*Spiritual Question- Answer* [12]

जयगुरुदेव 【 *आपके प्रश्नोत्तर* 】

*प्रश्न ६५- महाराज जी ! मैं नामदान लेना चाहता हूं, मुझे क्या करना होगा ?*

उत्तर -पहले कुछ दिन सत्संग सुनें तब बात समझ आयेगी। जब इच्छा जाग्रत हो कि हम भी भजन करें तब नामदान लेना चाहिए। जल्दी बाजी ठीक नहीं है। वैसे जब आप किसी महापुरुष के सम्मुख आ जाते हैं तब वो आपको अपने दायरे में ले लेते हैं और सम्हाल करते हैं। नामदान लेने के पहले दो बातों की सख्त हिदायत है। पहला शाकाहारी रहना होगा और दूसरी कोई ऐसा नशा नहीं करना होगा जिससे बुद्धि पागल हो जाए।

बाकी तो यह है कि पारिवारिक, सामाजिक, धार्मिक तथा राज्य के नियमों का पालन करना चाहिए। अपनी स्त्री को स्त्री समझें, अपने पति को पति समझें। कहने का मतलब निगाहें सही होना चाहिए।

इतनी बातों को मन स्वीकार करले फिर नामदान लेकर जोश खरोश के साथ भजन करें तो जल्दी दया हो जायेगी। दया का मतलब ये कि जीवात्मा की आंख खुल जायेगी और आध्यात्मिक सफर प्रारम्भ हो जायेगा। उन देवी देवताओं को जिन्हें आप कल्पना समझ कर पूजते रहे हैं वे सभी आपको रूहानी सफर में जगह जगह मिलते जायेंगे, दर्शन देते जायेंगे।  गुरु भी उस मण्डल में आपको मिलेंगे और उन सबका परिचय करायेंगे।
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*प्रश्न ६६- गुरुजी ! नामदान लेने के बाद भी मैने गुनाह किया है जो क्षमा योग्य नहीं है। क्या होगा ?*

उत्तर- आगे गुनाह मत करो। जो किया है उसका भुगतान तो करना ही पड़ेगा। प्रायश्चित करो, रोओ और कठोर श्रम करके पापों को धोओ।
साथ में भजन ध्यान करते रहो। हर तरह से दीन बनकर छोटा बनकर चुप रहकर सत्संग में लगे रहो और अपने गुनाहों की माफी मांगते रहो तो सम्भव है कि गुरु दरबार में माफी मिल सकती है।
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*प्रश्न  - ६७. गुरुजी ! कर्म का ईश्वरीय विधान क्या है ?*

उत्तर- मनुष्य शरीर की उम्र विधाता ने निर्धारित नहीं की है बल्कि स्वांसो की पूंजी दी है। हम गिनती की श्वांसों को चाहे जल्दी खर्च कर दें अथवा देर मे खर्च करें, यह हमारे ऊपर है। जिस दिन आखिरी स्वांस निकलेगी उसी समय यह शरीर गिर जायेगा और आत्मा निकल जायेगी।

हम लोग जो कुछ भी कर्म इस जन्म में करते हैं उसका फल अगले जन्म का भाग्य बन जाता है। कर्मों का कुछ हिस्सा काल भगवान हमारे संचित कोष में रख देते हैं, ताकि कभी हमारे कर्म खत्म हो जायें इस भण्डार में से हमें दे दिये जाएं।  परन्तु ऐसा अवसर शायद कभी नहीं आता। कर्म के बिना काल भगवान किसी भी  आत्मा को शरीर के बन्धन में नहीं रख सकते और काया के बिना कर्म नहीं हो सकता।  

यह काल भगवान की मर्जी है कि वह संचित कर्मों में से लेकर आपके भाग्य में जोड़ दे या क्रियामान कर्मों से कुछ कर्म संचित कर्मों के कोष में मिला दें । यह कर्मों का विधान है।  हम अच्छा करें अथवा बुरा, उसके अनुसार हमें अच्छा-बुरा फल भोगना पड़ेगा।

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*प्रश्न ६८- महाराज जी! क्या धार्मिक पुस्तकों के पढ़ने से हमें ज्ञान प्राप्त नहीं हो सकता ?*

उत्तर - महात्माओं ने जो कुछ भी लिखा है, उसका अनुभव किया है, साधना की है। एक मोटी बात। कृष्ण ने गीता बनाया, गीता ने कृष्ण को नहीं बनाया। गोस्वामी तुलसीदास जी ने रामायण बनाया, रामायण ने गोस्वामी जी को नहीं बनाया।  

उसी प्रकार ब्रह्मा ने वेद बनाया, वेद ने ब्रह्मा को नहीं बनाया। इन ग्रन्थों में यह लिखा है कि उन तत्वदर्शी महात्माओं के पास जाओ जिनकी दिव्य आंख खुली है, और ऊपर के दिव्य लोकों में नित्य आते जाते रहते हैं। वहीं तुम्हे सच्चा ज्ञान दे सकते हैं, आत्मज्ञान दे सकते हैं। जीवात्मा की आंख जिसे शिवनेत्र कहते हैं खोल सकते हैं। शिवनेत्र खुलने के बाद ही आध्यात्मिक पढ़ाई की शुरुआत होती है।

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*प्रश्न ६९- स्वामी जी ! नित्य अवतार किसे कहते हैं ?*

उत्तर - ऊपर से दो प्रकार की शक्तियां इस भूमण्डल पर आती हैं। पहली वह शक्ति है जिसे निमित्त अवतार कहते हैं। जब समाज बिगड़ जाता है, पाप बढ़ जाता है, चारित्रिक पतन हो जाता है, स्त्री पुरुष, बच्चे बच्चियों का चारित्रिक पतन हो जाता है, तो परमात्मा अपनी शक्तियों को यहां भेजता है। मां के गर्भ से बच्चे पैदा होते हैं। 

वे हमारी तरह से रहते हैं, खाते पीते सोते जागते हैं। उनमें और हममें बाहर से कोई विशेष अन्तर नहीं होता। राम और कृष्ण इसी तरह से आये और उन्होने अपना काम किया, अधर्मियों का संहार किया और धर्म की स्थापना की । उनके जाने के बाद उनका इतिहास बना।

दूसरा नित्य अवतार है। इन शक्तियों को सन्त कहते हैं। यह बराबर भूमण्डल पर रहती हैं। इन्हें गुप्त सन्त कहते हैं। यह नित्य सत्तलोक में जाकर यहां का समाचार देते रहते हैं।
प्रगट सन्त जीवों के उद्धार का काम करते रहते हैं। जीवात्माओं को जो 

मानव शरीर में हैं उन्हें समझाते हैं कि तुम सब सतदेश की रहने वाली हो, अपने घर चलो। पराये देश में कोई सुख नहीं। सत्तलोक अपना देश है। वहां कोई दुःख तकलीफ नहीं, आनन्द ही आनन्द है। जो जीव उनकी बात मान लेते हैं, उन्हे नामदान देकर, साधना कराकर, ऊपरी मण्डलों को दिखाते हुए सत्तलोक पहुंचा देते हैं। ऐसे सन्त, सत्तपुरुष के अवतार कहे जाते हैं।

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*प्रश्न - ७० स्वामी जी! बड़ी अशांति है। दुनिया में आग लगी है कैसे बचा जाये ?*

उत्तर  - अभी तो सब खाने पीने में मस्त हैं। क्या खाना चाहिए क्या नहीं खाना चाहिए इसका कोई ज्ञान नही तो नई नई बीमारियां तो होगी ही, और डाक्टर का इलाज भी फायदा नहीं करेगा। ईश्वरीय विधान है कि अशुद्ध आहार करने वाला नरक की यातनायें भोगेगा। सभी लोग झूठ बोलने लगे। जिसको चाहो लूट लो, मार दो। तुम्हें पता नहीं है कि जिसका सामान तुमने लूटा है उसकी आह तुमको चैन से नहीं बैठने देगी।
*मत सता किसी जीव को वो रो देगा,*
*सुनेगा उसका मालिक तुम्हें जड़ से खो देगा।*

चारों तरफ कोहराम मचा हुआ है। परमात्मा बहुत नाराज है और कर्म अनुसार सख्त से सख्त सजा देने जा रहा है। कोई भी बचने वाला नहीं है। भजन ही एक ऐसा रास्ता है जिससे राहत मिल सकती है। कष्ट भजन से ही जायेगा, इसलिए जोश खरोश के साथ भजन में सबको लग जाना चाहिए। परिवर्तन की घड़ी में बुद्धि विवके से काम लो, बर्ना फिसल गये तो नुकसान हो जायेगा।

जयगुरुदेव
शेष क्रमशः पोस्ट न. 13 में पढ़ें  👇🏽

रूहानीभेद बताने वाले बाबा जयगुरुदेव जी महाराज 

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