...लोग हैं कि जितना भी मिले रोते ही रहेंगे।

जयगुरुदेव 

⧫ खान खरच बहु अन्तरा ⧫


कबीर साहब ने कहा है कि माया ऐसी है कि अगर इसे काम में लेते रहो यानी खिलाते और खरचते रहो तो ये तुम्हारी मुक्ति का साधन बन जायेगी। अगर इसको मुटठी में रोका यानी संचय करने में लग गए तो लोक परलोक दोनों तो जायेंगे ही सीधे नर्क में ढकेल देगी।

स्वामी जी महाराज का एक वचन है कि जब कोई धनी व्यक्ति जिसने बहुत संचय कर लिया है तो जब वह उसके दरबार में पेश होता है तो उसके लिए धर्मराज का हुकम होता है कि इसको ले जाओ सीधे नरक में डाल दो। इसने इतना धन संचय किया है तो गुनाह भी बहुत किए होंगे।

स्वामी जी महाराज कहते हैं कि इसको खाते खरचते रहो, रोको मत। अगर प्रवाह रुक गया तो रास्ता बन्द हो जायेगा। इसीलिए कबीरदास जी ने कहा कि
साई इतना दीजिए, जामें कुटुम्ब समाय। मैं भी भूख ना रहूं साध न भूखा जाय।।

अगर इतना वो मालिक देता है तो उसका लाख लाख शुकराना करना चाहिए। जो एक वरिष्ठ सतसंगी ने मुझे सुनाई थी कि स्टेट बैंक के एक मैनेजर थे। जो स्वामी जी के प्रेमी थे। स्वामी जी महाराज उनके घर पर बैठे थे। वह भी वहीं थे। दोपहर में मैनेजर साहब उनकी पत्नी स्वामी जी महाराज और वह थे। उनकी पत्नी ने खर्चे का दुखड़ा रोया कि बड़ी मुश्किल है खर्च चलाने में। मैंनेजर साहब भी उनकी हां में हां मिला रहे थे।

कुछ देर स्वामी जी चुपचाप सुनते रहे। फिर स्वामी जी ने पूछा कि मैंनेजर साहब! आपकी तनख्वाह कितनी है? उन्होंने डेढ़ या दो हजार बताया। ये बात सन 1958 की है। उस समय डेढ़ दो हजार मायने रखता था। फिर स्वामी जी ने पूछा कि आपके फ्लैट का किराया कितना है ? वो बोले कि चार सौ रुपये। उन दिनों तीन सौ चार सौ में अच्छे फ्लैट मिलते थे। स्वामी जी ने कहा कि किराया तो आपको बैंक देती होगी? वो बोले कि हां। फिर स्वामी जी ने पूछा कि आपके बैंक के चपरासी को कितना मिलता है? ये बता दूं कि वो चपरासी स्वामी जी का दर्शन करने बराबर आया  करता था। उन्होंने कहा कि डेढ़ सौ।

स्वामी जी ने कहा कि मैनेजर साहब! आप अच्छे मकान में रह रहे हो, आप के बच्चे, अच्छे स्कूलों में पढ़ाई कर रहे हैं, आपके पास सुख सुविधा के सारे सामान हैं फिर भी आप खर्चे का रोना रोते हो। आप का चपरासी आता है। वह डेढ़ सौ पाता है लेकिन उसके भी तो बाल-बच्चे होंगे पर वह आता है, दर्शन करता है, खुश होकर जाता है, लेकिन आज तक कभी उसने रोना नहीं रोया। मालिक जितना देता है उसका शुकराना करना चाहिए लेकिन लोग हैं कि जितना भी मिले रोते ही रहेंगे।

इस संदर्भ में स्वामी जी महाराज ने कहा कि जब मैं अपने छोटै छोटे प्रेमियों के घर जाता हूं तो उनको ख़ुशी ये होती है कि मैं वहां गया उनके पास जो कुछ भी रहता है इतने प्यार और श्रद्धा से सामने लाकर रखते हैं कभी कोई रोना नहीं रोते। लेकिन जब मैं बड़े लोगों के घर जाता हूं तो सब कुछ होने के बाद भी उनके दुखड़े ही सुनने पड़ते हैं।

बात शुकराने की चली तो एक वाक्य कहीं पढ़ा था हजरत मोहम्मद के समय का। जब हजरत मोहम्मद अपनी तकरीर शुरु करते तो एक आदमी कुछ देर वह सुनता फिर भाग कर घर चला जाता। फिर उसकी पत्नी आती और वो पूरा सुनकर जाती। लोग उन दोनों को रोज देखते रहते थे। एक दिन एक  प्रेमी ने हजरत से पूछा कि ये ऐसा क्यों करते हैं। हजरत ने कहा कि जाओ उनका पीछा करो और देखो।

उस आदमी ने उसका पीछा किया जब वो अपने घर गया तो उसने अपनी चादर उतार कर अपनी पत्नी को दे दी। उसकी पत्नी उसे ओढ़कर तकरीर सुनने चल पड़ी। पीछा कर रहे व्यक्ति ने उस  आदमी से पूछा कि तुम ऐसा क्यों करते हो? उसने जवाब दिया कि मेरे पास एक ही चादर है इसलिए मैं पहले ओढ़कर चला जाता हूं। जब आधा सुनकर मैं आता हूं तो फिर मेरी पत्नी चादर ओढ़कर जाती है।

उस आदमी को तरस आ गई । वह गया और  बाजार से एक चादर लाया और उससे कहने लगा कि इसे रख लो। कल से तुम दोनों साथ तकरीर सुनने जाना। तो उसका जवाब था कि अरे मैं चादर लेकर क्या करुंगा। खुदा का लाख लाख शुक्र है कि उसने मुझको एक चादर तो दी है अगर ये भी न होती तो हम दोनों कैसे जाते। तो खुदा की यही मर्जी है हम खुश हैं। ये है शुकराना।

खाने खरचने में भी बड़ा अन्तर है। एक अपनी मान बढ़ाई के लिए अपनी शोहरत के लिए किसी को कुछ भी खिलाया पिलाया। खाद्य, अखाद्य का भी ध्यान नहीं रखा और एक है कि कोई भी आ गया अतिथि साधू सन्त अपनी हस्ती के अनुसार प्रेम और  श्रद्धा से उसकी सेवा कर दी। इसका फल ऊंचा है। 
इसलिए कबीर साहब ने कहा हैः
खान खरच बहु अन्तरा। एक खवाबे साध को, एक नरक ले जाय।।

बात समझने की है। खाने खरचने का काम तो हर कहीं होता है वो चाहे घर परिवार हो चाहे परमार्थ का दायरा हो माया की लकदक हर कहीं रहती हैं स्वामी जी महाराज ने एक बार कहा था कि संगत का पैसा कोई पचा नहीं सकता। इसका एक पैसा भी किसी ने रोक लिया तो हजम नहीं कर पायेगा। इसलिए कोई भी दायरा हो बहुत सोच समझकर कदम उठाने की जरूरत है नहीं तो माया कब किसको ऊपर चढ़ा दे और कब किसको औंधे मुंह गिरा दे। स्वामी जी महाराज बराबर कहते हैं कि
आश्रम की रोटी नौ-नौ अंगुल दांत। भजन करे तो ऊबरे, नही तो फाड़े आंत।।

और अन्त में मुझे सुदर्शन शर्मा जी की एक बात बराबर याद आती रहती है कि आश्रम पर रहो तो हाथ खोले रहो, मुटठी बन्द मत करो। आंखों पर नियंत्रण रखो, जुबान पर नियंत्रण रखो। जुबान ही ऐसी है जो दो कार्य करती है। एक तो स्वाद लेने का, दूसरी वाणी निकालने का।। और चौथे स्वामी जी महाराज ने एक बार सुनाया था कि राम जब चित्रकूट में रहने को गए तो वहां पर लोगों से कहा कि हम यहां पर कुछ दिन रहना चाहते हैं तो उनका जवाब था कि जिभ्या और निभ्या पर काबू रक्खो। तो कहीं भी रह सकते हो।

- एक पुुराने सतसंगी से


⧫ कहानी 

पांच चोर चोरी करने जहां जाना था उसी ओर निकले। उनको प्यास लगी। सामने महात्मा का आश्रम दिखा। वहां एक कुंआ था। पहले लोग जब कहीं चलते थे तो लोटा डोर लेकर साथ रखते थे। वो लोग भी लोटा डोर लेकर कुंये पर पानी लेने गए। कुंये पर आवाज हुई तो आश्रम के लोग आ गए। महात्मा जी ने उन सभी को बुलाया और पूछा कि तुम लोग कौन हो और यहां कैसे आए ?

वो डर गए लेकिन सच बोले कि हम लोग चोर हैं और सच सच सारी बात बता दी। महात्मा जी ने उन लोगो को बिठाया, पूरा सतसंग सुनाया और फिर पूछा कि चोरी क्यों करते हो?

वे बोले कि हमारा पूरा नहीं पड़ता है। महात्त्मा जी ने कहा कि हम बतायेंगे तुमको। उनके यहां एक ठेकेदार से कहा कि इन आदमियों को तुम कोई काम दे दो ये अपना मेहनत मजदूरी करेंगे। ठेकेदार ने काम बता दिया। वो अपने काम में लग गए। काम करते और महात्मा के पास आते जाते 6 महीने बीत गए। एक दिन महात्मा जी ने उन सभी को बुुलाया और पूछा कि अब पूरा पड़ता है ? उन्होंने कहा कि हां।

तो कहने का मतलब ये कि महात्मा के सतसंग से आदमी बदल जाता है, बरक्कल मिले लगती है। अनजाने में आदमी जाकर कहां फंस जाता है जब कि उसे कहीं और फंसना नहीं चाहिए। चोरी के धन में बरक्कत नहीं होती बल्कि जिसका ले जाओगे वह दुखी होगा तो उसका श्राप लगेगा।


⧫ अब तुम बदल जाओ 
महात्माओें का लक्ष्य रहता है कि इन्सान अपने को बदल ले बुरी आदते छूट जायं अच्छी आदतें आ जायें और वो अपना काम करे। तुम लोग आते हो, तुम्हारे साथ कितने लोग चले आते हैं। वो तो सतसंगी है नहीं। उनकी निगाह सबके सामानों पर रहती है मौका मिला हाथ साफ कर दिया। तुम कहते हो कि हमारी चोरी हो गयी। यहां तो कोई चोर है नहीं। अब जो चले आते हैं तो उन पर तुमको भी निगाह रखनी चाहिए। तुम्हें अपने सामानों की देखभाल खुद करनी चाहिए।

एक वक्त खाओ आप तो गृहस्थी में रहते हैं लेकिन साधुु का मतलब है कि जो किसी से गाली गलौज न करे। किसी को अपशब्द न कहें। जब मैं स्वामी जी महाराज के पास गया  उनसे नामदान लिया तो गांव में चला गया एक रोटी मांग लाया एक घर से और वही एक रोटी खानी फिर भजन करना। वैसे  भी साधू को एक ही वक्त खाना चाहिए। उनको किसी की बातों का मन में गांठ नहीं बनाना चाहिए। किसी की बात का गांठ क्या बांधना? साधू वही है जो सबकी बर्दाश्त करे और सुविचार से रहे तभी भजन बनेगा और तभी भीख भी मिल जाएगी। साधू को तो भजन करना है। किसी की बात पकडकर उससे लड़ाई तो करनी नहीं है।

जब से सबके विचार खतम हुए साधु बनने का अर्थ नहीं समझा तब से गड़बड़ी होने लगी, सबका विश्वास टूट गया। अब तरह तरह की खबरे आती हैं कि वो आए  तो धोखा दे दिया उसने ठग लिया। जो सच्चा साधू है वह न तो किसी को ठगता है न किसी को धोखा देता है लेकिन अगर तुम न समझो तो क्या किया जाय। कोई बाल दाढ़ी या नीले पीले कपड़े का नाम तो साधू नहीं।
सिहों के लहड़े नहीं, हंसों की नहीं पांत। लालों की नहीं बोरियां, सन्त न चलें जमात।।


⧫ क्या आप जानते हैं ? 

 गुरु अपने सूक्ष्म रूप में सभी सतसंगियों के अन्दर हैं और अन्दर जाने पर उनका दर्शन होता है। गुरु से बातचीत होती है और सतसंगी अपनी समस्याओं को बताकर जबाव भी प्राप्त कर सकता है। दोनों आंखों के पीछे ऊपर की तरफ तीसरा तिल है जहां गुरु अपने प्रकाशवान सूक्ष्म स्वरूप में विद्यमान रहते हैं।

 सन्त सतगुरु कभी मरते नहीं हैं। अपने जीवन काल में अपने शिष्यों को उचित सहायता देते हैं। जब शिष्य भजन के द्वारा अन्तर के लोकों में जाता है तब वहां गुरु अपने सूक्ष्म रूप द्वारा सहायता बराबर करते हैं ताकि वो वहां के दृश्यों को देखकर या सुन्दर स्वरूपों को देखकर फंस न जाये जब गुरु अपना स्थूल चोला बदल देते हैं तो उनकी इस संसार की जिम्मेदारियां उनके उत्तराधिकारी पूरा करते हैं जिनको वो मुकर्रर करते हैं लेकिन उन्तर के लोकों में गुरु का वही स्वरूप मदद करता है जिस स्वरूप में उन्होंने नामदान दिया था।

 जब सतसंगी चोला छोड़ता है तब आन्तरिक गुरु ही फैसला करता है कि उस आत्मा को स्थूल संसार में वापस भेजा जाय या किसी ऊपर के लोक में रखकर आगे की तैयारी कराई जाये। अगर सतसंगी के मन में किसी सांसारिक सुख या  मोह के लिए  इच्छा रह जाती है तब उसे संसार में वापस भेजा जाता है। सतगुरु की जिम्मेदारी तब तक खत्म नहीं होती जब तक सतसंगी सत्तलोक न पहुंच जाये। यदि यह जिम्मेदारी दूसरे संत सतगुरु को सौंप दी जाये तो शिष्य के लिये कोई फर्क नहीं पड़ता है क्योंकि गुरु का  वास्तविक रूप शब्द है शब्द अमर है।

 मौत के बाद मुक्ति मिलेगी इस पर विश्वास करना अपने आपको धोखा  देना है। मुक्ति जीते जी मिलती है, स्वर्ग बैकुण्ठ लोको में जीते जी जाया जाता है। ये सभी लोक आसमान के ऊपर हैं और रास्ता दोनों आंखों के बीच से गया हुआ है। मौत के वक्त जिस तरह से आत्मा शरीर से अलग हो जाती है उसी प्रकार साधना के द्वारा यह जीवात्मा शरीर से निकलकर आसमानों के ऊपर देवताओ के मण्डल में जाती है विचरण करती है और फिर वापस शरीर में लौट आती है। यह आध्यात्मिक विज्ञान है।

 शब्द एकाग्रता  से आता है यानी आकाशवाणी, देववाणी मन के एकाग्र होने पर स्पष्ट सुनाई देती है। शब्द ही वह डोर है जिसको पकड़कर जीवात्मा ऊपर के प्रकाशमान लोको में स्वर्ग, बैकुण्ठ, शक्तिलोक में चढ़ जाती है। सत्तलोक ही सारी जीवात्माओं का अपना निज घर है जहां न जन्मना है न मरना है, न दुख है न क्लेश न कोई बीमारी है।  कबीर साहब ने कहा है कि- 
कहे कबीर वा घर चलो  जहां काल न जाई।

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