परमार्थी वचन संग्रह
जयगुरुदेव ★ याद रखो गुरु के वचन 12*
( *सत्संग के मोती* )
*41.* दूसरे के द्वारा तुम्हारा थोड़ा सा भी भला हो अथवा तुम्हें सुख पहुंचे तो उसका हृदय से उपकार मानो, ऐसा न सोचो कि उसका मेरे ऊपर क्या उपकार है, वह तो निमित्त मात्र है।
*41.* दूसरे के द्वारा तुम्हारा थोड़ा सा भी भला हो अथवा तुम्हें सुख पहुंचे तो उसका हृदय से उपकार मानो, ऐसा न सोचो कि उसका मेरे ऊपर क्या उपकार है, वह तो निमित्त मात्र है।
बल्कि यह जानो कि उसने निमित्त बनकर तुम पर बड़ी ही दया की है। उसके उपकार को जीवन भर याद रक्खो।
समय बदल जाने से उसे भूल न जाओ और सदा उसकी सेवा करने और सुख पहुंचाने का प्रयास करते रहो।
काम पड़ने पर हजारों मनुष्यों के सामने भी उसका उपकार स्वीकार करने में संकोच न करो।
ऐसा करने से परस्पर प्रेम पैदा होता रहेगा, आनन्द और शान्ति की वृद्धि होगी। लोगों से दूसरों को सुख पहुंचाने की शक्ति और आधिकाधिक पैदा होगी। सहानुभूती और सेवा भाव उत्पन्न होंगे।
याद रक्खो, सेवा करके जो मनुष्य लोगों की निगाह में कृतज्ञ होता है उसका आदर्श कभी नहीं गिरता है। सेवा की भावना और प्रबल हो उठती है और उसका सहायक सदा परमात्मा रहता है जो उसे अपनी शक्ति से प्रोत्साहन देता रहता है।
*42.* हमें जो दूसरों में दोष दिखाई देते हैं उसका मुख्य कारण हमारी चित्त की दूषित भावना ही होती है। अपने चित्त को निर्दोष बना लो फिर संसार में दोषी बहुत ही थोड़े दीखेंगे।
*43.* सदा अपने दोषों को देखने की आदत डालो। बड़ी ही होशियारी से अपने मन के दोषों को देखो। तुम्हें मालूम होगा कि तुम्हारा मन दोषों से भरा है। फिर तुम्हारी यह दशा होगी कि दूसरों के पापों के देखने की फुरसत ही नहीं मिलेगी।
*44.* जीवन बहुत थोड़ा है, सबसे प्रेम पूर्वक हिलमिलकर चलो और सबसे शुद्ध बर्ताव करो।
मधुर वाणी का विस्तार करते जाओ, विष की बून्द कहीं न डालो। तुम्हारा प्रेम पूर्ण व्यवहार अमृत, और द्वेष पूर्ण व्यवहार विष है।
*45.* यदि क्षण भर के लिए कोई मनुष्य तुमसे मिले तो अपने प्रेम पूर्ण सरल व्यवहार से उसके हृदय में अमृत भर दो।
होशियार रहो, तुम्हारे पास से कोई विष न ले जाय। हृदय से विष निकाल कर अमृत भर लो। पग-पग पर केवल वहीं अमृत वितरण करो।
*46.* जाति, वर्ण, विद्या, धन या पद में तुम बड़े हो, इसलिए तुम अपने को बड़ा मत समझो।
हमेशा याद रक्खो सबमें एक ही प्रभु रह रहा है।
*47.* व्यवहार मे सब प्रकार की समता असम्भव और हानिकारक है, इससे व्यवहार में आवश्यकतानुसार विषमता रखते हुए भी मन में समता रक्खो।
आत्म रूप से सबको एक ही समान मानो।
किसी को अपने से छोटा समझकर उससे घृणा न करो, और अपने बड़प्पन का अहंकार ही न आने दो।
बड़ा और उच्च वही है जो अपने को समसे छोटा मानता है। इस मंत्र को सदा याद करते रहो।
*48.* परमात्मा सदा तुम्हारे साथ है, इस बात को किसी काल में मत भूलो। परमात्मा को साथ जानने का भाव तुम्हें निर्भय और निष्पाप बनाने में मददगार होगा।
यह संकल्प नही है, सचमुच ही परमात्मा सर्वदा सबके साथ हाजिर नाजिर है।
*49.* परमात्मा की सत्ता पर पूर्ण विश्वास रक्खो, जिस दिन परमात्मा की सत्ता का पूर्णविश्वास हो जायेगा, उस दिन तुम पाप रहित होकर परमात्मा के सम्मुख पहुंच जाओगे।
*50.* कुसंग से सदा बचना चाहिए और सत्संग का सदा आश्रय लेना चाहिए।
विषयी मनुष्य का संग तो बहुत ही हानिकारक है, चैतन्य की बात ही जुदा है। मन और इन्द्रियां सदा जड़ पदार्थ में ही लगी रहती हैं। इससे विषयी मनुष्य को चैतन्य का भान नही होता है और कुकर्म करके विषयी चौरासी में सदा के लिए चला जाता है।
*51.* परमात्मा के विरोध की बात कभी भूल कर भी नही करनी चाहिए। और न परमात्मा के भक्तजनों की निन्दा करना चाहिए। यही सबसे बड़ा पाप है।
*52.* गुण- दोष सबमें रहते हैं, गल्ती सभी से हो जाया करती है। यदि तुम किसी का काम देखते ही दोष देखने लगोगे तो तुम्हारी मनोवृत्ति आगे चलकर बहुत ही खराब हो जायेगी। तुम्हें नेक से नेक काम में भी दोष ही दीखेगा। खुद दुःख पाओगे और दूसरों को दुख पहुंचाओगे।
इसके एवज में तुम गुण देखोगे तो तुम्हारी मनोवृत्ति शुद्ध रहेगी और तुम्हारा चित्त, मन शान्त रहेगा। सबमें गुण देखने की आदत डालो। फिर तुम्हें स्वयं अनुभव होगा कि कितना आनन्द मिलता है।
*53.* इज्जतदार बनो, सच्ची इज्जत क्या है पहले इस बात को जानो। अन्याय से धन कमाकर भी धन की वजह से मनुष्य इस दुनिया में इज्जतदार कहला सकता है। लेकिन परमात्मा के यहां उसकी इज्जत नही है।
यहां निर्धनता से जीवन बिताने वाला मनुष्य, संसारी निगाह से गिरा हुआ भी सत्य, धर्म के मार्ग से नहीं गिरता तो वही सच्चा इज्जतदार है।
*54.* मान बड़ाई के लालच में धर्म को छोड़ न दो। मान बड़ाई को तलुओं तले कुचल डालो पर सत धर्म को बचा लो।
*55.* धन, मकान, विद्या, मनुष्य आदि के बल पर अहंकार न करो। यह सब पल भर में नष्ट हो जाता है। सत्य बल ईश्वर बल है।
*56.* जहां अस्पताल, डाॅक्टर, वैद्य अधिक हों वहां समझो कि मनुष्यों का शारिरिक पतन हो चुका है। जहां वकील ज्यादा हों और अदालत में भीड़ रहती हो तो समझों कि वहां मनुष्य की ईमानदारी खत्म हो चुकी है। और जहां गन्दी पुस्तक और साहित्य बिकता हो, अच्छी तरह समझो कि वहां मनुष्य का नैतिक पतन हो चुका है।
*57.* केवल दवा और अस्पतालों से रोगों का जाना असम्भव है। रोग मन, बुद्धि व इन्द्रिय संयम से जाते हैं।
संसार में नाकिस विषयों की आग जल रही है। इसी आग से मनुष्य अपनी मन, इन्द्रियां जला रहा है। और इसके साथ जीव दुख पा रहा है।
*58* सत्संग से इन्द्रियां दमन और मन की शुद्धि होती है अतः कुसंग त्यागकर सतसंग का सेवन करना चाहिए।
वकील और अदालत से ही झगड़ों की जड़ नही कटती। झगड़ों की जड़ काटने के लिए सबसे जरूरी बात यह है कि ईमानदारी से तुम दूसरों का हक मारना छोड़ दो।
*59* प्रभु के प्रेम को प्राप्त करना ही मनुष्य जीवन का मुख्य ध्येय है। इस बात को याद रखना चाहिए कि प्रभु की प्राप्ति गुरु की कृपा से ही होगी। उनके चिन्तन में चित्त रक्खो, उनकी प्रत्येक देन को सिर चढ़ाकर प्रेम से स्वीकार करो, उनकी प्रत्येक आज्ञा का पूरा-पूरा पालन करो और उनसे कुछ न मांगो केवल चरणों का आधार मांगो।
*60* एक दिन जरूर मरना है इस बात को भूलो मत। मृत्यु के भयानक संकट को याद रक्खो।
मरते हुए मनुष्य के शरीर की घृणित दशा को याद करो। उसके दुख से भरे हुए निराश नेत्रों की भयानकता का ध्यान करो। एक दिन तुम्हारी भी यही दशा होने वाली है।
*61* मृत्यु की विपदा से एकबार डर होगा, रोग होगा, संसार में अंधकार दिखाई देगा, निराशा होगी। परन्तु इससे घबराओ मत, निराशा ही तुम्हारे सुख का कारण होगी।
इसी से तुम प्रभु का दर्शन कर सकोगे और इसी निराशा से जगत में ईश्वर के प्राप्त करने वाले भक्तजनों की पहचान कर सकोगे।
*62* प्रभु पर कभी भी अविश्वास न करो, यह सबसे बड़ा पाप है। प्रभु के नाम व रूप पर विश्वास रक्खो।
सन्तो ने प्रभु के रूप, नाम, स्थान और धुन का हाल सम्पूर्णता से अपनी वाणियों में वर्णन किया है। और जो कुछ कहा अथवा लिखकर छोड़ गये वह सच्चा है।
अनामी महा प्रभु की प्राप्ति बगैर सन्त सतगुरु के नही होगी। क्योंकि सतगुरु ही प्रभु के भेदी हैं।
आज तक ग्रन्थ आदि पढ़कर प्रभु का भेद किसी ने नही जाना, न जान सकते हैं। केवल सन्तों की युक्ति अनुसार साधन करने से ही सब भेद मालूम होगा।
*63* बहुत से मनुष्य गुरु का महत्व नहीं समझ पाते हैं। कुछ लोगों का विचार है कि धर्म की प्रणाली के अनुसार निमित्त मात्र गुरु करना अनिवार्य होगा क्योंकि धर्म पुस्तकें यह कहती हैं कि गुरु के बगैर गति नहीं हुआ करती है।
इसलिए किसी मतावलम्बी गुरु को कर लेना चाहिए। वह चाहे किसी मत या किसी सिद्धान्त का हो। गुरु कर भी लिया पर यह विचार नहीं हुआ कि गुरु क्यों किया जाता है। गुरु के उपदेश को न समझ सके तो लाभ ही क्या हुआ। गुरु करते हैं, जिससे साधना करके शरीर रहते ही ईश्वर की प्राप्ति हो जाय।
जयगुरुदेव
शेष क्रमशः अगली पोस्ट no. 13 में...
Parmarthi vachan sangrah
yad rakho guru ke vachan
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