पुराने सत्संगी की यादें (post 25)

जयगुरुदेव 
दादा गुरु जी के चरणोें में व्ही.एच. लुल्ला (चाचा जी) के संस्मरण

मेरा जन्म सिन्ध पाकिस्तान में हुआ, हमारा शहर महात्मा व फकीरों की वजह से मशहूर था। जाति पाति का कोई भेदभाव नहीं था। उसी का असर हम पर भी रहा। भारत पाकिस्तान बटबारे में हम लोग भारत मे आये, और कानपुर में अस्थाई तरह से रहे और हमारा बड़ा भाग्य रहा कि वहां दादा गुरु के चरणों में आये। उस समय पर मैंने बनारस हिन्दु यूनिवर्सिटी का कोर्स पास किया था। उस समय पर एक दोस्त मिला उसका नाम कमला शर्मा था। उसने बताया कि एक ऐसे महात्मा कानपुर में आ रहे हैं जो आंख और कान खोल देते हैं।

मैंने कहा कि हमको भी दर्शन करा देना। 2 जून 1948 में दादा गुरु को बाबा जयगुरुदेव स्वामी जी महाराज कानपुर ले आये और डाॅ. संकठा प्रसाद के घर मे रहने का बंदोबस्त हुआ। मैं दादा गुरु के दर्शन के लिये गया। जैसे ही दर्शन किया तो मालूम हुआ कि हमको सब कुछ मिल गया और हमको कुछ नहीं चाहिये। हम दादा गुरु जी को देखते ही रहे। दूसरे दिन दादा गुरु ने डाॅ. संकठा प्रसाद और उनकी पत्नी को नामदान दिया। उसके अगले दिन दादा गुरु जी ने हमको अकेले में नामदान दिया।

डाॅ. संकठा प्रसाद ने अपने साले श्री नारायण जी को बनारस में तार भेजा कि हमको सच्चा महात्मा मिल गया है आप भी यहां आकर दर्शन कर लो। उसके बाद श्री नारायण जी अपनी पत्नी के साथ कानपुर आये और उसके अगले दिन दादा गुरु जी ने उनको नामदान दिया। दादा गुरु ने हम 5 लोगों को अन्तिम नामदान दिया था। हम लोगों ने स्वामी जी के फोटो के लिये उनसे आज्ञा मांगी कुछ देर के बाद उन्होंने मान लिया। फोटोग्राफर बुला कर फोटो ले लिया जो सबके लिये बरदान साबित हुआ। 

एक हफ्ते के बाद दादा गुरु जी वापिस जाने के लिए तैयार हो गये। उस समय स्टेशन पर बिदाई के वक्त हम सब लोग दुखी रहे। लेकिन दादा गुरु जी ने प्रेम से सबको आशीर्वाद दिया। दादा गुरु जी चिरौली घर वापस पहुंचे। कुछ समय के बाद जयगुरुदेव स्वामी जी ने संकठा प्रसाद और हमको तार भेजा कि दादा गुरु जी कि तबियत ठीक नही है। आप आकर दवा दे दीजिए। हम दोनों लोग चिरौली गये और दादा गुरु जी को दवा दिया।

दादा गुरु जी को कुछ आराम हुआ लेकिन बाद में अलीगढ़ के पाठक जी उनको अलीगढ़ ले गये दवा कराने के लिये। चिरौली में संकठा प्रसाद और मैं दादा गुरु जी के सामने बैठै थे। तो संकठा प्रसाद ने दादा गुरु जी से पूछा कि अगर आप चले जाएंगे तो हमारा सहारा कौन रहेगा। दादा गुरु जी के घर में एक ऐसी पोटली टंगी रहती थी, जिसमें से दादा गुरु जी जब चाहें प्रसाद निकाल कर देते थे, और उनके घर में एक ऐसी गाय भी थी जिससे जब चाहें तब दूध ले लेते थे।

अलीगढ़ में दादा गुरु जी की तबियत सही नहीं रही। एक शाम को उन्होंने पाठक जी को बुलवाया कि हमको अभी चिरौली ले चलो, नही तो हमारी (तेरहवी) आपको यही करनी पड़ेगी। पाठक जी ने तुरंत तांगा बुलवाया और दादा गुरु जी को चिरौली ले गये। अलीगढ़ में पाठक जी ने सब सत्संगियों को सूचना दी और सब लोग उसी शाम को चिरौली पहुंच गये। दादा गुरु जी ने सबको आशीर्वाद दिया और कहा कि सत्संग बहुत बढ़ेगी और संभाले न संभल पायेगा। 

दादा गुरु जी के शरीर छोड़ने के बाद उनकी गाय ने भी अपना शरीर छोड़ दिया। उसके बाद स्वामी जी बनारस में श्री नारायण जी के घर में रहे और साधना किया। सन् 1952 में उन्होंने बनारस से सत्संग शुरु किया।
सन् 1958 लखनऊ में मैं गर्वमेन्ट आर्ट काॅलेज में लेक्चरार था तब मैंने स्वामी जी को निमंत्रण दिया और लखनऊ में काॅलेज के आर्टीस्ट से मुलाकात करवाई। 

स्वामी जी ने उनको कुछ सत्संग सुनाया और कहा की ईश्वर की प्राप्ति महात्माओं से मिलेगी रास्ता ले कर जीवन सफल करना चाहिये। हमारे भाई लखनऊ में थे कभी-कभी स्वामी जी और में उनके घर मिलने जाते थे। एक दिन शाम को उनके घर पर सत्संग की बातें कर रहे थे, तो भाई ने पूछा की स्वामी जी निरत क्या होती है। स्वामी जीने हाथ मे टार्च लिया और जला दिया और रोशनी की तरफ इशारा करके कहा कि निरत ऐसी होती है।

सन् 1960 में स्वामी जी मुम्बई आये और सेठ मगनलाल शाह के पास ठहरे। रोज शाम को चौपाटी में स्वामी जी सत्संग किया करते थे। एक दिन पारसी स्त्री सत्संग में आई और हमसे कहा कि क्या मैं स्वामी जी से मिल सकती हूं। मैंने कहा हां और वे अपनी कार में पीछे-पीछे आई अन्दर आकर स्वामी जी से कहा कि हम अरबिन्दो की चेली हूं। 

जब वो जिंदा थे तो हमारी आंखों के बीच में लाईट दिखाई पड़ती थी। लेकिन जब से वो गुजर गये हैं तब से लाईट बंद  हो गयी। क्या ये हमेशा रह सकती है स्वामी जी ने कहा, हां । लेकिन आपको शाकाहारी रहना पड़ेगा। महिला ने कहा कि डाॅक्टर से पूछूंगी। बाद में उसने कहा कि डाॅक्टर ने मना किया है मैं नहीं छोड़ सकती। 

एक सेठ भी स्वामी जी के सत्संग में आते थे और वह अफीम खाते थे स्वामी जी ने सत्संग में कहा कि, साधना करने से नशा छूट जाता है। तो उस सेठ ने शाम को अफीम नही खाई कि देखें क्या प्रभाव होता है। एक दिन नशा नहीं किया। दिल मे सोचा कि जब आज नहीं हुआ तो आगे भी नही होगा। और रोज साधना करने से उनका नशा छूट गया। स्वामी जी के पास आकर स्वामी जी के चरणों में गिर पड़ा। और कहा स्वामी जी हमारी अफीम छूट गयी।

सन् 1979 में मैं डी.आर.डी.ई. ग्वालियर से सेवानिवृत्त होकर परम् पूज्य स्वामी जी महाराज बाबा जयगुरुदेव के निजधाम जाने के समय तक आश्रम पर उनके चरणों में रहा।

(व्ही एच लुल्ला चाचाजी)
_मेरी साधना

शेष क्रमशः पोस्ट न. 26 में पढ़ें  👇🏽


mere malik jaigurudev ji
 

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