SANT VACHAN BABA JAIGURUDEV JI MAHARAJ

↪ महात्माओें के पास जाओ तो बहुत सोच समझकर । 
हम तो बहुत भटके गुरु महाराज की तलाश में और सच तो यह है कि अगर गुरु महाराज ने हमको यह आदेश न दिया होता कि यह दौलत सबको बाट देना तो यह दौलत रखी ही रहती, मैं चुपचाप किसी जंगल में भजन करता । लेकिन उनका आदेश सिर माथे है।


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 वैसे ये काम सबसे खराब, सबको समझाओ चेताओ गंदगी को ढोओ। 
नामदान देने में जितनी मेहनत महात्माओं को करनी होती है उतनी मेहनत किसी काम में नहीं। इसे तुम क्या समझोगे।
   -- वचन स्वामी जी महाराज


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↪ भक्तों की भी मिशाल होती है। कोई भी परिस्थिति आई भक्ति नहीं छोड़ी, उन्ही का नाम रह जाता है। भक्तों ने सबके शब्दों को बर्दाश्त किया, कोई कुछ भी कहे, कढुवे वचन कहे वो अपनी भक्ति की मस्ती में इतने डूबे रहे कि उन पर कोई असर ही नहीं हुआ। 
इसलिये कुमति की तरफ से तुम मुरझा जाओ, सुमति को अपना लो, सुमति रहेगी तो जिंदा रहोगे, भाव भक्ति में सत्संग में लगे रहोगे।

जयगुरुदेव आध्यात्मिक सन्देश

सत्संग इसको कहते हैं
बताते हैं कि एक बार वशिष्ठ मुनि और ऋषि विश्वामित्र में बहस छिड़ गई। वशिष्ठ जी ने कहा कि सत्संग का फल बड़ा है किन्तु विश्वामित्र जी इससे सहमत नहीं थे। फैसले के लिए दोनों शेषनाग के पास गए जिन्होनें पृथ्वी का भार उठा रक्खा था। उन दोनों की बात सुनने के बाद शेषनाग ने कहा कि मैं तो पृथ्वी के भार से दबा हूं आप इस भार को थोड़ी सी देर के लिए उतार दें तो विचार करुं। 

विश्वामित्र जी ने कहा कि मैं अपनी दस हजार साल की तपस्या का फल देता हूं। पृथ्वी में तेज कंपन हुई, हिली फिर स्थिर हो गई। इसके बाद वशिष्ठ जी का नम्बर आया। उन्होंने संकल्प किया कि एक पल के सत्संग का फल देता हूं। संकल्प करते ही पृथ्वी शेषनाग के सिर से उतरकर अलग खड़ी हो गई। फिर शेषनाग जी ने वशिष्ठ जी और विश्वामित्र जी दोनों से कहा कि आप अपने आप फैसला कर लो। अनुभवी और पंहुचे हुए महापुरुषों के वचनों को सुनने और उनका साथ करने को ही सत्संग कहते हैं। सत्त का साथ ही सत्संग है और सन्त ही सत्त हैं, सत्तपुरुष हैं।

पत्रिका 7 फर. से 13 फर. 2002


भूली बिसरी बातें
बात पुरानी है। बाबा जयगुरुदेव जी महाराज ने सबसे पहले आश्रम मथुरा के कृष्णानगर मोहल्ले में बनवाया था। चिरौली सन्त आश्रम के नाम से विख्यात यह आश्रम अब भी वहीं है। जगह बहुत छोटी पड़ने के कारण मधुवन क्षैत्र में वाईपास पर जमीन खरीदकर बाबाजी ने नया आश्रम बनवाया जहां पर अब सभी कार्यक्रम किए जाते हैं। स्वामी जी उन दिनों अपनी फिएट गाड़ी स्वयं चलाते थे। एक बार स्वामी जी के साथ कार में मैं भी मथुरा गया। यात्रा मे बहुत आनन्द आया। रात्रि के दस बजे हम लोग आश्रम पर पहुंचे, भोजन बना। 

बाराबंकी के सत्संगी रामनरेश तिवारी भी साथ थे। हम लोगों ने खाना खाया और सो गये। प्रातः काल उठने के बाद प्रार्थना हुई। सब लोग हाथ मुंह धोकर बाहर बैठे थे। बहुत थोड़े लोग आश्रम पर रहते थे। स्वामी जी महाराज ने सबको दर्शन दिया। बरामदे में स्वामी जी महाराज कुर्सी पर बैठे थे और नीचे मैं बैठा हुुआ स्वामी जी से बातें कर रहा था। इतने में एक कुत्ता आ गया आश्रम पर ही रहता था। उसका नाम मोती था। 

आते ही वह स्वामी जी महाराज के चरणों को चाटने लगा। मेरा ध्यान उस कुत्ते पर चला गया। मैं सोचने लगा कि गुरुमहाराज की चरण धूल को पाने के लिए लोग तरसते हैं किन्तु यह कुत्ता बड़े आराम से चरणों को चाट रहा है और मालिक कुछ भी नहीं बोल रहे हैं। मैं अपने को रोक नहीं पाया और पूछ ही बैठा कि मालिक यह कौनसा भाग्यशाली जीव है जिस पर इतनी दया हो रही है। स्वामी जी महाराज मुस्कुराये और फिर बोले कि पाटलिपुत्र के इतिहास को पढ़ो। एक ब्राह्मण सम्राट हुआ है। उसने एक बार एक महात्मा का अपमान कर दिया था। इसीलिए उसे चौरासी लाख योनियों में भटकना पड़ा। यह वही जीव है। अब इसे मनुष्य शरीर मिल जाएगा। 

यह सुनकर मैं कभी कुत्ते को प्यार से देखता कभी स्वामी जी को देखता और सोचता कि हम लोग चरण छूने को आगे बढते हैं तो मालिक चरण पीछे खींच लेते हैं और यह कुत्ता कितना भाग्यशाली है कि चरण चाट रहा है मानो अमृत पी रहा हो और मालिक कुछ नही बोल रहे है। मैं अपने विचारों में तब तक खोया रहा जब तक स्वामी जी मुझे मेरा नाम लेकर बुलाया नहीं। - आर. के पाण्डे, लखनऊ
शाकाहारी पत्रिका 14 से 20 मई 2002



जयगुरुदेव....
 
Baba Jaigurudev ji maharaj


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