*सन्तों, साधकों, भक्तों की होली-दीवाली रोज की होती है -सन्त बाबा उमाकान्त जी महाराज*

जयगुरुदेव

03.08.2024
प्रेस नोट
उज्जैन (म.प्र.)


*सन्तों, साधकों, भक्तों की होली-दीवाली रोज की होती है -सन्त बाबा उमाकान्त जी महाराज*

*सतसंग मिलने पर सब तरह की जानकारी हो जाती है, पहले भी लोग त्योंहारों पर महात्माओं के आश्रमों पर जाते रहते थे*


रोज ही होली-दिवाली मनाने का तरीका नामदान सबको बिना किसी भेदभाव के बताने वाले, अपने सतसंग में सब तरह का ज्ञान करा देने वाले, भक्तों के कर्म कर्जे को आसानी से कटवाने, चुकता करा देने वाले, इस समय के पूरे समरथ सन्त सतगुरु दुःखहर्ता, उज्जैन वाले बाबा उमाकान्त जी महाराज ने अधिकृत यूट्यूब चैनल जयगुरुदेवयूकेएम पर लाइव प्रसारित संदेश में बताया कि 

जब साधक मिलते हैं, सतसंग मिलता है तब हर तरह की जानकारी होती है कि प्रारब्ध कैसे बनता है? कर्म कैसे बनते हैं? कर्मों से कैसे बचा जाता है, कर्मों की होली कैसे जलाई जाती है, जीवात्मा कैसे कर्म मुक्त होती है। साध संग मोहे देव नित, परम गुरु दातार। साधक का संग, सन्त का संग, बड़ा ही फलदाई होता है। तो एक-दूसरे से मिलते रहने से बहुत सी चीजों की जानकारी होती है। क्योंकि सन्त इस धरती पर हमेशा रहते हैं और अपने मत को फैलाते हैं। लेकिन जब वह चले जाते हैं तब वह मत धीरे धीरे दबने लगता है। 

अगर उसको बनाए रखने वाला या उभारने, फैलाने वाला नहीं मिला तो वो खत्म होने लगता है। तो वो एक-आध पीढ़ी ऐसी चलती है, उसके बाद में फिर कोई आ जाता है तब उसका वो विस्तार करता है। तो सन्त और सन्तमत हमेशा रहा है। सन्तमत सबके समझ में जल्दी नहीं आता है। इसलिए समझने-समझाने के लिए मेल-मिलाप जरूरी होता है। त्यौहारों में देखो, लोग महात्माओं के आश्रमों पर जाते थे और समझते थे कि त्यौहार का मतलब क्या होता है? त्यौहार में क्या किया जाता है। और जब उनके बताए हिसाब से त्यौहार लोग मनाते थे तो पूरा लाभ मिलता था।

*सन्तों, साधकों, भक्तों की होली दीवाली रोज की होती है*

यहां पर तो साल में एक दिन होली खेलते हैं लेकिन ऊपरी लोको में तो होली रोज ही होती रहती है। जो जैसा चाहे वैसा खेले। सतगुरु संग खेले होली, सतगुरु के साथ होली खेलो, अपने सह निवासियों के साथ खेलो, कोई दिक्कत नहीं है। कभी भी आप होली खेलो, कभी भी दिवाली मनाओ। कहा सन्तों, साधकों, भक्तों, त्रिकालदर्शीयों की होली-दिवाली रोज की होती है। तो यहां की दिवाली-होली वहीं की नकल है। असल को पकड़ो। 

असल को पकड़ोगे तो बात बन जाए। आज होली पर हो-लो और यहां (आश्रम) से (वापस घर) जाओ तो बराबर आप भजन, ध्यान, सुमरिन में लगो और लोगों को लगाओ। लोगों को लगाना पुण्य का काम है। देखो जैसे कहते हैं कि रोटी खिलाना, पानी पिलाना, किसी के दु:ख को दूर करना पुण्य का काम होता है, ऐसे ही जीवात्मा को भोजन कराना, सुखी बनाना, उसकी तकलीफ को दूर करना, यह भी बहुत बड़ा पुण्य का, परमार्थी काम होता है। 

परमार्थी काम की वजह से ही लोगों की पूजा हुई है। वृक्ष न कबहों फल भखे, नदी न संचय नीर, परमार्थ के कारने, संतन धरा शरीर। सन्त दूसरों की भलाई के लिए आते हैं। जैसे पेड़-नदी खुद अपना फल-पानी नहीं खाते-पीते, दूसरे को खिलाते-पिलाते हैं। लोग धृष्टता, गलती भी करते हैं, इधर से लोग पत्थर मारते हैं तब भी वह पेड़ फल देता है। सोचो, कितना बड़ा परोपकारी है। इसी तरह से जो सन्त आते हैं, वो परोपकार करते हैं। सन्तों को ही तो लोग मानते हैं, भोगी को नहीं।

*जब सच्चे समर्थ गुरु मिल जाते हैं तब गुरु के आदेश का पालन किया जाता है*

जब गुरु मिल जाते हैं तो गुरु के आदेश का पालन किया जाता है और गुरु फिर अपने आदेश से क्या कराते हैं? कर्मों को जलवाते, कटवाते हैं। उनको सब तरीका मालूम होता है। कौनसा तरीका? शरीर से बने कर्म को शरीर से सेवा करवा कर कटवाते, खत्म करा देते हैं। कुछ शिष्य अपने आप काटता है और जो नहीं काट पाता है, गुरु उन (कर्म) को अपने ऊपर लेकर के, उसके कर्मों को जलाते हैं। वो समझो गुणातीत कर देते हैं। 


यह अच्छा गुण, बुरा गुण जो उसके अंदर है। गुरु शरीर से सेवा लेकर के वह सब खत्म कर देते हैं। दूसरा तरीका क्या होता है? धन से बहुत सा अपराध, कर्म बन जाता है। न जानकारी में गलत जगह पर धन लगा देने पर उसका कर्म आ जाता है तो उस कर्म को धन की सेवा करवा करके कटवा देते हैं। सन्त न भूखा तेरे धन का, उनके तो धन है नाम रतन का, पर तेरे धन से कुछ करवावे, भुखे दुखे को खिलवावे। जो हम-आप कुछ देते रहे गुरु महाराज को, वो किसके लिए उन्होंने किया? हमारे-आपके लिए किया, आने वाली पीढ़ी के लिए किया। तो उसको उन्होंने अच्छे कामों में लगाया। आपका जो लेना-देना था, एक-दूसरे का कर्जा था, वो अदा करा दिया।










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