*"आप तो भूल गए हो अपने पिता को ..."* *- बाबा उमाकान्त जी महाराज*

*जयगुरुदेव*
*सतसंग सन्देश: दिनांक 11.फरवरी.2022*

*सतसंग दिनांक: 31.12.2021*
*सतसंग स्थलः आश्रम उज्जैन, मध्यप्रदेश*
*सतसंग चैनल: Jaigurudevukm*
https://youtube.com/c/Jaigurudevukm

*"आप तो भूल गए हो अपने पिता को ..."*
*- बाबा उमाकान्त जी महाराज*

विश्व विख्यात परम पूज्य परम संत बाबा जयगुरुदेव जी महाराज के आध्यात्मिक उत्तराधिकारी और संत मत परंपरा में इस समय के पूरे सतगुरु उज्जैन वाले पूज्य संत *बाबा उमाकान्त जी महाराज* ने उज्जैन आश्रम पर नव वर्ष 2022 के कार्यक्रम में सतसंग सन्देश सुनाते हुए प्रेमियों को बताया कि,

ये सुमिरन, ध्यान और भजन जो आपने अभी किया, ये पहले नहीं था।
कब? जब यह दुनिया, धरती,आसमान बना था, जब देवी-देवता पैदा किए गए थे, उस वक्त पर। उस समय पर तो आंख बंद करते ही लोग अपने देश, अपने घर सतलोक जाने लग जाते थे, जहां अपने पिता परमेश्वर रहते हैं।
*वही अपना घर है, हम वहीं से इधर भेजे गए हैं।* सीढ़ी-सीढ़ी उतर कर के आए। सीधे अगर आते तो यहां रुक नहीं सकते थे।

*"जीवात्मा की शक्ति से ही ये शरीर चलता है..."*
पहले कुछ दूर भेजे गए। जब वहां बर्दाश्त हो गया तो फिर नीचे उतारे गए, फिर वहां बर्दाश्त हुआ। फिर धीरे-धीरे बर्दाश्त करते करते इस पांच तत्व के खोल में इस जीवात्मा को बंद कर दिया गया।
जल, पृथ्वी, अग्नि, वायु और आकाश, ये पंच भौतिक शरीर है, जड़। पिंड इसे कहा गया है, क्योंकि पिंड से इसकी उत्पत्ति होती है। इसमें जीवात्मा को बंद कर दिया गया।
जीवात्मा ही इस शरीर को चलाती है। इसी की ताकत पूरे शरीर में फैली हुई है। *सिर से लेकर पैर के अंगूठे के अगले हिस्से तक का संचालन यही जीवात्मा ही करती है।*

*"सतयुग में लोगों की दिव्य दृष्टि खुली रहती थी.."*
दिव्य दृष्टि किसको कहते हैं?
यह जो बाहर से देखते हो या बाहरी आंखों से देखते हो, इसको चर्म-चक्षु कहते हैं। ये चमड़ा ही है। खाल को चमड़ा कहा गया है।
और इन्हीं दोनों आंखों के बीच में, जिसको इन बाहरी आंखों से आप देख नहीं सकते हो, एक तीसरी आंख है जिसको आत्म-चक्षु, दिव्य दृष्टि, शिव नेत्र कहा जाता है।

वह आत्मा के अंदर है। तो उस समय पर ये खुला हुआ था। अभी तो बंद पड़ा है क्योंकि कर्मों के पर्दे ऊपर आ गए। तो उस समय खुला हुआ रहता था और कोई दिक्कत नहीं होती थी।
जैसे मां के पेट में प्रभु का दर्शन होता है, झलक मिल जाती है, ऐसे ही दर्शन होता रहता था।
किसी को कोई तकलीफ नहीं थी। एक लाख बरस की लगभग आदमी की उम्र होती थी। युग कौन सा था? सतयुग।
*जब उम्र पूरी हो जाती थी तो यह जीवात्मा उस प्रभु के पास पहुंच जाती थी, जहां से यह नीचे उतारी गई है।*

*"जब सब चले जाएंगे तो रोकने के लिए कर्मो का विधान बनाया..."*
इन जीवात्माओं को मांग करके लाए थे। कौन?
जिनको सबसे छोटे पुत्र निरंजन भगवान कहा गया। वो सतपुरुष से मांग कर लाए थे। तो उनको चिंता, फिक्र हो गई की सब के सब यह चले जाएंगे तो मृत्यु लोक, सूक्ष्म लोक, लिंग लोक खाली हो जाएंगे।
जिस तरह से यहां पर आबादी, पब्लिक है, वैसे ऊपर में भी लोक है, उनमें भी खचाखच आत्माएं भरी पड़ी है। लोक उन्ही के बनाये हुए है।

मसाला किसने दिया था? सतपुरुष ने दिया था।
तपस्या करके ये निरंजन, सतपुरुष से मांग करके लाए थे। उन्होंने सोचा कि भाई हमारी तो रचना ही बेकार हो जाएगी। यह सब के सब चले जाएंगे?
तब उन्होंने कर्मों का विधान बनाया। अच्छा और बुरा, यह दो कर्म बनाएं। आवाज आई इन्हीं चीजों की।
जैसे कोई संविधान बनता है, नियम बनता है तो लिखने वाले लिख देते हैं और पढ़ कर सुनाने वाले फिर पढ़ कर सुनाते हैं उनको।
जैसे इस धरती का नियम बनता है, बनाया जाता है, बताया जाता है, ऐलान किया जाता है कि जैसे 144 धारा लग गई तो कर्फ्यू लग गया, कोई घर से मत निकलना।
ऐसे ही जब नियम बना अच्छे और बुरे कर्मों का तो ऐलान हुआ। कहां से ऐलान हुआ? ऊपर से जिन्होंने बनाया उन्होंने ऐलान किया।

तो वह सीधे आवाज यहां लोगों के पकड़ में नहीं आ सकती थी जैसे कोई कर्नाटक, तमिलनाडु का है और तमिल में बोले तेलुगु में बोले, कन्नड़ में बोले, ओड़िया में बोले तो आप मध्य प्रदेश के लोग आप क्या समझ पाओगे?
लेकिन जो जानकार है वो उसको समझ सकता है। तो सीधे आवाज नहीं आई। आवाज आई, ब्रह्मा को सुनाई पड़ी। ब्रह्मा ने देखा नहीं उनको। लेकिन ब्रह्मा को यह जानकारी थी कि यह आवाज साधारण नहीं है।
*यह आवाज वहीं की है, पिता के देश की है, उनके जो पिता है, जिनको काल भगवान, ईश्वर कहा गया, वह समझ गए।*

*"अब आप अपने वतन, सतलोक, अपने पिता को भूल गए हो..."*
क्योंकि आप तो भूल गए हो पिता को। आप क्या बहुत से लोग भूल गए। कुछ लोग तो किसी देवता भगवान को ही भूल गए, किसी को नहीं मानते हैं।
कुछ लोग ऐसे हैं जिनका जहां रहन-सहन रहा, जहां घर रहा, जहां रहते हैं वहां जिन देवी-देवता की पूजा होती है, जिनको लोग भगवान मानते हैं, उनको वह मानने लग जाते हैं।
लेकिन कुछ ऐसे भी हो गए अब की जो भगवान, देवी-देवता किसी को कुछ मानते ही नहीं। उनका भगवान तो केवल पैसा है।

उनका भगवान तो खाओ बढ़िया, सुबह चले जाओ, निकाल आओ, जो खाओ वह सब चला जाए, लेट्रिन कर आओ। बच्चा पैदा कर दो। बस मान प्रतिष्ठा, ख़ुशी पा जाओ, ऊंचे ओहदे पर बैठ जाओ। *न जाति-धर्म रह गया, न कोई संस्कृति रह गई। कुछ तो ऐसे भी लोग हैं दुनिया संसार में।*

*"ऊपरी लोकों में स्वयं संचालित व्यवस्था है..."*
वो अपने पिता-परमेश्वर को बराबर याद करते रहते हैं। ब्रह्मा ही नहीं जितने भी देवता हैं, वह याद करते रहते हैं।
वहां ऊपरी लोको में कोई काम भी इस तरह का नहीं है। खेत बोना, रोटी पकाना, भोजन बनाना, कोई बिजनेस व्यापार करना, दफ्तर में हाजिरी करना आदि।
व्यस्त तो सब हैं। देख-रेख तो सब होती है लेकिन कोई गंदगी नहीं कि सफाई करनी पड़े। कोई चोरी-चकारी नहीं कि रखवाली करनी पड़े। कोई वैमनस्यता, ईर्ष्या द्वेष नहीं है कि नियम बनाना पड़े, समझाना पड़े।
*ऑटोमेटिक जिसको कहते हैं, स्वयं संचालित व्यवस्था यह ऊपरी लोकों की है। उनको बराबर ध्यान रहता है।*

*"यहां सब समस्याओं का एक समाधान है, सुमिरन, ध्यान और भजन करना..."*
आप तो रोटी-रोजी के चक्कर में, समस्याओं के चक्कर में भूल जाते हो माला-सुमिरन, ध्यान और भजन करना।
लेकिन यह चीज नहीं समझ पाते हो कि समस्याएं आई क्यों? यह तकलीफ जाएगी कैसे?
यही अगर समझ में आ जाए तो सुमिरन, ध्यान और भजन तो जैसे खुराक हैं आदमी की।
*जैसे कि बगैर खाए चैन नहीं है, बिना पानी पिये चैन नहीं है, परेशानी है। ऐसे ही हो जाएगा। उसी तरह से बगैर सुमिरन, ध्यान और भजन किये हुए चैन नहीं पड़ेगा।*

Jaigurudev-Swamiji


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