साधक, साधक की भी साधना में मदद कर देते हैं

जयगुरुदेव

07.01.2023
प्रेस नोट
उज्जैन (म.प्र.) 


*गुरु कुम्हार शिष्य कुंभ है और गढ़ी गढ़ी काढ़े खोट, अंदर हाथ सहार दे बाहर मारे चोट* 

*साधक, साधक की भी साधना में मदद कर देते हैं* 

*शरीर और जीवात्मा की कीमत कब बढ़ जाती है*


कुम्हार-घड़े के रिश्ते की तरह से अपने भक्तों को विभिन्न उपायों से निखार कर निर्मल कर उनकी कीमत बढ़ा देने वाले, की वो प्रभु के प्यारे बन जाए, अंतर में दिव्य अमृत छका कर पिलाने वाले, अंतर साधना की कमाई करवाने वाले और उस कमाई को जान-अनजान में लुटने से बचाने वाले, साध का संग दे सकने वाले, पारस पत्थर के समान छूकर दया कृपा कर जीवात्मा को लोहे से सोने जैसा कीमती बना देने वाले, इस समय के युगपुरुष, पूरे समरथ सन्त सतगुरु, उज्जैन वाले बाबा उमाकान्त जी महाराज ने 4 नवंबर 2020 सायं उज्जैन आश्रम में बताया कि जब तक इस शरीर के गंदगी में यह जीवात्मा पड़ी हुई है तब तक इसकी कोई कीमत भाव नहीं है। लेकिन जब (अंतर साधना में उपर की ओर) निकलती है तो एकदम खिंचाव हो जाता है, शब्द पकड़ती है और जब उधर (उपरी दिव्य लोकों में) पहुंचती है तो इन्हीं जैसी हो जाती है तो कीमती हो जाती है। मेहनत के बाद घड़ा तैयार हुआ। गधे पर लद कर बाजार में कम कीमत में बिका। फिर घड़ा सोचता है इतना तपने के बाद हमारी यही कीमत रह गई। आजकल कोई साधकों की कीमत लगाते हैं? नहीं लगाते। क्योंकि उन्हें खुद की कीमत का पता नहीं चलता। पहले तो पता चल जाता था। सिक्ख गुरु अर्जुन देव जी के समय से अपनी अंतर की कमाई का पता साधक को चलना बंद कर दिया गया। उस कमाई को तो सतगुरु अंदर में ले जाकर के सुन्न में जमा कर देते हैं और समय-समय पर गृहस्थी चलाने में, जान बचाने में, शरीर को चलाने में, मान सम्मान प्राप्त करने में साधना का फल देते रहते हैं। बाकी अंतर की चढ़ाई में लगाते हैं क्योंकि उनका निशाना जीवात्मा के कल्याण का, उसे निज घर सतलोक पहुंचाने का होता है इसीलिए कमाई सुरक्षित रखते हैं। और नहीं तो मालूम होने पर लोग उसको लुटा देते हैं? जैसे क्रोध आने पर श्राप दे देगा तो इकट्ठा किया सब अच्छा कर्म खत्म हो जाते हैं। सन्त या साधक ही साधक को पहचान पाते हैं।

*अंतर साधना में जब अमृत पीने को मिलता है तब ख़ुशी मिलती है*

बहुतों का परमार्थी निशाना होता है जैसे पानी पिलाना, रोटी खिलाना, मदद करना आदि। यह सब पुण्य का काम होता है। तो घड़ा खरीद कर ले गया, पानी पीने के लिए रखा तो वहां पर ऋषि मुनि सब बैठे अपना बातचीत कर रहे थे। तो सोचा इसमें हम गंगाजल भरकर के इनके लिए रखें। जब गंगाजल भरा गया तब घड़े के अंदर थोड़ी खुशी आई। जैसे साधक को जब (साधना में) ऊपर का अमृत मिलता है, जो ऊपर बरसता रहता है तो अंतर में बहने वाली गंगा-यमुना नदियां जब ऊपर मिलती है, उनके जल का जब पान करता है तो कहता है धरती पर तो ऐसा मीठा स्वादिष्ट शक्ति वाला जल ही नहीं। तब खुशी होती है। 

*साधक, साधक की भी साधना में मदद कर देते हैं* 

गोस्वामी जी का शिष्य हृदय था। उसने अपनी ताकत से लोगों की अंतर दृष्टि खोल दिया, सुरत को चढ़ा दिया था। कुछ औरतें गुरु के, गोस्वामी जी के प्रेम में उनके दर्शन के लिए समय से बेखबर रात को जा रही थी। आप इतिहास पढ़ोगे तब मालूम पड़ेगा। तो ह्रदय ने रास्ते में ही रोक दिया। आजकल के क्षणिक प्रेम में आदमी औरत कुछ नहीं देखते तो सोचो जिसे उस प्रभु से प्रेम हो जाए, ऊपर की दौलत हमको मिले, वह मालिक हमको मिले तो कोई कुछ देखेगा? कुछ नहीं। तो औरतें रात को चल देती थी। उस समय पर बड़ा प्रतिबंध था। घर से निकलना बड़ा कठिन काम था। एक दिन रास्ते में ही (ह्रदय) मिल गए, उनसे बोले कि मछली जल बिना तड़पे ऐसी तड़प जलन गुरुजी के दर्शन के लिए पैदा हो रही है। तो ह्रदय ने बैठाया, अच्छा यहीं दर्शन कराते हैं। तो अपनी (साधना की) पावर से (उनकी दिव्य द्रष्टि) खोल दिया और फिर वहीं गुरु जी का दर्शन करा दिया। खुश हो गई वहीं से लौट गई। घरवालों को पता भी नहीं चला कि कहां गई थी। वहां जाती तो समय लग जाता। इसलिए सतगुरु से साधकों ने साध की मांग की 'साध संग मोहे देव नित, परम गुरु दातार' या मेरे गुरु या मेरे मालिक मुझे साध का संग दो। साध का संग भी बड़ा फलदाई होता है। 

*इस शरीर को क्यों हीरा कहा गया*

तो घड़ा बड़ा खुश हुआ कि देखो गंगाजल भरा गया। और हमको कोई साधक महात्मा त्यागी ही छुएगा। उसको भी उम्मीद जगी जैसे पत्थर कि अहिल्या थी। और वो तो सन्त भी नहीं थे, केवल महापुरुष शक्ति उनमें थी। उनके पैर लगने से नारी बन गई तो ऐसी उम्मीद घड़े को जगी। इनमें से कोई मिल जाए, हमारी भी तकलीफ दूर कर दे, हमें मिट्टी से सोना फिर हीरा बना दे। फिर हम प्रभु में ही समा जाएं। जैसे अंदर हीरा रहने तक डिब्बी की कीमत होती है ऐसे ही जीवात्मा रहने तक इस मनुष्य शरीर की हीरे समान कीमत होती है। यही सब सोच रहा था तब तक उधर से आदमी आया देखा, सोचा कि ये मिट्टी के घडे की कितनी कीमत है कि जिसमें गंगाजल भरा हुआ है और इसको सन्त अपने हाथ से छू करके पानी निकाल कर के पीएंगे तो मुझे भी ऐसा ही परोपकारी, प्रभु के काम आने वाला बनना चाहिए। लोहे से ही तलवार हंसिया कैंची और सुई बनती है लेकिन काम महत्त्व अलग-अलग है। जैसे पारस से लोहे को छुआ देंगे तो सोना बन जायेगा ऐसे ही जीवात्मा भी परमात्मा से छूकर कीमती बन जायेगी। 

*घड़े की जीवन गाथा से क्या सीखने को मिलता है*

कहने का मतलब यह है इसी तरह से बनना है। भौतिक रूप से और अंदर में भी इसी तरह से बन जाओ। आप की जीवात्मा जब ताकतवर हो जाए, काम की हो जाये जैसा साधक साधक की दृष्टि खोल देता है, भलाई कर देता है, आत्मा जब जग जाती है तो यह सब काम हो जाता है और शरीर की भी कीमत बढ़ जाती है। जब यह काम क्रोध लोभ मोह अहंकार जलते हैं, सफाई होती है, जब मिट्टी की तरह से धुलाई, तपाई होती है, परमार्थ की तरफ यह शरीर भी लग जाता है तब इसकी भी कीमत बढ़ जाती है।


बाबा उमाकांत जी महाराज 

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