*सतगुरु के वचन*
*21* सच्चा प्रभु का प्रेमी वही है जिसका अन्तःकरण सब पापों से रहित है और अपने गुरुदेव के चरणों में नित्य प्रति हमेशा लगा रहता है।
*22* भक्त और साधु बनना चाहिए कहलाना नही चाहिए। जो दिखाने के लिए भक्त बनना चाहते हैं वे तो पापों से ठगे जाते हैं। ऐसे लोगों पर पहला हमला झूठ का होता है।
*23* दुष्कर्मी मनुष्य ही अपने पापों का दोष हल्का करते या पापों में रत होने के लिए शास्त्रों का तथा सद्ग्रन्थों का मनमाना अर्थ करता है। और उससे अपना स्वार्थ हासिल करता है। भगवान श्री कृष्ण में कलंक बताता है।
*24* कृष्ण का उदाहरण देकर पाप करने वाले कलंकी हैं। वह (कृष्ण) शुद्ध चरित्र सदा नित्य निष्कलंक हैं।
*25* जिसको गुरुदेव का भक्त बनना है उसको अपना हृदय सदा शुद्ध करना चाहिए और नित्य एकांत में ध्यान और भजन यानि शब्द का अभ्यास करना चाहिए कि हे गुरु, ऐसी कृपा करो जिससे मैं तुम्हें हर समय देखकर कुछ भी वासना उठने और रहने न दूं।
तुम हृदय रूपी देश में अपना स्थिर आसन जमा लो जिससे पल पल मैं तुम्हें निरखता रहूं और तुम्हारा आनन्द लेता रहूं।
*26* ऊपरी पवित्रता की अपेक्षा हृदय की पवित्रता मनुष्य के जीवन को उज्जवल बनाने में बहुत अधिक सहायता देती है।
मनुष्य को काम, क्रोध, लोभ, मोह, हिंसा और दम्भ आदि के दुर्गन्ध भरे कूड़ों को बाहर निकालकर हृदय को प्रभु के बैठने के लिए साफ रखना चाहिए।
*27* जब तुम्हारा हृदय कूड़ों से बिल्कुल साफ हो जावे तो तुमको चाहिए कि सन्त साधुओं से प्रभु की प्राप्ति का मार्ग दीन हीनता के साथ पूछना चाहिए, और उनसे भेद लेकर तन, मन से साधना प्रारंभ करनी चाहिए।
*28* अपने दोषों को बाहर से कहलवाने का प्रयास न कर मन से निर्दोष बनना चाहिए। मन से निर्दोष मनुष्य को दुनिया दोषी बतलावे तो कोई भी हानि नहीं, लेकिन मन में दोष रखकर बाहर से निर्दोष कहलाना हानिकारक है।
*29* निर्दोष सत्कार्य को किसी भय संकोच या अल्पमति के कारण किसी काल में नहीं छोड़ना चाहिए।
सुकर्म की निर्दोषता उसकी महान उपकारिता और तुुम्हारी स्वीकृती श्रद्धा तथा टेक के प्रभाव से आज नही तो कुछ वर्षों बाद लोग उस कार्य को जरूर ही अच्छा कहेंगे।
*30* अपने विरोधी को अनुकूल बनाने के लिए सबसे उत्तम और सीधा यत्न यह है कि उसके साथ सरल और सच्चा प्रेम करो। वह तुमसे रुष्ट रहे और तुम्हारी बुराई करता हो तो तुम्हारा कर्तव्य है कि तुम उसका हित ही चाहो और उससे बराबर प्रेम करते रहो।
*31* अपने कार्य में आलस न करना ही सफलता की कुंजी है, और ऐसे मनुष्य पर ही परमात्मा की कृपा होती है और जब परमात्मा की कृपा हुई तो साधना में मन लगता है।
*32* किसी भी मनुष्य के मुंह से कोई बात अपने विरुद्ध सुनते हो तो उसे अपना दुश्मन मत मान लो।
द्वेष का कारण ढूढो और उसे मिटाने का सच्चे हृदय से प्रयत्न करो।
हो सकता है तुम्हारी गल्ती हो जो तुम्हें अब तक दीख न पड़ी हो अथवा वह ही किसी बुरी वासना के वश होकर उस प्रवाह में बह गया हो।
ऐसी हालत में प्रेम और शान्ति से काम लेना चाहिए।
*33* अपने अन्तःकरण को भी टटोलते रहना साधक का मुख्य धर्म है। अन्तःकरण में काम, क्रोध, हिंसा, द्वेष, बैर, ईर्ष्या, मान, अहंकार अपना घर न करने पावे।
बुरा कहलाना अच्छा है, परन्तु अच्छा कहलाकर बुरा बने रहना ही बहुत खराब है।
*34* तुम्हारे शरीर से किसी प्राणी का उपकार हो जाये तो यह घमण्ड न करो कि मैंने उसका उपकार किया है।
यह निश्चय जानो कि उसको तुम्हारे द्वारा बनी हुई सेवा से जो सुख मिलता है सो निश्चय ही उसके शुभ कर्म का फल है। तुम तो निमित बन गये हो।
महाप्रभु का धन्यवाद करो जो उसने तुम्हें किसी को सुख पहुंचाने के निमित्त बनाया। और उस जीव का उपकार मानो जो उसने तुम्हारी सेवा अंगीकार की।
वह यदि तुम्हारा एहसान माने अथवा नीचता प्रकट करे तो ही मन में संकुचाओ और परमदयाल से प्रार्थना करो कि हे गुरुदेव, आप सदा अच्छे कार्य में प्रोत्साहन देते रहना और बुराई से बचाना और भलाई पर सदा तत्पर रहने देना।
*35* उस पर कभी एहसान न करो कि मैने तुम्हारा एहसान किया है। एहसान करोगे तो उसपर बहुत बोझ पड़ जायेगा, वह दुखी होगा। आइन्दा तुम्हारी सेवा अंगीकार करने में उसे संकोच होगा। फिर तुम उसे नीच समझोगे। उसका परिणाम यह होगा कि तुम्हारे और उसके बीच में द्वेष पैदा होगा।
इस बात को कभी ध्यान में न लाओ कि हमने किसी की सेवा की है।
*36* तुम्हारे शरीर से यदि किसी प्राणी का अनिष्ट हो जाये तो अपने दयाल सन्त सतगुरु से प्रार्थना करो और आइन्दा होशियार रहो कि इस प्रकार की गल्ती न करुंगा।
*37* यह बात सदा याद रक्खो कि यदि तुम्हें जब दूसरे के द्वारा जरा भी कष्ट मिलता है तो तुम्हें अपने हृदय में कितना दुख मालूम होता है।
इस वास्ते कभी भूल कर भी किसी का नुकसान न चाहो। प्रभु से सदा यह प्रार्थना करते रहना चाहिए कि प्रभु व हे गुरुदेव, मुझे ऐसी सद्बुद्धि व सद्भावना दो कि मैं किसी प्राणी मात्र जीव को दुख न दूं। और सदैव सबके साथ सत्कर्म करता रहूं और साध सेवा करता रहूं।
कोढ़ी, दुखी, अपाहिज को देखकर मन में हिचक न पैदा करो। अतएव यह सदा समझते रहो कि इनके पिछले जन्मों का फल है जैसा कि वे उसका फल पा रहे हैं। उससे घृणा व रूखापन न लाओ, वह चाहे पूर्व का कितना ही पापी हो। तुम्हारा धर्म उसके पाप देखने का नही है। तुम्हारा धर्म भलाई करना तथा सेवा करने का है। तुम्हारे प्रभु की तुम्हारे प्रति यही आज्ञा है।
*38* यदि तुम किसी प्राणी मात्र के साथ भलाई व सेवा नही कर सकते हो तो कभी दूसरे को दुख देने का प्रयास न करो।
यदि तुम दुख देने का प्रयास करोगे तो तुम्ही दोषी समझे जाओगे।
*39* हो सकता है कि उससे किसी परिस्थिति में आकर भूल से ऐसा काम बन गया जिससे तुम्हें कष्ट पहुंचता हो। परन्तु हो सकता है कि अब उसके भीतर पश्चाताप की आग जल रही हो और वह संकोच में पड़ा है।
ऐसी अवस्था में तुम्हारा कर्तव्य है कि उसके साथ प्रेम करो अच्छे से अच्छा व्यवहार करो। उससे कह दो कि भाई तुम पश्चाताप क्यों कर रहे हो। तुम्हारा इसमें दोष ही क्या है।
मुझे जो दुख प्राप्त हुआ है वह मेरे पूर्व कर्म का फल है। तुमने तो मेरा उपकार ही किया जो मुझे अपना कर्म फल भुगतने में कारण बने हो। शर्म छोड़ दो।
तुम्हारे सच्चे हृदय की इन सच्ची बातों से उसके हृदय की आग बुझ जायेगी। आगे किसी का बुरा न करेगा।
यदि तुमको अपनी अज्ञानतावश उसने कष्ट पहुंचाया होगा और इस बात से उसके मन में पश्चाताप के बदले आनन्द होता होगा तो तुम्हारे अच्छे बर्ताव और प्रेम व्यवहार से उसके हृदय में पश्चाताप उत्पन्न होगा।
तुम्हारी भलाई से उसका सिर झुक जायेगा। उसका हृदय स्वच्छ हो जायेगा। यह निश्चय है।
यद्यपि ऐसा न हो तो भी तुम्हारा कोई नुकसान नहीं । तुम्हारा मन तो सुन्दर प्रेम के व्यवहार से शुद्ध औरी शीतल रहेगा।
*40* उसके प्रति द्वेष कभी मत करो। द्वेष करोगे तो तुम्हारे मन में बैर, हिंसा आदि अनेक नये- नये पापों के संस्कार उत्पन्न हो जावेंगे फिर उसका मन भी शु़द्ध नहीं रहेगा। फिर इसका परिणाम क्या होगा कि तुम्हारे और उसके बीच द्वेष पैदा हो जावेगा।
तत्पश्चात सदा दोनों का हृदय जलता रहेगा।
इसी जलने की वजह से कभी भी ईश्वर का नाम न ले सकोगे।
जयगुरुदेव
शेष क्रमशः अगली पोस्ट no. 12 में...
https://www.amratvani.com/2020/01/Guru-ke-Vachan.html
Parmarthi vachan sangrah
yad rakho guru ke vachan
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जयगुरुदेव प्रार्थना |
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Jaigurudev