स्वामी जी के डायरी के पन्ने 13*

अमृत वाणी 

*( प्रतिदिन के विचार )*


*1. सत्संगी की रहनी*

*✓*  प्रत्येक सत्संगी को जब वह सत्संग में उपस्थित हो उसे सावधानी यह रखनी जरूरी है कि अपने वादे के अनुसार सदा अपनी दैनिक क्रिया में तत्पर रहे और सत्य के पथ को अपनाने में कुसंग से बचता रहे। 
ताकि अपना स्वभाव संसारी भाव का न बनने पाये। 

आदत ही को बदलना संतमत की खास हिदायत है। अपनी जीव की दिनचर्या सदा गुरु चरणों में गुजारना चाहिए। और जो भी प्रसाद रूखा सूखा मिले उसे गुरु प्रसाद भाव से स्वीकार कर लेना चाहिए। और समय समय पर साधन में अपने को तन्मय करने की पूर्ण साधना करते रहना चाहिए। 

जब तक यह साधन सिद्ध न हो जाये तब तक यही साधना करने में लगे रहना अनिवार्य है। 
विशेष ध्यान अपने कर्म पर रखना जरूरी है।



*2.  साथ रहने वालों की रहनी*

*✓*  आज सीकर ही रहा। साथी जनों को उपदेश है कि जिस कार्य हेतु अपना घर छोड़ा है वही काम करना। 
विचरने की हालत में साथी जनों को अपने रहन सहन, बोल चाल और आंखों को सम्हाल कर रखना है। 

क्योंकि यहां माया का जोर चल रहा है। किसी वक्त भी साथी जन के मन को विचलित कर सकता है। 
क्योंकि मैंने अपना निजी अनुभव किया है कि गुरु जब देशाटन अपने प्रेमी जनों के हित करते हैं तब उनको हर भाव में जाना पड़ता है। 

गुरु के निकटवर्ती साथी अपनी कल्पित बुद्धि से कुछ का कुछ समझता है और अभाव अवस्था में आकर के बैठने, उठने, खाने, पीने, बोलने, सोने में लापरवाही करता है। 

इसका परिणाम यह होता है कि साधक की साधना और भाव की बुद्धि सुस्त और कुन्द हो जाती है। इससे निकटवर्ती साथी साधना में सुस्त होकर गुरु की हर क्रिया से महरूम रहेगा,  यानी दया न पा सकेगा। 

गुरु के साथ चुस्त और होशियार रहना जरूरी है। अपने शरीर को गला देना जरूरी है। जिस नियम को गुरु बना दे उसी पर हाबी रहना चाहिए। गुरु की हर कृपा पर आशिक रहना शिष्य का मुख्य धर्म है।


*✓*  गुरु की कृपा साथी जनों पर बहुत होती है। साथी जन अपना विचार मजबूत नही कर पाते हैं जिन कर्मो के वश होकर जीव को नर्को की असह्य त्रास पाना है। 

गुरु इसी असह त्रास से छुटकारा कराता है। 
गुरु चाहता है कि निकटवर्ती साधक शुद्ध भाव में आकर अचल साधना सुरत के जगाने की करने लगे और अपना जलवा आप देखें।  पर साधक किसी न किसी क्रिया का शिकार होकर साधन की मनोवृत्ति बदल कर संसारी भाव की मनोवृत्ति में रमण (भ्रमण) करने लगता है। 

साधकों!  होशियार रहो, जो रास्ते में गाफिली करोगे उसी में लूट लिये जाओगे।
*निगुरा मुझको न मिले, पापी मिलें हजार।*
*इक निगुरे के शीश पर लख पापियों का भार।।*



*3. आज का जमाना*

*✓*   हर मनुष्य अपनी भावना में आजाद हो गये हैं। जैसे चाहें देखें, सुने, बोलें और बरतें कर्म भी आजाद। इसी से संसार में पाप हो रहा है। 

अनाचार तो इतना फैल गया है कि आदमी के रोम रोम में बस गया है। 
दिल्ली में तो आदमी इस कदर भाग रहे हैं जैसे कहीं आग लग गई हो सब बुझाने जा रहे हों। 
कोई किसी का साथी नजर नहीं आता है। हर आदमी पैसे के पीछे पड़ा है। हाय पैसा, हाय पैसा कैसे आवे ? 

औरतें चिल्लाती हैं कि जल्दी चूड़ियां और हार साड़ियां लाओ। यहीं आवाजें शहरों में उठ रही हैं। 
इन्हें कहां फुरसत जो महात्माओं की आवाज सुनें। इनके ऊपर मुसीबत का पहाड़ टूटने वाला है।
*आ रहा है जमाना, आ रहा है जमाना। साधुओं का बोल बाला होगा।।*

*✓*   आज दुनिया दुखी है । प्रार्थना करके पूछती है कि दुख से छूटने का सामान होगा? होगा जरूर पर अभी कुछ देर है। 
जब दुख की सीमा का अन्त होता है हद उसी वक्त दुख विसर्जन की सूचना होती है और सुख पाने का आव्हान होता है। आयेगा वह वक्त जरूर पर समय पर। 

एक आदमी का प्रश्न है कि क्या होगा, दुनिया खत्म होगी? कब होगी? 
तीस वर्ष हैं।  इसी में पाप बढ़ेंगे आबादी कम होगी, मुल्क के मुल्क खत्म होंगे, मनुष्य को बैठने की जगह नहीं रहेगी।

-  युग महापुरुष बाबा जयगुरुदेव
   तारीख- 1 जनवरी 1965

जयगुरुदेव
शेष क्रमशः अगली पोस्ट  no. 14  में...
 
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