बाहर खुले मैदान में जमीन पर ही सोया करते थे। कड़ाके की ठण्डी पड़ती रही लेकिन वे आसमान के नीचे जमीन पर ख़ुशी ख़ुशी बाल बच्चों के साथ सोते रहते थे। चुपके से स्वामी जी कभी रात में अपनी कुटिया से निकलते थे और सत्संगियों के बीच घूम आते रहे। 

उन्हें देख आते रहे। बहुतों को तो पता ही नहीं चलता था कि स्वामी जी रात में आये भी थे। घूमते वक्त स्वामी जी किसी की चादर या रजाई या कम्बल शरीर पर नहीं होता था तो स्वामी जी उसे स्वयं ओढ़ा दिया करते रहे। ऐसे तो फिक्र करने वाले गुरु महाराज रहे कि प्रेमियों के लिये रात जाग करके उनकी रखवाली हर तरह से करते रहे।

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जब भण्डारा के समय प्रेमियों की भीड़ ज्यादा होती रही तो स्थिति ऐसी भी आई कि जितने भी नलटोटियां लगाई जाती रहीं टंकी में बराबर पानी भर जाता रहा फिर भी टंकी का पानी कम पड़ जाता रहा। स्नान करके पूजन करन के लिये लोग तैयार नहीं हो पाते रहे तो स्वामी जी ने सत्संग में कहा कि देखो, पानी पूरा नहीं पड़ रहा है तो कंकड़ स्नाान कर लो। समझे, कंकड़ स्नान मतलब कि ऐसे ही बिना नहाये हाथ पैर धोकर पूजन कर लो। गुरु महाराज की ऐसी मौज होती रही कि बयान नहीं किया जा सकता। वे प्रेमियों को बिना किसी तकलीफ उठाये उन्हें पारलौकिक धन से भर देना चाहते रहे और भर देते ही रहे।

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स्वामी जी महाराज शिष्टाचार और समय की पाबन्दी को बहुत पसन्द करते रहे। वे चाहते रहे कि उनके सभी सत्संगी नर नारी भी सत्संग में आवें तो उनका पहनावा शिष्ट होना चाहिये तथा उनका बोलचाल प्रेम से भरा हुआ तथा सच्चे सेवादार का होना चाहिये।

एक दिन जब उन्होंने देखा कि मर्द सत्संगी भी खड़े खड़े जहां तहां पेशाब करते रहैं तो उन्होंने सत्संग में बोला कि गुरु महाराज की बड़ी कृपा हुई कि मैं तुम्हारे जैसे यूनिविर्सिटियों में जाकर नहीं पढ़ा नहीं तो अगर वहां पढ़ा होता तो मैं भी तुम्हारे तरह से खड़े खड़े जहां तहां पेशाब करता।

अविवाहित लड़कियों को जब सत्संग मैदान में खुला वस्त्र पहने हुए देखा तो मधुरता से सचेत करते हुए कहा कि जब औरतें अर्धनग्न कपड़ा पहन कर चलें तो यह पोशाक बताता है कि उनका सतीत्व जा रहा है। उनका भविष्य अंधकारमय हेागा इसलिये जब सत्संग में आवें तो पूरा कपड़ा पहनकर आना चाहिये ताकि अंग खुला हुआ नहीं दिखाई दे। 

अच्छे व्यवहार के बारे में स्वामी जी ने बहुत ही बढ़िया से इस तरह सतसंगियों को समझाया। उन्होंने अपने जीवन का उदाहरण देते हुए आगे बताया कि देखो, मैं तो साधू हूं। पहले लंगोटी में रहता था लेकिन जब सत्संग शुरु किया तो लोगों ने कहा कि महाराज आपके सत्संग में बहू बेटियां आती हैं तो आपको ऐसे रूप में नहीं होना चाहिये। 

तो स्वामी जी ने कहा कि तब से मैं जो धोती आप मुझे देते हो उसको मैं पहन करके ही तुम्हारे बीच में रहता हूं तो मर्यादा में रहना चाहिये। मैं भी मर्यादा मैं रहूं तुम भी मर्यादा में रहो। यह सत्संग की गंगा है यहां तो सभी धीरे धीरे आगे पीछे निर्मल हो जाते हैं। हमारे सत्संग में बाघ बकरी को एक घाट पर पानी पिलाया जाता है। यहां सतसंग की मर्यादा में रहो। और जब अपने अपने घरों में जाओ तो वहां की मर्यादा में रहो।

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स्वामी जी महाराज ने एक दिन बताया कि जब मैं राजस्थान के दौरे पर पहली बार गया तो सीकर में श्रीधर जी और स्वर्ण पंवार से भेट हुई तो उनके यहां देखा कि उनके पास एक ऐसा माला था कि उसे कई टोकरियों में रखा करते थे, किसी नाम का जाप किया करते थे। 

जब उन्हें सही रास्ता बताया गया तो उनके समझ में आया। तो भूल भ्रम में लोग घंटो ऐसा करते रहते हैं। मैंने तो तुम्हें सुमिरन करने का सही तरीका बताया है जिसके करने में 8 माला फेरने में 15 से 20 मिनट लगता है। 20 मिनट में सुमिरन पूरा हो जाया करता है। जैसा बताया है वैसे करोगे तो। 

और सुमिरन तो जीवन के अन्तिम सांस तक करना होगा। जब सुमिरन पक जायेगा तो माला की कोई जरूरत नहीं । हर सांस में तुम सुमिरन करते रहोगे। चलते फिरते उठते बैठते हरदम । माला तो देखो मैं भी करता रहता हूं और मैं हर मनका पर तुम्हें याद करता हूं। भाई तुम मुझे याद करो और मैं तुम्हें याद करुं दोनों का मेल होते ही तुम्हारा काम पूरा हो जायेगा। और आवागमन से मुक्ति मिल जायेगी।

साभार, संत बोध क्रमशः---
शेष क्रमशः पोस्ट न. 19 में पढ़ें  👇🏽

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