● *२८. स्वामी जी ! राम नाम या कृष्ण नाम का जाप करने से मुक्ति मिल जाएगी ?*
उत्तर - मुक्ति बहुत ऊंचे रूहानी मंडलों को पार करने के बाद मिलती है अर्थात आत्मा जब अपने सारे गिलाफों (स्थूल, लिंग, सूक्ष्म, और कारण) को उतार देती है और उसके बाद मान सरोवर में स्नान करती है तब मुक्ति मिलती है । और फिर जीवात्मा जन्म-मरण के चक्कर में नहीं आती। इस स्थूल का मोटा पर्दा जीवात्मा पर चढ़ा हुआ है यानी इस पंचभौतिक पर्दे में वह बंद है ।
संत सतगुरु द्वारा बताई गई साधना को करने में जीव आत्मा इस शरीर को छोड़कर अलग हो जाती है । मृत्यु के समय निकल जाने के बाद यह वापस शरीर में नहीं आती । किंतु अभ्यास के द्वारा जैसा गुरु ने बताया है वह जीते जी शरीर से अलग होकर ऊपरी मंडलों की शेर करती है । देवी देवताओं से मिलती है और फिर वापस शरीर में लौट आती है ।
जड़ यह शरीर है और चेतन यह आत्मा है दोनों की गांठ बंधी हुई है ।
जब अभ्यास के द्वारा यह गांठ खुलती है तब जीवात्मा प्रकाश में खड़ी हो जाती है और उसे इस लोक का और ऊपर के लोकों- स्वर्ग बैैकुंठ आदि का ज्ञान होने लगता है । तो जबान से किसी का भी नाम लिया जाए उससे मुक्ति मोक्ष मिलने वाला नहीं ।
उस नाम का जाप करने से जो अपने आप चारों युगों से एक रफ्तार से बज रहा है मुक्ति मिलेगी ।
उसे अनहद वाणी, आकाशवाणी, देववाणी आदि नामों से पुकारते हैं।
वह ईश्वरीय संगीत इस मनुष्य शरीर में दोनों आंखों के मध्य भाग में जहां जीवात्मा बैठी है बराबर हो रहा है किंतु जीवात्मा के कान बंद है इसलिए सुनाई नहीं देता।
उस नाम की जो ईश्वरीय संगीत है बड़ी महिमा है ।
गोस्वामी जी ने कहा है कि-
कहां कहउं लगि नाम बड़ाई,
राम न सकहिं नाम गुन गाई।
● *२९. स्वामी जी ! भजन में तरक्की नहीं होती क्या करें ?*
उत्तर - इसमें तुम्हारे मन का कसूर है । तुम्हें सत्संग नहीं मिलता मन पर कोई लगाम नहीं जहां चाहता है भागता रहता है । संसार के सामानों के लिए अनावश्यक तृष्णा और भजन को गैर जरूरी समझना यह सब कारण है जिससे भजन नहीं हो पाता है । मन को लगाकर सुमिरन करो तब एकाग्रता आएगी और जब एकाग्रता आएगी तब सुरत का फैला प्रकाश धीरे धीरे से सिमटने लगेगा।
सिमटाव होने पर आत्मा शरीर को छोड़ना शुरू कर देगी है और शरीर सुन्न होने लगता है। शरीर के नौ द्वारों से जब जीवात्मा का प्रकाश खिंच जाएगा तब दोनों आंखों के पीछे दसवें द्वार से वह निकल कर बाहर चली जाएगी और ऊपर के मंडलों का भ्रमण करने लगेगी । लेकिन यह सब तभी होगा जब तुम लगन और मेहनत के साथ सुमिरन, ध्यान और भजन करोगे। अभी तो मन फैला हुआ है और संसारी वस्तुओं को आध्यात्मिक वस्तुओं के मुकाबले अधिक महत्वपूर्ण समझता है ।सांसारिक विद्या मन को फैलाती है और पराविद्या मन का सिमटाव करती है।
● *३०. स्वामीजी ! भाग्य कैसे बनाया जाता है ?*
उत्तर- परमात्मा जिसे हम काल भगवान भी कहते हैं वही हमारे भाग्य विधाता हैं। और जो कुछ भी कर्म हम मनुष्य शरीर में करते हैं उसका फल अगले जन्म का भाग्य बन जाता है । इस कर्म का कुछ हिस्सा हमारे सामान्य कोष में जमा हो जाता है ताकि कभी हमारे कर्म खत्म हो जाए तो उस कोष में से प्रारब्ध बनाया जा सके । कर्म के बिना काल भगवान किसी भी आत्मा को शरीर के बंधन में नहीं रख सकते और बगैर काया के करम नहीं हो सकता। यह तो काल भगवान की मर्जी है कि वह संचित कर्मों में से लेकर तुम्हारे भाग में जोड़ दें या क्रियामान कर्मों में से कुछ कर्म संचित कर्मों के कोष में मिला दें।
जो दैनिक जीवन में हम अच्छे बुरे कर्म करते हैं उन्हें क्रियमाण कर्म कहा जाता है । प्रारब्ध के प्रति हम सब बेबस हैं और प्रारब्ध कर्म भोगने पड़ते हैं। हर सांस पर कर्मों का हिसाब चल रहा है । भविष्य के लिए नए कर्मों का बीज बोने के लिए हम स्वतंत्र हैं। अच्छा करें या बुरा करें कर्म फल अवश्य मिलेगा । अच्छा करेंगे तो स्वर्ग बैकुंठ में स्थान मिलेगा और यदि बुरा करेंगे तो नरकों और चौरासी लाख योनियों में सजाएं भुगतनी पड़ेगी।
● *३१. स्वामी जी कुछ लोग अंतर से आपका विरोध करते हैं पर जाहिर नहीं होने देते ऐसा क्यों ?*
उत्तर - पता तो हमको लग जाता है । हमारे गुरु महाराज ने ऐसी आंख दे रखी है जो दूसरों के दिल की बात हम दूर से जान लेते हैं पर हम उस को प्रकट नहीं करते और ना करना चाहते हैं । महात्मा सब के दोषों को जानते हैं और देखते हुए छुपाए रहते हैं। इसी तरह उनके सेवक का भी यही काम है की मालूम हो जाने पर भी दूसरों के अवगुणों को छुपाए और उनके किसी काम में रुकावट ना डालें वरना अपराधी समझा जाता है । महात्मा ऐसे लोगों को भजन साधन में लगा देते हैं ताकि आगे इससे उनका संस्कार बनेगा और कुछ भला ही होगा।
● *३२. स्वामी जी ! भजन ध्यान में उन्नति नहीं होती क्या करें ?*
उत्तर- जब गुरु में अथवा नाम में विश्वास का अभाव रहता है तो वास्तविक उन्नति नहीं हो सकती। जिस समय गुरु नाम दान देता है उसी वक्त से वह सत्संगी के अंग संग हो जाता है और बराबर अंदर से निगाह रखता है । जरूरत पड़ने पर वह बराबर शिष्य की मदद करता रहता है। भजन तब बनेगा जब गुरु से प्यार होगा, तड़प होगी, दर्शन की प्यासी बनी रहेगी । गुरु चेतन है उसे हाड़ मांस का पुतला यानी इंसान समझना भयंकर भूल है । गुरु के चेतन स्वरूप की शक्ति की पहचान तभी होती है जब साधक दोनों आंखों के पीछे पहुंचकर प्रकाश में खड़ा हो जाता है और अपनी रूहानी यात्रा प्रारंभ कर देता है।
जयगुरुदेव ●
शेष क्रमशः पोस्ट न. 7 में पढ़ें 👇🏽
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