*"मनुष्य शरीर गुनाह करने के लिए नहीं,* *भजन - इबादत करने के लिए मिला है..."* *- बाबा उमाकान्त जी महाराज*


*जयगुरुदेव*
*सतसंग सन्देश: दिनांक 12.फरवरी.2022*

*सतसंग दिनांक: 31.12.2021*
*सतसंग स्थलः आश्रम, उज्जैन, मध्यप्रदेश*
*सतसंग चैनल: Jaigurudevukm*

*"मनुष्य शरीर गुनाह करने के लिए नहीं,*
*भजन - इबादत करने के लिए मिला है..."*
*- बाबा उमाकान्त जी महाराज*

इस समय के महापुरुष, विधि के विधान की रचना को बताने और समझाने वाले, उज्जैन वाले पूरे संत सतगुरु, *बाबा उमाकान्त जी महाराज* ने उज्जैन आश्रम पर नव वर्ष 2022 के कार्यक्रम में दिए सतसंग सन्देश में बताया कि,

*"यहाँ कर्मों का विधान बनाया गया है ..."*
जब ब्रह्मा के मुंह से आवाज निकली और वह बोलते चले गए, जिसको आयतें उतरना कहते हैं, तो वह आवाज सुनाई किसको पड़ा?
जो उस आवाज को सुनने में लगे रहते थे यानी ऋषि-मुनि। उनको जानकारी इस बात की थी कि आयतें उतरती हैं, आवाज ऊपर से आती है, जिसको आकाशवाणी, अनहद नाद कहा गया है।
तो वह सुनते थे। उनको हुकुम हुआ, अब लोगों को बता दो की ये हाथ पैर, आंख कान, मुंह आदि यह सब जो तुमको मिला है, यह बुरे नहीं बल्कि अच्छा कर्म करने के लिए मिला है और अगर इससे बुरा करोगे तो सजा मिल जाएगी।

वेद में तो पूरा विधान ही लिख दिया है। वेद को जब लोग समझ नहीं पाए तो शास्त्र, तमाम उपनिषद बनाए गये। बाद में इसी तरह से यह सब बन गए।
लेकिन जो उनके मुंह से निकला, ब्रह्मा की आवाज जो सुनाई पड़ी, उसी को ऋषि-मुनियों ने भोजपत्र यानि पेेड़ की छाल पर लिख दिया। लिख कर के चले गए, तो उसको पढ़ने वाले लोगों ने पढ़ लिया।
तब केवल एक भाषा संस्कृत चलती थी। संस्कृत में ही इनको सुनाई पड़ा था, ऋषि-मुनियों को भी संस्कृत में ही सुनाई पड़ा था तो संस्कृत में उन्होंने लिख दिया।

अब वह कानून या नियम बन गया। जैसे जो नियम बन गया कि सड़क पर दायीं तरफ चलो। अगर आप बीचों बीच सड़क पर चलोगे तो आपको डांट फटकार भी पड़ेगी और गाड़ी घोड़ा के नीचे भी आ सकते हो, वहां खतरा है।
लाल बत्ती चौराहे पर लगी रहती है। नियम बना हुआ है कि जब लाल बत्ती जल जाए तो आप आगे नहीं बढ़ सकते हो, जहां पर हो वहीं खड़े हो जाओ। ऐसे सड़क के ऊपर पट्टी खींच दी जाती है जिसको ब्रेकर कहते हैं, वहां स्टॉप लिख देते हैं यानी रुक जाओ।

विदेशों में तो यह नियम बना है कि चाहे किसी की भी गाड़ी हो, अगर मोड या चौराहा है तो चाहे दस सेकेंड के लिए ही गाड़ी रोकेगा। ब्रेक लगाएगा, गाड़ी रुकेगी, फिर आगे बढ़ेगा, यह नियम है।
जैसे यहां का ये नियम है, ऐसे ही नियम उन्होंने बना दिया की ये अच्छे काम के लिए यह शरीर तुमको मिला है। भगवान के भजन के लिए मिला है और हाथ, पैर, आंख, कान इस शरीर को चलाने के लिए मिले हैं।
मुंह अच्छी बात बोलने, उपदेश करने के लिए, रोटी खाने के लिए मिला है, जिससे ये शरीर चलता रहे। तो यह अच्छा और बुरा का कर्म बना दिया गया।

धीरे-धीरे युग परिवर्तन होता गया। सतयुग के बाद त्रेता फिर द्वापर फिर ये कलयुग आ गया। तो कलयुग में तो भगवान को, सत्य को, मौत को ही लोग भूल गए। जो कभी धोखा न देने वाले साथी हैं, लोक-परलोक बनाने वाले गुरु को ही लोग भूल गए।
आप यह समझो प्रेमियों! यह भूल और भ्रम का पर्दा, यह माया का और मोटा होता चला गया और शरीर के कर्म बहुत गंदे हो गए।

शरीर के अंग सब गंदे हो गए। कर्म खराब हो गए तो कर्मों का विधान बनाया की सजा मिलेगी ही। बुरे कर्म जब होंगे तो नरकों में जाना पड़ गया जीवों को।
तो नरकों में बड़ी तकलीफ, बड़ा कष्ट। अब नरकों में जब चिल्लाए जीव, किससे, अपने पिता से। अब जब नरकों में जीव चले गए तब चिल्लाए रोए।

तो समझो पिता तो दयालु होते हैं। बेटा गलती भी कर बैठता है, जेल खाने में बंद हो जाता है लेकिन पिता छुड़ाने के लिए जाता है। माता पिता की ममता, बच्चा कितना भी बड़ा क्यों न हो जाए लेकिन वही वात्सल्य प्रेम जो बचपन में रहता है, वही रहता है। *तो पिता तो दयालु है।*

*"जीवों की तकलीफ को देख दयालु पिता ने पावर देकर संतों को धरती पर भेजा..."*
तब उन्होंने सोचा कि इन जीवों को निकालने के लिए हमको किसी को भेजना पड़ेगा। तब उन्होंने संतों को भेजा।
तो संतों का प्रादुर्भाव जब होने को हुआ तब उनके पावर को देखकर यह घबराए। कौन?
जो सृष्टि की रचना करने के लिए जीवात्माओं को सतपुरुष से मांग कर के लाए थे वह ईश्वर, निरंजन भगवान। वह घबराए की यह तो सब ले जाएंगे अपने साथ।
पावर वह समझते हैं। संत रहते मनुष्य शरीर में ही हैं और इस धरती पर हमेशा रहते हैं। कभी गुप्त रूप में, कभी प्रकट रूप में रहे हैं।

जब अत्याचार, पापाचार, दुराचार कम रहता है तो एक जगह बैठ कर संभाल करते रहते हैं। जब यह चीजें बढ़ जाती है तो जगह-जगह घूम कर के बताते-समझाते हैं, हाथ जोड़कर, प्यार दे कर के मनाते हैं।
जब नहीं मानते हैं तो काल भगवान के सुपुर्द कर देते हैं कि उनको तुम कैसे भी ठोक-पीट करके सही करो। आप यह समझो कि जैसे कोई अपने बच्चों को प्यार से पढ़ावे, बच्चा न पढ़े तो मास्टरजी के सुपुर्द कर देते हैं कि मास्टर जी! अब आप जैसे भी हो, इसको अब आप ही पढ़ाओ और समझाओ।

बाप अपने बच्चों को निर्दयता से मार-पीट नहीं पाता है। जब प्यार भरी आंखों से बेटा बाप को देखता है तो दया आ जाती है, मां को दया आ जाती है। लेकिन जो दूसरे के बच्चे होते हैं उनमें अंतर जरूर रहता है।
हालांकि दूसरे के बच्चों को मास्टर जी को अपना ही बच्चा समझकर पढ़ाना चाहिए। कितना भी यह भाव रहेगा कि ये मेरा ही बच्चा है लेकिन कुछ न कुछ अंतर तो हो ही जाता है।
उतना अंतर इस तरह से समझ लो आप की मां सौतेली मिल गई तो सौतेली मां का प्यार और अपनी मां के प्यार में फर्क हो जाता है। *तो वो उनको सुपुर्द कर देते हैं।*

*"सतगुरु हर तरह से जतन करके अपने अपनाए हुए जीवों को पार लगा कर ही दम लेते हैं..."*
तो काल थप्पी लगा करके चेतावनी देता है। ठोकर मारता है, समझाने की कोशिश करता है। लेकिन गुरु के, संतों के अपनाए हुए जीवों को अपनी चपेट में ले नहीं पाता है।
क्यों? क्योंकि नामदान देते समय सुरत की डोर को संत सतगुरु काल के हाथ से अपने हाथ में ले लेते हैं तो वह जीव उनका हो जाता है।
जैसे घड़ा बनाते समय कुम्हार अंदर हाथ लगता है और बाहर से घड़े को सुंदर और सुडौल बनाने के लिए थपकी मारता रहता है। कहा गया है कि गुरु अंदर से संभाल करते हैं और बाहर से चोट देकर कमियों को निकलते रहते हैं।

तो संत बराबर संभाल करते रहते हैं। घूम-घूम कर के समझाते और बताते हैं। जीव जब नहीं मानते हैं तो डोरी ढीली कर देते हैं तो फिर काल उन जीवों को समझाते हैं। लेकिन डोरी छोड़ते नहीं है, पकड़े रहते हैं।
संत हमेशा इस धरती पर रहते हैं। लेकिन जीव उनको पहचान नहीं पाता है, समझ नहीं पाता है। यदि पहचानते हैं कहीं तो थोड़े थोड़े।

*कौन पहचानता है? जो उनकी बताई हुई युक्ति के द्वारा अंदर में उनका दर्शन करता है। अंदर में उनको देखता है, उनकी प्रभुता को वही समझ सकता है।*

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