जयगुरुदेव
*समय का संदेश*
सतसंग दिनांक - 25.08.2024
सतसंग स्थल - बावल, रेवाड़ी, हरियाणा।
1. *ध्यान - भजन और सतसंग में मन क्यों नहीं लगता है?*
जाने - अनजाने में जो कर्म बन जाते हैं, यही ध्यान - भजन में आड़े आते हैं और शरीर से जो कर्म और ज्यादा गंदा बन जाता है तो उससे भी मन नहीं लगता है। ऐसे कर्मों की वजह से भजन, ध्यान में बैठने में, सतसंग में आने में भी मन बिल्कुल नहीं लगता है। अब वह तो संस्कार है, संस्कार जगा हुआ है, जो खींच करके ले आता है। जैसे छोटी सी चिंगारी रुई के पहाड़ को जला देती है, ऐसे ही यह संस्कार, जो संतों ने डाला है, वही उन सामने के कर्मों को जला करके जीवों को खींच कर सन्तों के पास सतसंग में ले आया करता है।
2. *साधक को किन चीजों से बचना चाहिए?*
खानपान, चाल - चलन, संग - साथ, स्थान का असर साधना पर पड़ता है। इससे आदमी को, साधक को बचना चाहिए। जब तक साधक इससे नहीं बचेगा, तब तक ये कर्म आते रहेंगे और भजन में बाधा डालते रहेंगे। भजन में मन को नहीं लगने देंगे और न जीवात्मा को घाट पर आने देंगे। जीवात्मा का इस मृत्यु लोक का घाट, जहाँ से इस मृत्यु लोक, इस पिंडी शरीर को छोड़कर जीवात्मा आगे निकलती है, उस स्थान पर यह कर्म जीवात्मा को आने नहीं देंगे, बैठने नहीं देंगे।
3. *कैसा प्रसाद खाना चाहिए?*
प्रसाद कई तरह से बनता है जैसे छू कर, दृष्टि डाल कर और खाकर। तो प्रसाद किसका खाना चाहिए? भोग लगाया हुआ खाना चाहिए। छुए हुए का ऐसा, जिसके अंदर ऊपर से धार उतरती हो। धार किसको कहते हैं-
कबीर धारा अगम की,
सतगुरु दई लखाय।
उलटि ताहि सुमिरन करो,
स्वामी संग मिलाय॥
धार माने धारा। ऊपर से जो जीवात्मा की धार उतर रही है, उस धार से जुड़ी हुई जो जीवात्मा होती है, वह जिस शरीर में रहती है, उस शरीर से स्पर्श किया हुआ प्रसाद खाना चाहिए।
4. *साधकों को झूठा और अशुद्ध अन्न खाने से बचना चाहिए।*
होटल में जो खाते हैं या आजकल जिनके यहाँ झूठा खाने का कोई भी ध्यान नहीं है, ऐसे लोगों के यहां खाते पीते हैं, उससे साधकों को बचना चाहिए। उसी हाथ से खाया, उसी से नमक निकाल लिया, उसी से मिर्ची निकाल ली, उसी से रोटी खा रहे हैं, चावल खा रहे हैं, उसी हाथ से चीनी भी ऐसे निकाल ली, वही चम्मच पकड़ा, तो वह एक तरह से झूठा हो जाता है। इन चीजों का जो ध्यान नहीं रखते हैं तो कई लोगों का झूठा उसमें आ जाता है। साधक को इन सब चीजों का ध्यान रखना चाहिए। बाजार की, होटल की चीजों में कोई गारंटी शुद्धता की नहीं रहती है, इसलिए कोशिश साधक को यही करनी चाहिए कि वह अपने घर की ही रोटी खाये।
5. *भाव और मेहनत की कमाई से बने भोजन से मन, बुद्धि, चित्त सही रहते हैं।*
भाव से जो भोजन बनाया जाता है, उसमें ज्यादा पवित्रता रहती है। इसलिए कहा जाता है कि भोजन बनाने वाले को नाराज नहीं करना चाहिए। जब वह टेंशन में, नाराजगी में रहेगा तो नाराजगी में लोग नमक ही ज्यादा कर देते हैं, मिर्ची ही ज्यादा कर देते हैं। यह सेवा करने वाले हैं, नाराज कर दो तो पैर दबाते समय और जोर से दबा देंगे, हड्डी दर्द करने लगेगी। ये एक उदाहरण आपको मैं दे रहा हूँ। उनको खुश रखना चाहिए,उनसे उलझना नहीं चाहिए और घर में जो भाव से बना हुआ भोजन होता है, मेहनत की कमाई से जो भोजन बनता है, उससे मन भी प्रसन्न रहता है, सुरत का साथ देता है, चित्त भी अच्छा चिंतन करता है, बुद्धि भी सही रहती है।
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भटकती युवा पीढ़ी को सही दिशा देने वाले सन्त बाबा उमाकांत जी महाराज |
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