जयगुरुदेव ● स्थिर चित्त रूपी आले में प्रभु दर्शन

● अमृत वाणी ●

*महापुरुषों की प्रार्थनायें सुरतों को दिया दिखाती हैं।*

बाबा जयगुरुदेव जी महाराज ने सत्संग सुनाते हुए कहा कि महापुरुषों की जो प्रार्थनायें होती हैं वह सुरतों को दिया दिखाती हैं। जो प्रार्थना मालिक का गुणगान करती हैं उसी का उपयोग होता है।

प्रार्थना में कहा गया ‘अरबों खरबों चांद सितारे, रोम रोम में करें उजारे’
लेकिन सच यह है कि उस प्रभु के सामने यह कुछ नहीं, एक दिया ही है। यह सब मालिक की सन्तों ने प्रार्थना की। इसीलिए लोगों की समझ  में नहीं आता है।

वह लोक, वह मालिक इतना बड़ा है इतना प्रकाशमान है कि यहां शब्द ही नहीं और खरबों बरस तक वहां सफर करते रहो आदि अन्त का पता  ही नहीं चलता। 

योगियों ने, ज्ञानियों ने स्वर्ग बैकुण्ठ देखा। उन्होनें कहा कि मृत्युलोक से बड़ा स्वर्ग है, स्वर्ग  से बड़ा बैकुण्ठ है लेकिन जो सत्तलोक  पहुंचा और उसको देखा तो उसने कहा कि इस लोक के आगे स्वर्ग-बैकुण्ठ, ब्रह्माण्ड, महाकाल पुरुष का लोक कुछ नहीं है। यह विकार है। पछताना पड़ेगा।

जो इन्द्रियों के दरवाजे पर भटकता रहता है और सोचता रहता है कि कुछ आनन्द मिल जाएगा तो वो अन्दर अन्दर जल, तप रहा है, बवंडर की तरह भाग रहा है, संकल्प विकल्प कर रहा है वहां अन्दर ही अन्दर उसकी तपाई हो रही है। जो विकार पहले दूसरों  को परेशान करने लगता है फिर खुद को। 

जब ऐसी अवस्था आती है तो बहुत तकलीफ होती है। तब सिवाय पछताने के और कुछ नहीं रह जाता।

 नाम, रूप का सुमिरन करोगे तो तुम्हारे मन को आधार मिलेगा और यह धीरे धीरे चुप  होगा। 
नामदान मिल गया पर करोगे कुछ नही, तो यह भागता रहेगा। जब नाम से जुड़ेगा तो चुप हो जायेगा और सुरत अपना काम करने लगेगी। जब सुरत में ताकत आयेगी तो जरूरत  पड़ी इससे काम ले लिया, जरूरत पड़ने पर  क्रोध कर लिया, शिक्षा के लिए डांट फटकार देते हैं। लेकिन अन्तर मेंं कोई असर नहीं। 

अपने अन्दर यह मालूम हो जाएगा कि मैंने उसके लिए क्यों क्रोध किया। यही तो महात्मा करते हैं। उनके दिलों में किसी के लिए दुभार्वना नहीं होती। 
हां शिक्षा के लिए कभी डांट, फटकार देते हैं लेकिन अन्तर में सबके लिए प्यार होता है। क्योंकि वो जानते हैं कि ये भूली हुई आत्मायें हैं
धीरे धीरे चेत जायेंगी।
इसीलिए जीवों को जगाने में वो लगे रहते हैं।


*स्थिर चित्त रूपी आले में प्रभु दर्शन*


घट भीतर तू जाग री हे सुरत पुरानी। 
बिना दश झांकत री, सब मर्म भुलानी।।
महात्मा कहते हैं  कि हे सुरत, आत्मा!  तू आदि घर से आई है, उसे तूने छोड़ दिया । तू अपने निजी घर को छोड़कर आई है। अब तू पुराना घर कैसे पायेगी ? अन्दर घर में झांक वहां एक झांकी है।

एक साधक ने बताया वह झांकी अदभुत और निराली है। उसमें एक खुर्द बीन वाली ऐनक है। जब उसमें अपनी सुरत आत्मा पर गौर किया तो दूर की चीजें बहुत साफ दिखाई देती हैं। तब ही तुमको विश्वास होगा।


क्या गोस्वामी जी ऐसे ही कहते थे।-
1. जथा सुअंजन अंजि दृग, साधक सिद्ध सुजान। 
    कौतुक देखत  सैल बन,    भूतल भूरि निधान।।
2 श्री गुरुपद नख मणिगण जोति। 
    सुमिरत दिव्य  दृष्टि हिय  होती।।
3. दलन मोह तम सो सुप्रकासू। 
    बड़े भाग्स उर आबहिं जासू।।
4. उघरहिं विमल बिलोचन हिय के। 
    मिटहिं दोष दुख भव रजनी के।।
5. सूझहिं रामचरित   मनि मानिक। 
    गुप्त प्रकट जहं जो जेहि खानिक।।

जयगुरुदेव

amratvani
baba jaigurudev

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