जयगुरुदेव
गुरु की दया के अनुभव
26. मुन्नी (लखनऊ)
कुछ भी अपने विगत दिनों के बारें में कहने से पूर्व मेरा हृदय, शंभु भाई साहब (आजमगढ़) के प्रति पूरी तरह से आभारी हो जाता है, क्योंकि उन्हीं के द्वारा हमें यह नसीब प्राप्त हुआ कि मैं ऐसे महापुरुष के साये में बैठ सकूं। मैं क्या लिखूं, कैसे लिखूं यह मेरी समझ में नहीं आ रहा है।
महापुरुष की दया का वर्णन कैसे किया जा सकता है ? जो दया सागर हो, क्षमा और सद्भावना की हिलोरें सदैव जिसके अन्तःकरण से उठती रहें और जिसकी स्नेह सरिता सदैव सबके ऊपर समान रूप से प्रभावित हो रही हो उसके लिए कुछ लिखते समय मुझे एक घटना याद आती है...
एक कलेक्टर किसी गांव में दौरे पर गया था। ग्राम वासियों ने अपनी दुःख तकलीफों को उसको सुनाया। उसने सबकी बातों को ध्यान से सुना और सबको आराम देने का भरसक प्रयत्न किया। भोले ग्रामवासी उसके सहृदयता पूर्ण व्यवहार से बड़े प्रसन्न और प्रभावित हुए।
कुछ लोगों ने आपस में उसकी महानता की चर्चा की, कुछ ने आंखों के द्वारा अपनी मौनवाणी से उसका आभार व्यक्त किया और कुछ लोग उसके पास जाकर शब्दों में अपनी शुभकामनायें व्यक्त करते हुए जाकर कहा ‘ईश्वर करें आप दरोगा बन जायं।’ भोले ग्रामवासी एक कलेक्टर की शक्ति को क्या समझ सकते थे।
स्वामी जी की दया को मैं कैसे शब्दों में बांध सकती हूं। मेरे जीवन का हर क्षण उनकी दया से संचालित होता रहा है। मुझे सदा उनकी आत्मीयता मिली है, स्नेह मिला है कृपा मिली है। कुछ घटनायें ऐसी हैं जो मेरे लिए अविस्मरणीय हैं। उन्हें मैं कभी भी नहीं भूल सकती।
मुझे 10 जुलाई 52 का वह दिन आज भी अच्छी तरह याद है जिस शुभ दिन को हमने प्रथम बार स्वामी जी के दर्शन किये थे। यद्यपि पहले दिन मेरे ऊपर कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ा था, यह मुझे अच्छी तरह याद है, लेकिन उस दिन की महत्ता मेरे लिए आज बहुत है। उसके बाद स्वामी जी की कृपा ने अपनी तरफ आकर्षित कर ही लिया।
10 जुलाई को आम सत्संग प्रारंभ करने का प्रथम दिन था। उसके चार या पांच दिनों बाद अर्थात् 14 या 15 जुलाई को जिसकी मुझे ठीक याद नहीं है पहली बार नामदान स्वामी जी ने दिया था। प्रथम पांच व्यक्तियों में, मैं भी एक थी। अन्य लोगों में मेरी अम्मा (श्रीमति जगतारण देवी) चाचा श्यामकृष्ण जी, जो अब दिवंगत हो चुके हैं, भैया और भाभी (श्रीमति कमलादेवी ) थीं।
स्वामी जी का सानिध्य हम सबको बराबर मिलता रहा। अतः उनको कई रूपों में देखने का अवसर भी प्राप्त हुआ है। कभी गंभीर उपदेशक के रूप में, कभी परिवार के सदस्य के रूप में, प्रत्येक रूप में उनकी महानता के दिग्दर्शन होते रहे हैं। वह दिन भी क्या थे।
कभी-कभी विचारों की लड़ी एक एक करके आने लगती है तो हर घटना कल की मालूम पड़ती है। आज जो समय हमें देखने को मिल रहा है उसका इशारा कभी कभी उस समय जब स्वामी जी दिया करते थे तो हम उनसे पूछते थे स्वामी जी यह कैसे हो जायेगा।
स्वामी जी हंसते थे और कहते थे समय बता देगा। स्वामी जी का एक वाक्य मुझे प्रायः याद आता है। उस समय हमें जबर्दस्ती बैठाते थे और कहते थे पूछ ले जो भी पूछना चाहे, बैठ ले पास में बैठ ले नही तो एक समय आयेगा कि मेरे पास आने के लिए समय नहीं मिल पायेगा। और अब उसका अनुभव होने लगा है।
मुझे एक घटना याद आती है। अब भी तो मन ही मन में संकुचित हो उठती हूं। मेरे एडमिशन की परीक्षा चल रही थी संस्कृत का पेपर था। स्वामी जी महाराज बनारस में हम सबके साथ में ही थे। मैं पेपर करके लौटी थी। आंगन में लेटे थे, मुझे देखकर उन्होंने पूछा कैसा पर्चा किया है, ला दिखा। मैंने कहा ठीक ही हुआ है, और पर्चा स्वामी जी के हाथ में दे दिया। स्वामी जी पर्चा देखने में लगे मैंने मन ही मन सोचा स्वामी जी भला क्या संस्कृत समझेंगे।
मेरा सोचना था कि स्वामी जी ने पर्चे पर से निगाह उठाकर मुझको देखा और मुस्कुरा कर बोले ‘थोड़ी बहुत संस्कृत समझ लेता हूं’। मैं कट कर रह गई। उसके बाद स्वामी जी महाराज प्रश्न बगैरह पूछने लगे। मैं यह बता दूं कि स्वामी जी ने ऐसे अनेक दुविधाजनक या निरर्थक भावनाओं का जवाब मेरे बिना कुछ बोले ही दे दिया है।
मुझे याद है हिंन्दी पद्य की परीक्षा थी। स्वामी जी ने कहा ला किताब मैं तुझे समझा दूंगा और कबीर के दोहे पढ़ाये थे और कहा था लिख देना तेरी टीचर्स क्या समझेगी। इस प्रकार अपने दैनिक जीवन में हम स्वामी का आशीर्वाद, निकटता और प्यार पाते रहे।
स्वामी जी का एक गंभीर रूप आज भी मेरी नजरों में ज्यों का त्यों विद्यमान है। एक आंधी बहुत ही भयंकर रूप से उठी थी इस महापुरुष की वाणी को दबाने के लिए। इस प्रसंग में एक बात कह दूं कि जब कभी ऐसी आंधी विरोधी परिस्थितियों की उठती है तो उसकी जड़ में राह चलते लोग नहीं हुआ करते हैं। वही लोग होते हैं जो सत्संग में बैठा करते हैं। यह मेरा कटु अनुभव है। खैर वह भी एक भयंकर आंधी थी। किंतु इस सत्य की वाणी को उसके झोके न दबा सके थे न दबा सके। परिणाम स्वरूप कुछ लोग बिखर अवश्य गये।
हां तो बात उस समय की है मैं स्वामी जी के पास बैठी थी। मैंने स्वामी जी से कुछ बात भी कही। आज भी मुझे याद है स्वामी जी लेटे थे एकदम उठकर बैठ गये और बोले तू बता मुझसे बड़ा कौन है ?
मैं अवाक् देखती रह गयी। स्वामी जी ने अपनी भंगिम बदली और कहा ‘अभी मेरी दाढ़ी काली है, इसलिए लोग समझते नही हैं। इसी प्रकार एक प्रेमी था जिससे लोग चिढ़े थे और उसकी नौकरी लेने के लिए तुल गए थे उसकी शिकायत उसके मालिक तक की गयी थीं।
स्वामी जी एक दिन कमरे में दो चार लोगों के बीच बैठे थे जो उस व्यक्ति की शिकायत करते थे। स्वामी जी ने बड़ी गंभीर आवाज में कहा था ‘अगर उसकी नौकरी चली गई तो सत्य भी प्रकट होकर रहेगा।’ स्वामी जी की गंभीर वाणी से वहां बैठे हम सभी लोग सहम गये।
एक बात और मैं बताकर इस प्रसंग को समाप्त करूंगी। एक बार की बात है मेरी ननद, नन्दोई और उनके बच्चे लखनऊ घूमने आये थे। उसी दिन पता चला स्वामी जी आये हुए हैं और सेठ धन्नूमल जो मवइया में रहते थे वहीं ठहरे हैं। स्वामी जी कुछ दिन पूर्व आये थे और लखनऊ से कहीं गये हुए थे। उनका सामान सब घर पर ही रखा था।
स्वामी जी आये, माडल हाउस न आकर वे मवइया में ही रुक गये। ये तो चले गये और पहले मुझसे कह गये ‘तुम जीजा जीजी तथा बच्चों को खिला पिलाकर उनके आदि का प्रबंध कर लेना उसके बाद मैं आऊंगा और तुमको लिवा चलूंगा।
मैंने सारे कामों को निबटा लिया। मैं भी नई नई इन लोगों के बीच में आयी थी अतः मुझे डर था कि कहीं मुझे रोक न लें।
इन्होंने जीजाजी से कहा मुन्नी के एक रिश्तेदार आये और आज ही उन्हें जाना है अतः हम लोग उनसे मिलने जा रहे हैें आप लोग आराम करियेगा और हम लोग जायेंगे हम स्वामी जी के पास गये। स्वामीजी ने पूछा कि तुमने उनसे बता दिया है कि कहां जा रहे हो?
स्वामी जी के इस प्रश्न पर हम दोनों सिट पिटा से गये। इस पर स्वामी जी ने कहा था ‘नाचन निकसी बाबरी फिर घूंघट कैसा, नाच न जाने बाबरी कहे आंगन टेढ़ा’ खैर हम लोग रात को करीब 12 बजे माडल हाउस लौटे। दूसरे दिन सुबह की बात है हम सभी नाश्ता करने की तैयारी कर रहे थे, जीजाजी शेव कर रहे थे उन्हीं की प्रतीक्षा थी इतने में स्वामी जी महाराज कार लिए पहुंचे। एकाएक स्वामी जी को देखकर हम लोग हड़बड़ाकर उठ खड़े हुए।
जीजाजी शेव बनाते बनाते स्वामी जी के अभिवादन को आगे बढ़े। स्वामी जी बड़े प्यार से मिले ओर जीजाजी से बोले- मैंने कल इन दोनों को डांटा इनको कहके आने चाहिए था नही तो पता नहीं क्या क्या विचार उठ जाते हैं।’ हमें एक बहुत बड़ा सबक मिला।
क्या-क्या कहूं अनेक स्मृतियां हैं। उनकी दया हर क्षण हम पर उतरती दिखाई पड़ती है। मैं आप सबसे इतना जरूर कहूंगी कि यदि आपको मुझमें किसी अच्छाई का कभी आभास मिले तो आप निश्चित रूप से यह समझियेगा कि उस महान की मेरे ऊपर असीम कृपा का परिचायक है। अन्यथा मैं क्या कहूं, क्या बताऊं ‘सब विधि अवगुण हार मैं।’
-- मुन्नी (लखनऊ)
साभार, अतीत के आईने से
शेष क्रमशः पोस्ट न. 15 में पढ़ें
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