गुरु की दया- प्रेमियों के अनुभव, (post 11)

संस्मरण
*22- श्री मति यशोदा देवी श्रीवास्तव (वाराणसी)*

बात सन् 49 की है।  मेरे बड़े भैया ( श्री नारायण श्रीवास्तव) उस समय नाटी इमली वाराणसी में रहा करते थे।  वे स्वामी जी के गुरुभाई हैं अतः स्वामी जी महाराज प्रायः नाटी इमली आया करते थे। वहीं मुझे स्वामी जी का प्रथम दर्शन करने का शौभाग्य प्राप्त हुआ।  मेरा पूजा पाठ और धर्म में विश्वाश तो बचपन से ही था किंतु यह भावना और भी दृढ़ हो गयी थी, जबकि जीवन का सबसे बड़ा आघात मुझे लगा इस भवसागर में अकेले गोते लगाने के लिए छोड़कर मेरे जीवन का सहारा सदा के लिए उठ चुका था। 

मैं शांति चाहती थी। ऐसे समय में स्वामी जी के दर्शन ने मुझे बहुत सहारा दिया। भैया मुझे प्रेरित करते रहे कि ‘भाई साहब को (स्वामी जी को) तुम साधारण पुरुष मत समझना,  मैं स्वामी जी से प्रार्थना करती कि उपदेश  दे दीजिए। स्वामी जी कहते कि मैं तो स्वयं राही हूं। एक राही क्या पथ दिखा सकता है। तेरे लिए मैं महात्मा खोज दूंगा।’ और मैं चुप हो जाती। किंतु भैया सदा मुझे प्रेरित करते रहे। 

मैं स्वामी जी से उपदेश देने के लिए प्रार्थना करती रहती थी। मुझे दिन और तिथी तो ठीक याद नहीं है किंतु संभवतः जाड़े की शुरुआत थी। स्वामी जी महाराज से निराश सी हो रही थी कि स्वामी जी वाराणसी आये हुए  थे। मैं मन ही मन सोचती कि मुझे उपदेश नहीं देंगे। अपने भाग्य पर कभी कभी क्षोभ होता था कि क्या मेरा भाग्य इतना खराब है कि एक महापुरुष भी हमें सहारा नहीं देना चाहता। 

हां तो जब स्वामी जी बनारस आये तो उन्होंने मुझसे एकाएक पूछा ‘तू कुछ करेगी’ मैंने हां कर दिया। इस पर उन्होंने मुझे केवल ध्यान करने का तरीका बताया। ध्यान से ही मुझे बहुत सुख और शांति मिली उसके बाद भजन का और फिर  सुमिरन का रास्ता मुझे स्वामी जी ने बताया। इस प्रकार तीन बार में मैंने पूर्ण रूप से नामदान लिया।

आज मैं स्वामी जी महाराज की इस अपार दया के जल्वे को देखती हूं तो मुझे उस समय की याद हो आती है  कि वह भी क्या दिन थे कि स्वामी जी महाराज को पहचानना भी कितना मुश्किल था। भैया के प्रति मेरे दिल में पूरी श्रद्धा रहती है कि उन्हीं की प्रेरणा से आज मैंने ऐसे अद्धितीय महापुरुष के चरणों में बैठने का शौभाग्य प्राप्त किया है।

साभार,
अतीत के आईने में  नामक पुस्तक से 

शेष क्रमशः पोस्ट न. 12 में पढ़ें  👇🏽

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