बाबा सावन सिंह जी महाराज के समय की एक सच्ची घटना (post28)
जयगुरुदेव आध्यात्मिक सन्देश
सन 1947 से पहले की बात है। एक दम्पति अपने एक नवजात शिशु के साथ डेरा व्यास में दर्शन करने आए। उन्होंने बड़े प्रेम से बाबा सावन सिंह जी महाराज का सत्संग सुना और "नामदान" लेकर ही घर वापस जाने का विचार बनाया। उनको "नामदान" की बख़्शिश हो गई।
पत्नी का ध्यान अपने बच्चे की ओर आया और अपने दीनदयाल सतगुरु जी से विनती की," गुरू जी ! आप हमारे इस बच्चे को भी "नामदान" की बख़्शिश कर दीजिए।"
गुरू जी ने कहा," बेटी ! अभी यह बहुत छोटा है, जब यह बड़ा हो जाएगा तो मैं इसे भी "नामदान" दे दूँगा।"
वे वापस अपने घर चले गए। वे जहाँ से आए थे, वो स्थान आजकल पाकिस्तान में है। कुछ ही दिनों में हिन्दुस्तान और पाकिस्तान के बँटबारे की बातें होने लगीं। आख़िरकार वो समय आ ही गया। पति शाम को जब दफ़्तर से घर आया तो उसने अपनी पत्नी से कहा," सरकार ने अपना फ़ैसला सुना दिया है कि देश का बँटवारा हो गया है; जो हिन्दू हैं वो यहाँ से हिन्दुस्तान चले जाएँ।
कल सुबह चार बजे लाहौर से एक ट्रेन हिन्दुस्तान के लिए रवाना होगी और हमें उसमें जाना पड़ेगा। इसलिए बहुत ही कम और ज़रूरी सामान एक ट्रंक में रख लो और दो तीन समय का खाना बना कर इसी ट्रंक में रख लेना क्योंकि हालात बहुत ख़राब हैं। ट्रेन कहाँ रुकेगी, कब तक रुकी रहेगी और कब हिन्दुस्तान पहुँचेंगे, कुछ भी मालूम नहीं है।"
पत्नी ने ज़रूरी सामान, खाना और पैसे एक ट्रंक में रख लिए। पति ने ट्रंक अपने कन्धे पर और पत्नी ने बच्चे को अपनी गोद में उठाया। उस समय उनके दिल पर क्या गुज़री होगी जब उनको अपनी मेहनत से बनाया घर छोड़ कर ऐसी जगह के लिए जाना पड़ा होगा जहाँ अपना न कोई घर है न अपना कोई सगा-सम्बन्धी।
घर से बाहर गली में आए। एक गली से निकलते तो दूसरी गली में जाते। रास्ते में लुटेरों ने चारों ओर से नाकाबंदी कर रखी थी कि जिस भी आदमी के पास जो कुछ भी मिले, उससे छीन लो और उसे जान से मार दो।
दूर बैठे लुटेरों ने उन्हें आते हुए देखकर शोर मचा दिया कि देखो वो लोग उधर से जा रहे हैं, इनका सामान लूट लो और इन्हें जान से मार दो। पति-पत्नी बेचारे जान बचाने के लिए कभी इस गली में तो कभी उस गली में भाग रहे थे।
हर तरफ़ से यही आवाज़ें आ रही थीं। दोनों तेज़ी से भाग रहे थे कि पति अचानक ठोकर खाकर गिर गया और कन्धे पर रखा हुआ ट्रंक भी गिर गया। पति ट्रंक को उठाने की कोशिश कर रहा था कि फिर पीछे से वही आवाज़ें सुनाई देने लगी।
पत्नी ने कहा," ट्रंक छोड़ कर भागो, अपनी जान बचाओ।"
ट्रंक वहीं छूट गया। आगे जाकर पत्नी को भी ज़ोर से ठोकर लगी और उसकी गोद से बच्चा भी नीचे गिर गया। लुटेरों ने कभी आगे से तो कभी पीछे से इनका पीछा नहीं छोड़ा। पत्नी ने जैसे ही अपने बच्चे को उठाने की कोशिश की तो पीछे से फिर वही आवाज़ें सुनाई देने लगीं। पति ने कहा कि " जल्दी भाग कर अपनी जान बचाओ।"
बच्चा वहीं पड़ा रह गया, उठाने का मौका ही नहीं मिला। पति-पत्नी दोनों भाग रहे थे कि उन्हें रेलवे लाईन के पास एक स्थान पर जंगला टूटा हुआ दिखाई दिया और दोनों उसमें से निकल कर रेलवे पटरी के साथ साथ भागते गए।
लुटेरों को पता न लगा कि वो कौन से रास्ते से निकल गए हैं। लुटेरों ने एक स्थान पर अपना डेरा लगा लिया कि अब उनके निकलने का कोई दूसरा रास्ता तो है नहीं, वो आयेंगे तो इसी रास्ते जायेंगे।
उधर दोनों पति-पत्नी रेलवे लाईन से होते हुए रेलवे स्टेशन पर पहुँच चुके थे। रेलवे स्टेशन पर पुलिस थी, इसलिए वहाँ पर कोई डर नहीं था। रेलगाड़ी जाने के लिए तैयार थी, दोनों उसमें बैठ गए। रेलगाड़ी में बैठे सभी लोग आपस में हिन्दुस्तान जाने की बातें करके अपनी ख़ुशी प्रकट कर रहे थे।
उस डिब्बे में बैठे ये दोनों पति-पत्नी रो रहे थे क्योंकि उनके पास न तो ट्रंक था और न ही उनका बच्चा।
पत्नी ने कहा," मैंने तो सुना था कि सन्तों का वचन झूठा नहीं होता है, दुनिया बदल सकती है परन्तु सन्तों के वचन अटल होते हैं, जब मैंने अपने बच्चे को "नामदान" देने की बात कही थी, तो गुरू जी ने कहा था कि जब यह बड़ा हो जाएगा, तो मैं इसे भी "नामदान" दे दूँगा। हमारा बच्चा आज भूखा-प्यासा मर जाएगा, या लूटेरे उसे मार देगें, यदि उनसे किसी तरह बच भी गया तो कौआ-गिद्ध उसे खा जाएँँगे और सन्त का वचन झूठा हो जाएगा।"
रेलगाड़ी के गार्ड ने अपनी सीटी बजानी शुरू कर दी। इतने में एक आदमी, कुली के वेश में एक कन्धे पर ट्रंक और दूसरे कन्धे पर एक बच्चा उठाए हुए ज़ोर-ज़ोर से ऊँची आवाज़ें लगाता हुआ हर डिब्बे के पास जाकर कह रहा था कि भाई !
जिसका यह ट्रंक हो, ले लो और जिसका यह बच्चा हो, ले लो। उसकी आवाज़ सुनकर पति-पत्नी ने जब खिड़की से बाहर देखा तो वो उनका ही ट्रंक और उनका ही बच्चा था। उन्होंने एकदम से आवाज़ लगाई, "ओ भाई ! इधर आओ, यह ट्रंक और बच्चा हमारा ही है।"
बच्चे को लेकर पत्नी ने चूमा और उसे अपनी छाती से लगाये हुए अपने पति से कहा, " ट्रंक खोल कर इस बेचारे को दो सौ रूपए दे दो, इसने हमारा ट्रंक और बच्चा हमारे पास पहुँचाया है।"
पति दो सौ रूपए निकाल कर उस आदमी को देने लगा लेकिन उसने लेने से इन्कार कर दिया।
पत्नी ने सोचा, शायद पैसे कम हैं इसलिए नहीं ले रहा है।
पत्नी ने कहा, " इन्हें पाँच सौ रूपए दे दो।"
पति पाँच सौ रूपए देने लगा तो उसने फिर लेने से इन्कार कर दिया।
पत्नी ने कहा," आप इनको ट्रंक में रखे सारे रूपए दे दो, हम भीख माँग कर भी अपना गुज़ारा कर लेंंगे।"
पति के सारे रूपए निकाल कर देने पर उस आदमी ने रूपए लेने से इन्कार करते हुए कहा," बाबू जी ! जिस ट्रंक में से आप बार-बार पैसे निकाल कर मुझे दे रहे हैं, यदि मुझे पैसे ही लेने होते तो यह ट्रंक तो पहले ही मेरे पास था। मैं पैसे लेने के लिए आपका ट्रंक और आप का बच्चा लेकर नहीं आया हूँ।"
बातचीत के दौरान पति-पत्नी का ध्यान एकदम से उस आदमी के कुर्ते पर गया तो देखा कि उसके कुर्ते का एक कन्धा फटा हुआ था और उसमें से खून निकल रहा था और दूसरा कन्धा बच्चे के मल-मूत्र से लथपथ हो चुका था, क्योंकि बच्चा गिर जाने से डरा और घबराया हुआ था, इसलिए कन्धे के ऊपर ही उससे मल-मूत्र होता जा रहा था और दूसरा कन्धा खून से इसलिए लथपथ था कि ट्रंक के नीचे गिरने से ट्रंक की चादर टूट गई थी जिससे कुर्ता भी फट गया और कन्धा भी कट गया जिससे लगातार खून निकल रहा था।
"ऐसी हालत में आप हमारा ट्रंक और बच्चा लेकर आए हो, आप यह सारे पैसे रख लो, हमारा ट्रंक और बच्चा हमें मिल गया है। बस आप यह सारे पैसे रख लो।" पति-पत्नी एक साथ बोले।
तब उस आदमी ने कहा, " देख बेटी ! मैं पैसे लेने के लिए नहीं आया हूँ, बल्कि इसलिए आया हूँ कि कहीं तुम्हारा विश्वास टूट न जाए कि सन्तों का वचन सच्चा नहीं होता है। यदि मैं आज इस बच्चे को तुम्हारे पास न पहुँचाता तो तुम्हारा विश्वास सन्तों से उठ जाता। मैं तो इसलिए आया हूँ कि सन्त वचन अटल और सच होता है।"
इतनी बातें सुनते ही रेलगाड़ी ने अपनी चलने की रफ़्तार बढ़ा दी। जब पति-पत्नी ने खिड़की से बाहर देखा तो उन्हें रेलवे प्लेटफार्म पर कोई भी आदमी नहीं दिखाई दिया।
दोनों पति-पत्नी की आँखों से आँसुओं की धारा बहती जा रही थी, रुकने का नाम नहीं ले रही थी। दोनों आपस में बातें कर रहे थे।
पत्नी ने कहा," गुरु जी से "नामदान" लेने के समय जब मैंने इस बच्चे को भी "नामदान" देने की विनती गुरु जी से की थी तो उस दिन भी गुरु जी ने मुझे "बेटी" सम्बोधित करते हुए कहा था, " तू इस बच्चे की चिन्ता मत कर। जब यह बड़ा हो जाएगा तो मैं इसे भी नामदान दे दूँगा।"
आज हमारा विश्वास गुरू जी से उठ रहा था। सन्तों का वचन झूठा न हो और उन पर हमारा विश्वास बना रहे, इसी मक़सद से सतगुरु जी को स्वयं अपना रूप बदल कर आना पड़ा। थोड़ी सी मुसीबत आ जाने पर साधारण इन्सान का विश्वास डगमगाने लगता है और अपने सतगुरु के ऊपर से उसका विश्वास उठने लगता है।"
सन्तमत करनी का मार्ग है, कथनी का नहीं। सन्त जो कुछ कहते हैं, वो उनका अपना अनुभव होता है, कोई सुनी सुनाई बातें नहीं होती हैं। सन्त कबीर जी ने कहा-
तू कहता काग़ज़ की लेखी।
मैं कहता आँखों की देखी।।
सन्तों के बताए हुए मार्ग पर चल कर हम अपनी ही आँखों से अपने ही अन्दर देख सकते हैं कि अनामी प्रभु हमारे अन्दर है और कितनी बेसब्री से हमारा इन्तज़ार कर रहा है। मानव जीवन अनमोल है। इसकी हर एक श्वाँस इतनी क़ीमती है कि तीनों लोकों की दौलत देकर भी एक श्वाँस नहीं ख़रीदी जा सकती है, जिसे हम दिन-रात लोगों की निन्दा-चुगली करके और दुनियावी धन-दौलत इकट्ठा करने में निरर्थक गवाँ दे रहे हैं। मौत के समय सब सम्पदा यहीं रह जाएगी और केवल सतगुरु के सच्चे "नाम" की कमाई ही हमारे साथ जाएगी।
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